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कहे कबीर सुनो भाई साधो

2 जून को हिंदी पत्रकारिता दिवस बीता पर अधिकांशत: हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा कहे जाने वाले अखबार शांत बुद्ध की भूमिका में थे। कहीं मैडल गंगा में बहने से बचे तो राजनीति के तमाशे की तो चर्चा ही क्या की जाए।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 3 Jun 2023 10:52 PM GMT
कहे कबीर सुनो भाई साधो
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(Pic: Social Media)

पिछला पूरा सप्ताह अखबार की सुर्खियों के लिए बहुत अधिक गहमागहमी वाला और भौंचक कर देने वाला रहा। 20 वर्षीय दरिंदे साहिल द्वारा 16 वर्षीय किशोरी साक्षी की सरेआम, सरेराह पत्थर दिल, संवेदना विहीन हो चुकी दिलवालों की दिल्ली के लोगों के सामने नृशंस हत्या कर दी गई। 2 जून को हिंदी पत्रकारिता दिवस बीता पर अधिकांशत: हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा कहे जाने वाले अखबार शांत बुद्ध की भूमिका में थे। कहीं मैडल गंगा में बहने से बचे तो राजनीति के तमाशे की तो चर्चा ही क्या की जाए। उड़ीसा में तीन ट्रेनों की भीषण टक्कर ने पता नहीं कितने ही घरों के चिरागों को बुझा दिया। बहन ने भाई की, भाई ने बहन की हत्या सिर्फ मोबाइल के प्रयोग से मना करने के कारण कर दी। बेचैनी होती है इन खबरों को पढ़कर। दुनिया क्या से क्या होती जा रही है? जब सोचते हैं तो सब कुछ चिंताजनक लगता है। जीवन की क्षणभंगुरता जानने के बाद भी आदमी कितना लोभ-लाभ में उलझा हुआ है। असंवेदना की स्थिति चरम की ओर अग्रसर होती दिखाई देती है। ऐसे में कबीर वाणी में यह पद पढ़ने में आया-


मोकों कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना में मस्जिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी हुए तो तुरतै मिलिहों, पल भर की तलास में।
कहें कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।'

परम तत्व को खोजने के प्रति जिज्ञासा लिए कबीर द्वारा रचित यह पद बताता है कि जीवात्मा परमात्मा का ही एक अंश है और जो कि मंदिरों- मस्जिदों में खोजने से नहीं बल्कि स्वयं के भीतर झांकने से मिलता है। वैसा ही तो हम अपने जीवन की संतुष्टि और खुशी के बारे में भी कह सकते हैं कि जीवन में उन्हें अपने से बाहर दूसरी वस्तुओं में क्यों ढूंढना जबकि वह तो हमारे खुद के अंदर ही निहित होती है।

अपने विद्यालयीन जीवन में हम सभी ने हिंदी के पाठ्यक्रम में कई कवियों को पढ़ा है, उनमें से कबीर दास जी को अवश्य ही हमने पढ़ा है। उस समय के विद्यार्थियों से लेकर आज तक के विद्यार्थियों तक अधिकांशतः किसी को भी कबीर दास जी के पदों का एक रटा-रटाया अर्थ लिख आने के अलावा और कुछ समझ ही नहीं पड़ा है। पर आज जब हम फिर से इन पदों को पाठ्यक्रम के अलावा, अलग से पढ़ते हैं तो हम निश्चित रूप से उनका अर्थ, उनका महत्व, उनकी शिक्षा को समझने लगते हैं, उनकी सधुक्कड़ी भाषा को स्वीकार करने लगते हैं।

उनकी सरलता और सर्वग्राहिता के सागर में उससे मिलती शिक्षाओं के द्वारा तैरने लगते हैं। उससे डरते नहीं बल्कि उसे जानने लगते हैं। बेपरवाह, फक्कड़ तबीयत का जुलाहा थे कबीर जिन्हें अपनी भाषा पर विशेष अधिकार था। अपने पदों के माध्यम से अपनी वाणी, भावों और विचारों के कारण कबीर वाणी के डिक्टेटर कहलाए जाते थे। यानी वे जो बोलना चाहते थे, जिस तरह की भाषा में शब्दों का प्रयोग करके वह कहना चाहते थे, वह उसमें बोल जाते थे। उसमें व्याकरण की कोई खींचतान नहीं थी, काव्यगत रूढ़ियों का बलात उनके पदों पर कोई प्रभाव भी नहीं था।

वे आज की मनोरंजन प्रधान दुनिया के कोई कथावाचक नहीं थे, जो सीधे, सरल राम की या लीलाधर कृष्ण की कथा कहने के लिए नित-नए श्रंगार और वेशभूषा धारण करते हैं और लोक रूचि के अनुसार तालियां पिटवाते हैं और नाच करवाते हैं। वे तो सर्वजन हिताय बात करते और सर्व समाज की कलुषित मानसिकता, पूर्वाग्रहों, छुआछूत, भेदभाव, जाति बंधन आदि पर कठोर व्यंग्य की मार करते और उन पर चुटकी लेने वाले सर्वधर्मसमन्वयकारी कवि थे। हिंदी साहित्य के इतिहास में कबीर और तुलसी जैसा कौन हुआ है? कबीर गुरु नहीं थे कबीर नेता या समाज सुधारक भी नहीं थे। वे साधारण मनुष्य के रूप में असाधारण बातों को कहने का हुनर रखने वाले थे। उनके लिए मथुरा, काशी, मगहर किसी में भी कोई भेद नहीं था-
'पानी बिच मीन प्यासी।
मोंहि सुन -सुन आवे हांसी।
घर में वस्तु नजर नहीं आवत।
बन बन फिरत उदासी।
आत्मज्ञान बिना जग झूठा।
क्या मथुरा क्या कासी।'
वे आत्मज्ञान के प्रचारक थे। 15 वीं शताब्दी से लेकर आज तक भी उनके कथन, उनकी शिक्षाएं, उसकी प्रासंगिकता किसी भी दृष्टि से कहीं भी कमजोर या अनुसरण नहीं करने वाली नहीं हैं। कबीर एक क्रांतिकारी महापुरुष थे, जिनकी राम में अविचल, अखंड भक्ति और विश्वास था। और कबीर के राम तो तुलसी के राम से अलग थे तथा शस्त्रधारी भी नहीं थे बल्कि वे जन- जन की आत्मा के अंदर बसने वाले राम थे। उनको गुरु स्वामी रामानंद से 'राम राम' का गुरु मंत्र मिला था, जिसे कबीर ने निर्गुण, निराकार के रूप में स्वीकार किया था।
' दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना,
राम नाम को मरमु है आना।'

प्रचलित लोक मान्यताओं, पूजा पद्धति के बाहरी पाखंड और लोक दिखावे, कर्मकांड आदि को अस्वीकृत कर कबीर ने मानव के सहज मूल्यों और भाषा की स्थापना की। वे दूरदर्शी थे और मानवीय मूल्यों के प्रति आग्रही भी। वे सच को महान तप और झूठ को महा पाप मानते थे। विषय वासना, कुप्रवृत्तियों, सांसारिक मायाजाल के प्रति तटस्थ भाव रखने वाले कबीर का प्राकट्य ज्येष्ठ पूर्णिमा यानी आज के दिन माना जाता है। कबीर को पढ़ना जितना सरल है, उतना उनको समझना भी, बशर्ते पढ़ने वाला उनकी भाषा का आस्वादन करने और उसमें डूबने को स्वयं तैयार हो। हर पद, हर साखी आज भी प्रेम के भाव को हरा रखे हुए हैं। उनकी शिक्षा सहजीवन को अपनाने को कहती है, कथनी -करनी में अंतर नहीं मानती। साधु या सज्जन पुरुष की जाति नहीं पूछती, सामाजिक कुरीतियों पर जबर्दस्त प्रहार करती है, प्रेम को जीवात्मा और परमात्मा का मिलन बताती है। समान रूप से पंडितों और मौलवियों के पाखंड पर चोट करती है, स्वानुभूति को महत्व देती है। तभी उन्होंने पूरा जीवन काशी में गुजारने के बाद अंत समय में अपने प्राण मगहर में सिर्फ इसलिए त्यागे क्योंकि वह समाज को इस अंधविश्वास से मुक्त करना चाहते थे कि मगहर में मरने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है।

आज जब हमारी हमारा देश जाति- पाती में बुरी तरह बंटा हुआ है, पाखंड, बाहरी कर्मकांड और रूढ़ियों में फंसा हुआ है, अपने धर्म को श्रेष्ठ मानता है, सामाजिक कुरीतियों में आकंठ डूबा हुआ है ऐसे में कबीर दास जी को याद करने से उनकी शिक्षाओं की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। सद्गुरु के नाम पर जमाने भर के जो महापाखंडी, धूर्त, तथाकथित विश्व गुरु बन बैठे हैं उनको अस्वीकार करना आवश्यक है। जो अज्ञान का पर्दा हमारी आंखों के आगे पड़ा हुआ है, उसे ज्ञान के महत्व से हटाने के लिए कबीर की शिक्षाओं के गूढ़ार्थ को समझना आवश्यक है। कबीर पर कुछ भी लिख पाना इस छोटी सी कलम की सामर्थ्य तो नहीं पर फिर भी जनमानस तक साहित्य की नदी के जल के कुछ छींटें पहुंच जाएं यही इस लेख की सार्थकता है।
'तोको पीव मिलेंगे घूंघट के पट खोल रे।
घट- घट में वही साई रमता, कटुक वचन मत बोल रे।
धन- जोबन को गरब न कीजै, झूठा पंचरंग चोल रे।
सुन्न महल में दियना बार ले, आसा सों मत डोल रे।
जोत जुगत सो रंगमहल में, फिर पाई अनमोल रे।
कहे कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।'

Anshu Sarda Anvi

Anshu Sarda Anvi

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