पिछड़ी जातियों के ताकत में वृद्धि होने के फलस्वरुप अन्य जाति के लोगों के मूलाधिकारों का हनन चलता रहा। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय द्वारा जातिबध्द शोषण को कमजोर कर दिया। मराठों को पक्षपातपूर्ण आरक्षण देने वाले महाराष्ट्र सरकार के कानून को अवैध करार दिया। शिव सैनिक मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को दुविधा में डाल दिया। अब आरक्षण की आड़ में राजकोष की अंधाधुंध लूट में कुछ कमी आयेगी। गुण, अर्हता, क्षमता, नैपुण्य तथा पात्रता तो क्षत—विक्षत हो ही गयी थी। हालांकि महाराष्ट्र का यह कानून रचा था महाराष्ट्र के विदर्भवासी ऋगवेदी ब्राह्मण पूर्व भाजपायी मुख्यमंत्री देवेन्द्र गंगाधर फडनवीस ने। कोर्ट का निर्णय था कि ठाकरे सरकार सिद्ध नहीं कर पायी कि सामाजिक तथा आर्थिक रुप से मराठे पिछड़े हैं। यह भी कहा कि पचास प्रतिशत आरक्षण के अर्थ हैं कि समाज के वर्गों को समानता नहीं, वरन जाति के आधार पर लाभ दिया जा रहा है। इस फैसले से अब दबंगों और जातिवादी माफियाओं की ताकत घटेगी।
यूं आरक्षण नीति भारत के स्वाधीन होने के दिन से ही घालमेलवाली रही। डाॅ. राममनोहर लोहिया ने जब नारा दिया था कि ''सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ'', तो उस वक्त अवर्ण समुदाय युगों के शोषण से निजात पा रहा था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दलितों के कल्याण हेतु अथक संघर्ष कर उनका अमानवीय शोषण रुकवाया था। किन्तु मध्य जातियों की ताकत के समक्ष दलित संघर्षशील नहीं हो पाये। संविधान (धारा 16) ने अवसर की समानता का अधिकार तो दे दिया, पर वोट बैंक की चुनावी सियासत के अंजाम में नये नियम अधकचरे रहे और क्रियान्वयन उनका विकृत रहा। इच्छा शक्ति का अभाव रहा। सर्वप्रथम नेहरु-कांग्रेस ने चुनावी त्रिभुज बनाया था। इसमें ब्राह्मण, दलित और मुसलमान शामिल थे। इसे तोड़ने के लिये सोशलिस्टों ने पिछड़ा जातियों को संगठित कर कांग्रेस को मजबूत चुनौती दी। मगर दलित और आदिवासी फिर भी उपेक्षित और शोषित ही रह गया।
पिछड़ी जातियों के ताकत में वृद्धि होने के फलस्वरुप अन्य जाति के लोगों के मूलाधिकारों का हनन चलता रहा। एक दफा तो उच्चतम न्यायालय ने इसी मराठा कोटा की सुनवायी के दौरान (20 मार्च 2021) जानना चाहा था कि कितनी पीढ़ियों तक यह आरक्षण व्यवस्था जारी रहेगी? महाराष्ट्र शासन के वकील मुकुल रोहतंगी ने न्यायमूर्ति अशोक भूषण को पांच-सदस्यीय पीठ से नयी, बदली हुयी परिस्थितियों में मण्डल कानून पर प्रदत्त 1992 के निर्णय पर पुनर्विचार की मांग की थी। उनका तो यहां तक मानना था कि आरक्षण तय करने का दायित्व राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिये। मकसद यही था कि राज्य काबीना में जिस जाति का दबदबा हो और वोट कहां से झटक सकते हैं इसी से नीति निरुपित हो, न कि जातिगत जरुरतों पर तथा शोषण और वंचना को अवरुद्ध करने की आवश्यकता पर। उच्चतम न्यायालय ने गत वर्ष (23 अप्रैल 2020) के अपने फैसले में कहा भी था कि ऐसा नहीं हैं कि ''आरक्षण पाने वाले वर्ग की जो सूची बनी है वह पवित्र है और उसे छेड़ा नहीं जा सकता। आरक्षण का सिद्धांत ही जरुरतमंदों को लाभ पहुंचाना है। ''संविधान पीठ ने अपने एक आदेश में कहा, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के भीतर ही आपस में संघर्ष है कि पात्रता के लिये योग्यता क्या होनी चाहिये।'' पीठ ने कहा था कि, सरकार का दायित्व है कि सूची में बदलाव करें जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में नौ-सदस्यीय पीठ ने कहा था। संविधान पीठ ने तब कहा कि, ''आरक्षित वर्ग के भीतर ही सामाजिक और आर्थिक रुप से चन्द मजबूत लोग हैं। ऐसे में जरुरतमंद लोगों को सामाजिक मुख्यधारा में लाने की मांग को लेकर संघर्ष चल रहा है। बावजूद इसके उन्हें आरक्षण का सही मायने में लाभ नहीं मिल पा रहा। इसे लेकर आवाजें उठ रहीं हैं।''
परतंत्र भारत में आरक्षण के इतिहास का परिशीलन किया जाये तो एक बात बड़ी स्पष्ट हो जाती है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी चाहते थे कि गांधीजी के जनान्दोलन को कमजोर करने हेतु बहुसंख्यक हिन्दू समाज को वर्णों तथा जातियों में तोड़ दो। स्पष्ट है वे आपस में भिड़ेंगे तो स्वतंत्रता संघर्ष कमजोर पड़ेगा। उसी दौर में गांधीवादी पुरोधा, विशेषकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, मामा बालेश्वर दयाल, अच्युत पटवर्धन, पुरुषोतमदास, त्रिकमदास आदि ने विरोध किया और हिन्दू समाज को एक जुट रखने का प्रयास किया। काफी हद तक सफल भी हुये। उनकी राय थी कि आजाद भारत में स्वदेशी शासन इन आर्थिक समस्याओं का हल निकालेगा। इसी संदर्भ में याद कर लें कि स्वाधीनता मिलते ही सोशलिस्टों ने पहला जनसंघर्ष चलाया था ''जाति तोड़ो'' वाला। मगर इसको स्वार्थवश एक-दो ताकतवर पिछड़ी जातियों ने धारा और दिशा बदलकर अपने ही संप्रदाय हेतु हाईजैक कर लिया। बहुजन वंचित रह गया। ठगा गया।
उधर अपनी साम्राज्यवादी नीति के तहत भारत तोड़ो कदम उठाकर ब्रिटिश शासन ने मुसलमानों को लुभा लिया। वे लोग 1857 में मुगल बादशाह के समर्थक थे। पर मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें भटकाया, भ्रमित कर दिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद कमजोर रहे। इस बीच वायसराय की काबीना में मंत्री बना कर डा. भीमराव अंबेडकर द्वारा दलित समाज को हिन्दुओं से काटने का प्रयास किया गया। गांधीजी इसका विरोध करते रहे। बापू के अनशन से भयावह कम्युनल रावार्ड निरस्त करना पड़ा। वर्ना हिन्दू समाज में केवल चन्द सवर्ण रह जाते। दलित अलग वर्ग हो जाता। सिक्खों और ईसाईयों को पहले ही अलग किया जा चुका था। साइमन कमीशन के समक्ष डाॅ. अम्बेडकर का बयान था कि आदिवासी अशिक्षित है अत: उन्हें मताधिकार न दिया जाये। भला हो राष्ट्रभक्त स्वाधीनता सेनानी ठक्कर बापा का जिन्होंने अंबेडकर का जमकर विरोध किया। भावनगर (उत्तर गुजरात) के सिविल इंजीनियर, अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर थे। जिन्हें बापू स्नेह से ''बापा'' कहते थे। वे रघुवंशी संप्रदाय (सौराष्ट्र) के थे, जिन्होंने भारतीय आदिमजाति सेवा संघ बनाया। वे हरीजन सेवा संघ के महामंत्री थे। अंबेडकर के साथ संविधान सभा के निर्वाचित सदस्य थे। उनसे मामा बालेश्वर दयाल ने प्रेरणा ली थी। संविधान में आदिवासी आरक्षण उन्हीं के सतत प्रयास का नतीजा है।
इसी पुरानी विभाजक नीति के तहत कांग्रेसी राज में मांग उठी थी कि मुसलमानों को भी आरक्षण दिया जाये। आंध्र प्रदेश की सरकार ने दे भी दिया था। पर न्यायालय ने उसे अवैध करार दिया। गनीमत है कि मियां सलमान खुर्शीद ने मनमोहन सिंह काबीना में अल्पसंख्यक विषयों के मंत्री के नाते कहा कि ''संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं है। केवल जातिगत है'' (टाइम्स आफ इंडिया, 10 जून 2009)। इसी संदर्भ में मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि यदि दलित जन धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम, ईसाई या बौद्ध बनते हैं। तो उनका आरक्षण समाप्त हो जायेगा (विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद का राज्यसभा में प्रश्नोत्तर : 12 फरवरी 2021)।
अब मूल प्रश्न यह है कि आखिर यह आरक्षण प्रथा क्या हरिकथा की भांति अनंत रहेगी? द्रौपदी की साड़ी की तरह लम्बाती जायेगी? मूल संविधान में केवल दस वर्ष (1960) तक अवधि निर्धारित थी। किन्तु हर दशक में वोट की लालच में यह सीमा रबड़ की तरह खींची जाती रही। अत: उच्चतम न्यायालय को अपने विवेक के आधार पर सात दशकों से चली आ रही इस आरक्षण की बेड़ी को हमेशा के लिये तोड़ना होगा। समतामूलक समाज का यही तकाजा है।