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दो जन्म दिनों में कितना फर्क!
जॉन कैनेडी, अमेरिका के शहीद राष्ट्रपति आज ही वे जन्मे थे। साम्राज्यवादी, पूंजीवादी अमेरिका के वे एक मात्र राष्ट्रपति थे।
कितना सादृश्य है आज (29 मई 2021) और इसी दिन पैंतालीस वर्ष पूर्व (1976) वाले में। तब बडौदा सेन्ट्रल जेल की दस Xदस फिट की सवा सौ साल पुरानी तन्हा कोठरी में था, दोहरे ताले में बंद। हथकड़ी एक्सट्रा मिली थी। फांसी की प्रतीक्षा में मेरा जन्मदिन बीता था। आज चीनी कीटाणु (कोरोना) ने वैसी ही हालात ला दिया। घर में नजरबंद है। दो गज की दूरी, मास्क अलग। न किसी का भेंट करने आना। न मेरा कहीं जाना। सवा साल हो गये विधानसभा पुस्तकालय नहीं गया; टैगोर (विश्वविद्यालय) लाइब्रेरी नहीं देखी। मुंह लार से प्लावित हो गया जब प्रेस क्लब के समीप किंग आफ चाट की याद आती है तो। टिक्की और दही—बताशे कब खाये, भूल गया। न कोई सेमिनार (वेबिनार यदाकदा), या गोष्ठी, न यारबाजी, न मिलना—जुलना। आईएफडब्ल्यूजे के अधिवेशन हुये बीस माह बीत गये। एकाकीपन से मुंह बंद रहता है। बोलना ही भूल रहा हूं। हालांकि हमारी प्रिय संतानों ने उत्तम ठिकाना दे दिया है। हरेभरे माल एवेन्यू में पेन्ट हाउस है, सातवीं मंजिल पर। चारों दिशाओं से हवा बहती हैं। निखालिस ऑक्सीजन। बस पढ़ी हुयी किताबें फिर पलटता हूं। गूगल छान मारा जब पटना के बाबू उमेश प्रसाद सिंह ने बताया कि 1950 के आसपास डॉ. राममनोहर लोहिया नवस्थापित गणराज्य इस्राइल गये थे। घटना बड़ी रुचिकर है और ऐतिहासिक भी। पर कुछ सामग्री मिली नहीं।
मगर आज का यह एक ही अवसर है, दो अलग दिवसों पर हुयी भिन्न अनुभूतियां का। तब और अब। उस दिन मैं जेल के भीतर स्वतंत्र था, मगर सारा भारत कैद था। आज मैं बंद हूं, किन्तु देश त्रस्त है। मैंने 29 मई के दिन कौन सी खबरनुमा घटनायें हुयीं, इसका विवरण तैयार किया है। उसे पेश कर रहा हूं।
मेरे हीरो हैं जॉन कैनेडी, अमेरिका के शहीद राष्ट्रपति, आज ही 1917 को वे जन्मे थे। मेरे बड़े प्रिय हैं। साम्राज्यवादी, पूंजीवादी, शोषक अमेरिका के वे एक मात्र राष्ट्रपति थे जिनकी अर्थनीति उपनिवेशों के लिए विकासोन्मुखी और उदार रहीं। मेरे जैसे श्रमजीवी के लिए 29 मई कई मायनों में एक विलक्षण दिवस है। इसी तारीख को 1953 में एक साधारण मालवाहक मेहनतकश विश्व के सबसे ऊँचे शिखर माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ गया था। शेरपा तेनजिंग नोर्गी ने चोटी पर चढ़कर अपनी भुजाएं एडमंड हिलेरी की ओर बढ़ाई और उसे ऊपर खींचा। मगर दुनिया में एक गलतबयानी फैली कि न्यूजीलैंड के हिलेरी ने एवरेस्ट जीता। सर्वहारा वर्ग के इतिहास में फिर एक बार पैसों से पसीना पराजित हो गया।
हमारे पत्रकारी मुहावरा कोश में आज ही जुड़ गया था कि "कैलिफोर्निया का सारा सोना मिल जाय फिर भी हम खबर दबायेंगे नहीं। वह जरूर वह छपेगी।" इसकी उत्पत्ति आज ही के दिन 1848 में हुई थी। तब कैलिफोर्निया की सट्टर खाड़ी में सोना मिला। जेम्स मार्शल, खनन विशेषज्ञ, ने खोजा था। और उस वर्ष के 29 मई के दिन कैलिफोर्निया के समस्त पत्र-पत्रिकाओं के कर्मचारी कार्यालय छोड़कर सोना बटोरने चल पड़े। अख़बारों ने घोषणा कर दी कि प्रकाशन ठप पड़ गया है। पाठकों ने बड़ी भर्त्सना की। तभी से उक्ति बनी कि यदि कैलिफोर्निया का सारा स्वर्ण भी मिल जाये, अख़बार छपेंगे ही। हमारी अभिव्यक्ति की आजादी अक्षुण्ण है।
अंत में खुद की एक बात। मेरे बड़े भाई (श्री के.एन. राव) बताते हैं कि नई दिल्ली के कनाट प्लेस के निकट जैन मन्दिर वाली कॉलोनी में हमारा परिवार रहता था। पिताजी( स्व. के. रामा राव) हिंदुस्तान टाइम्स के न्यूज़ एडिटर थे। समीपस्थ लेडी हार्डिंग अस्पताल में मैं (29 मई को) जन्मा था। इत्तिफाक रहा कि मेरी पत्नी सुधा ने इसी कॉलेज से 1967 में MBBS किया। मुझे पिताजी "आनन्ददायक, भाग्यकारक" कहते थे, क्योंकि तभी लखनऊ में 'नेशनल हेरल्ड' स्थापित हुआ था। पिताजी को आचार्य नरेंद्र देव, रफ़ी अहमद किदवई, मोहनलाल सक्सेना ने संपादक नियुक्त किया था। माँ मुझ (भविष्य के कामगार) को पादुशाह बुलाती थी। जन्म स्थान के कारण, शायद।