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K Vikram Rao: गोवा मुक्ति की सत्यता ? नेहरु का रोल !
भारत के स्वतंत्र होने (15 अगस्त 1947) के तुरंत बाद यह हो सकता था।'' संसद में भी मोदी ऐसे ही उदगार को व्यक्त कर चुकें हैं। वर्षों तक केन्द्रीय काबीना मंत्री रहे, हार्वर्ड में शिक्षित, पलनिअप्पन चिदंबरम चेट्टियार ने आरोप लगाया कि : ''मोदी इतिहास को उमेठ रहे हैं।'' उनकी राय थी कि : जवाहरलाल नेहरु ने सही समय पर गोवा को (19 दिसम्बर 1961) मुक्त कराया।
K Vikram Rao: जहां आज (14 फरवरी 2022) विधानसभा हेतु वोट पड़े, पुन: एक ताजा सियासी ग्रन्थि बना दिया गया है। नरेन्द्र मोदी ने गत सप्ताह अपनी चुनावी जनसभा (उत्तरी गोवा के मापूसा : 10 फरवरी 2022) में कहा था : '' जवाहरलाल नेहरु ने इस पुर्तगाली उपनिवेश को आजाद कराने में चौदह वर्ष लगा दिया।
भारत के स्वतंत्र होने (15 अगस्त 1947) के तुरंत बाद यह हो सकता था।'' संसद में भी मोदी ऐसे ही उदगार को व्यक्त कर चुकें हैं। वर्षों तक केन्द्रीय काबीना मंत्री रहे, हार्वर्ड में शिक्षित, पलनिअप्पन चिदंबरम चेट्टियार ने आरोप लगाया कि : ''मोदी इतिहास को उमेठ रहे हैं।'' उनकी राय थी कि : जवाहरलाल नेहरु ने सही समय पर गोवा को (19 दिसम्बर 1961) मुक्त कराया।
'' राहुल गांधी, जिनके जन्म (19 जून 1970) से दशक पूर्व ही गोवा भारत का अंग बन गया था, ने नीम हकीम के अंदाज में ज्ञान बांटते हुये अपनी दादी के पिता का बचाव किया। हालांकि मान्य दस्तावेजी तथ्यों के आधार पर यह स्वयं सिद्ध है कि गोवा की मुक्ति के पक्ष में नेहरु (दिसम्बर 1961, तीसरी लोकसभा के चुनाव) तक कदापि नहीं थे।
कांग्रेस की दलगत प्रतिस्पर्धा (1947) में नेहरु तनिक पिछड़ रहे थे। इसीलिये इस नवनामित प्रधानमंत्री ने पुराने साथी राममनोहर लोहिया द्वारा अचानक पाणाजी जाकर (18 जून 1946) को ही गोवा का स्वतंत्रता संघर्ष प्रारम्भ कर देने पर नाराजगी जाहिर की। इसे उन्होंने ''अनावश्यक तथा सनसनी खेज कदम'' करार दिया।
फरवरी 1947 में वे सार्वजनिक तौर पर बोले थे : ''गुलाम गोवा स्वतंत्र भारत के कपोल पर फुंसी है। अपने नाखून से इसे मसल डालेंगे।'' मगर नाखून उगने में सोलह साल लगे। उधर लोहिया के विषय में स्वाधीनता आन्दोलन के युगपुरुष महात्मा गांधीजी ने अपनी पत्रिका ''हरिजन'' में मुक्तकंठ से सराहना की। इतना ही नहीं, 14 अगस्त 1946 को अपनी पत्रिका में महात्मा गांधी ने लिखा : ''लोहियाजी को बधाई दी जानी चाहिए।
गांधीजी ने गोवा की प्रजा पर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़े शब्दों में आलोचना की और पुर्तगाली प्रशासन द्वारा डॉ. लोहिया की गिरफ्तारी पर सख्त बयान दिया। गांधीजी ने नेहरु से कहा कि वह गोवा में डॉ. लोहिया की रिहाई सुनिश्चित करें। प्रधानमंत्री नेहरु ने इस मामले में हस्तक्षेप करने में अपनी असमर्थता जताई।
समकालीन विचारकों ने उस दौर पर सवाल उठाया था कि चार सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के नन्हे गोवा से साम्राज्यवादियों को खदेड़ने में इतने सालों की देर क्यों ? बापू ने तो मात्र तीन दशकों में बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र वाले समूचे भारत को ही स्वतंत्र करा लिया था।
इसका कारण जानने हेतु उस दौर की राजनीति घटनाओं पर नजर डालने से सब स्पष्ट हो जायेगा। प्रथम और द्वितीय (1952 तथा 1957) लोकसभा के मतदान की तुलना में तीसरी लोकसभा का चुनाव नेहरु कांग्रेस हेतु काफी दुविधाजनक तथा आशंकामय भी हो गया था। उस वक्त स्वयं अपने फूलपुर (प्रयागराज) लोकसभा निर्वाचन में प्रधानमंत्री का सोशलिस्ट प्रतिद्वंद्वी डा. लोहिया से मुकाबला था। बाद में मतगणना में दिखा कि नेहरु के मिले हर दो वोट की तुलना में लोहिया को एक वोट मिला था।
नेहरु ने नामांकन के दिन ही जनसभा में घोषणा की थी कि वे फिर चुनाव अभियान में इलाहाबाद नहीं आ पायेंगे। मगर तीन बार आये। लोहिया की चुनौती इतनी गंभीर थी। उधर उत्तर बम्बई में नेहरु सरकार के प्रतिरक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के विरुद्ध वयोवृद्ध जेबी कृपलानी ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन किया। तभी लोहिया की टिप्पणी थी कि : ''नौकर (मेनन) से भिड़ने के बजाये, मालिक (नेहरु) से लड़ो''। उस वक्त बम्बई में आभास हो रहा था कि मेनन पराजित हो जायेंगे।
मेनन की छवि तबतक कम्युनिस्ट चीन समर्थक वाली हो गयी थी। तभी पाकिस्तानी राष्ट्रपति मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने नेहरु के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि संयुक्त सैनिक संधि बने ताकि दोनों राष्ट्रों की सुरक्षा हो सके। इस पर नेहरु का जवाब था : ''संयुक्त सैनिक संधि, किसके विरुद्ध ?'' क्योंकि मेनन ने ऐसा माहौल बना दिया था कि भारत पर आक्रमण का खतरा माओवादी चीन से नहीं, वरन अमेरिका—समर्थित इस्लामी पाकिस्तान से था। वरिष्ठ कांग्रेसी पुरोधाओं (एसके पाटिल, मोराजी देसाई आदि) ने नेहरु को मेनन के विरुद्ध सचेत भी किया था। पर कोई असर नहीं पड़ा।
इन संवेदनशील विदेश एवं सेना के विषयों पर नेहरु काबीना के वरिष्ठ मंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी आत्मकथा : ''स्टोरी आफ माई लाइफ'' (भाग दो, प्रकाशक : मैकमिलन, दिल्ली, बम्बई : 1974 : पृष्ठ—175) में लिखा था कि राज्यपालों के सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा भी था कि : गोवा को स्वतंत्र कराने हेतु हमारी (नेहरु) सरकार शांतिपूर्ण प्रयास कर रही है।'' मगर आश्चर्य व्यक्त करते हुये मोरारजी ने आगे लिखा कि उन्हें उसी वक्त सरकारी सूचना मिली थी कि रेल मंत्री को बताया गया कि गुलाम गोवा से लगे बेलगाम रेलवे स्टेशन से विशेष रेलों में भारतीय सैनिक को सीमा पार ले ले जाने की व्यवस्था की जाये।'' इस विषय की सूचना केवल रक्षामंत्री वीके कृष्णमेनन को ही थी।
जब मोरारजी को सैन्य कदम का पता चला तो उन्होंने विरोध किया कि ''गांधीवादी भारत कई बार ऐलानिया तौर पर विश्व को बता चुका है कि इन पुर्तगाली उपनिवेश को अहिंसक तरीके से मुक्त कराया जायेगा।'' मोरारजी देसाई ने स्पष्ट लिखा : ''चौदह वर्षों से हम देश दुनिया को यही बताते रहे कि गोवा को वार्ता द्वारा स्वाधीन करायेंगे।'' तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष यूएन धेबर ने भी देसाई की राय का अनुमोदन किया था। देसाई के विचार में मेनन ने अपनी लोकसभा सीट जीतने हेतु ऐसे सैन्य कदम की ताइद करायी थी।
देसाई का सुझाव था कि यदि अपरिहार्य हो तो, तीसरी लोकसभा के मतदान के बाद ऐसी सैन्य कार्रवाही की जाये। मेनन की जिद के सामने नेहरु झुक गये। फिर सेना गोवा गयी। पुर्तगाली भागे। और मेनन चुनाव जीत गये। पर नियति का खेल था। सात माह बाद (अक्टूबर 1962) लाल चीन की सेनाओं ने पूर्वोत्तर भारत पर हमला किया। जनाक्रोश के परिणाम स्वरुप मेनन को नेहरु ने बर्खास्त कर दिया।
इस ऐतिहासिक दस्तावेजी तथ्य से वयोवृद्ध चिंदबरम तो अवश्य अवगत होंगे। पर राहुल शायद अनभिज्ञ हों। वे अपने जन्म के पूर्व हुयी घटनाओं से अमूमन अनजान रहते हैं। किताबें भी नहीं पलटी होंगी। जनरल हेंडर्सन की रपट उनके पिता तथा सभी कांग्रेस शासनों में आसानी से उपलब्ध थी। इसमें मेनन द्वारा चीन से यारी का विस्तृत उल्लेख है।
तब राष्ट्रपति डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने भी कहा था : ''चीन का हमला नेहरु सरकार की जरुरत से ज्यादा (चीन से मैत्री पर) भरोसा करने का अंजाम है।'' गोवा को सैन्य शक्ति द्वारा मुक्त कराकर तीसरी लोकसभा का चुनाव जीतने के लिये कोई अन्य उपाय नेहरु सरकार के पास नहीं था। ऐसी कार्रवाही के परिणाम में मेनन तो गये पर चीन द्वारा हमले का खामियाजा उनकी रक्षानीति पर भी पड़ा। चीन भाई था, असल में शत्रु निकला।
गोवा फिर भारत में सम्मिलित हो गया। तभी संसद में एक प्रश्न पूछा गया था : ''कितनी सीमावर्ती भूमि चीन के कब्जे में है ? कितनी मुक्त करा ली गयी है?'' नये रक्षामंत्री यशवंतराव बलवंतराव चह्वान का उत्तर था: '' यथास्थिति बनी है।'' तब विपक्ष के किसी सांसद ने पूछा कि क्या पूर्व मंत्री मेनन के अनधिकृत कब्जे से उनका नयी दिल्ली स्थित बंगला राज्य सम्पत्ति विभाग ने खाली करा लिया ?'' उत्तर मिला : ''नहीं''। गोवा आया, मेनन चुनाव जीत गये पर अरुणाचल और लद्दाख की भूमि चीन ले गया।