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अटल-आडवाणी से शाह-मोदी तक लीक छोड़कर चलते रहे कल्याण सिंह
कल्याण सिंह की आदत हमेशा लीक छोड़ कर चलने की रही है। अटल-आडवाणी की भाजपा में भी वह लीक छोड़ कर चलते रहे।
नरेंद्र मोदी व अमित शाह के काल की भाजपा की यह नई पहचान बन गयी है कि उसके फैसले के बारे में कोई अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल होता है। पर कल्याण सिंह की आदत हमेशा लीक छोड़ कर चलने की रही है। अटल-आडवाणी की भाजपा में भी वह लीक छोड़ कर चलते रहे। मोदी-शाह की भाजपा में भी उन्होंने लीक छोड़ कर ही जिया। लीक से अलग रह कर चले भी गये। वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे। पीजीआई से उनके सेहत को लेकर आ रही खबरें उनके प्रशंसकों को लगातार निराश कर रही थी। वेंटिलेटर से न उतरना भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं और कल्याण सिंह प्रशंसकों को इस दुखद खबर के लिए तैयार कर रहा था।
कल्याण सिंह भारतीय राजनीति में शुचिता, पारदर्शिता के पर्याय थे। तभी तो विवादित ढाँचा गिरने का गुनाह एक हीरो की तरह उन्होंने क़ुबूल किया। उन्होंने अपनी सरकार गँवाई। एक दिन का कारावास भोगा। कल्याण सिंह से पहले जनसंघ केवल वैश्यों की पार्टी मानी जाती थी। कल्याण सिंह ने पार्टी को इस छवि से उबार कर उसे सोशल इंजीनियरिंग के गोविंदाचार्य के फ़ार्मूले पर इस कदर दौड़ाया कि भाजपा सर्व समाज, सर्व जाति की पार्टी बन कर उभरी। उन्होंने हिंदुत्व को विकास से जोड़ने का सफल प्रयोग उत्तर प्रदेश में करके दिखाया। हालाँकि मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें लंबा कालखंड नहीं मिला। इसलिए वह विकास व हिंदुत्व के काकटेल को शिखर तक नहीं ले जा सके। बाद में बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे शिखर पर न केवल पहुँचाया बल्कि शिखर पर इसे स्थापित करके भी दिखा दिया।
उत्तर प्रदेश में जनसंघ से लेकर भाजपा तक की यात्रा के सभी तीनों शक्ति केंद्रों पर उनकी बराबर नज़र बनी रहती थी। उन्होंने धर्म की राजनीति व राजनीति के धर्म को भी ख़ूब ठीक से जिया। जब लिब्राहन कमीशन में विवादित ढाँचा गिराने के ज़िम्मेदार नेताओं की पेशी होती थी तो कल्याण सिंह को छोड़ सभी नेता बग़ले झांकते थे। केवल कल्याण सिंह ही सीधे सीधे अपनी बात रखते व स्वीकारते थे। उन्होंने भाजपा के अच्छे व बुरे दोनों दिन बेहद नज़दीक से देखे। अपने राजनीतिक जीवन में भी कल्याण सिंह ने बेहद ख़राब व बेहद अच्छे समयों को क़रीब से देखा। अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ से लोकसभा के लिए नामज़दगी का पर्चा भरा। उसके बाद होने वाली जनसभा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम तक नहीं लिया। भाजपा के प्रधानमंत्री द्वारा भाजपा के मुख्यमंत्री के साथ हुए इस व्यवहार पर सब सकते में थे। वह पार्टी से दो बार बाहर गये। हर बार भाजपा को उन्हें वापस लेना पड़ा। क्योंकि वह साधु-संतों के बहुत प्रिय थे।
जनता से उनका सीधा व जादुई जुड़ाव था। वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दूत थे। उन्होंने कभी भी मंदिर आंदोलन को नहीं छोड़ा। राजनीति में वह वंचितों व उपेक्षितों की आवाज़ थे। यह उनकी ही ताक़त थी कि जब कांशीराम व मुलायम सिंह एक होकर नारा दे रहे थे कि मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम। तब भी कल्याण सिंह ने पार्टी को हाशिये पर नहीं जाने दिया। बहुमत से थोड़ी दूर ही भाजपा रह गयी थी। कल्याण सिंह की ज़मीनी पकड़ का ही नतीजा था कि वह एक मात्र ऐसे नेता रहे जो भाजपा या जनसंघ से बाहर निकलने के बाद भी अपने अस्तित्व को क़ायम रख सके।
उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर भी राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर दिखा दी। वह राजनीति में अपराधियों के घोर विरोधी थे। यही वजह है कि जब मिली-जुली सरकार बसपा को तोड़कर बन रही थी तब वह राजा भैया सरीखे तमाम लोगों को कैबिनेट में लेने का विरोध करते रहे। वह तब मानें जब डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने राजा भैया के पिता द्वारा जनसंघ व हिंदू संगठनों के लिए किये गये कामों व सहयोग का ज़िक्र किया। यह कल्याण सिंह की ही ताक़त थी कि अटल बिहारी वाजपेयी को तमाम विरोधों के बीच भी राजभवन के प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कल्याण सिंह को अपने बग़ल में बैठाना पड़ा। हालाँकि के. विक्रम राव ने अटल बिहारी वाजपेयी से इस बाबत सवाल भी पूछ लिया। अटल जी का जवाब था कि कल्याण सिंह की पार्टी के लिए बहुत उपयोगिता है। कल्याण सिंह ने कभी पार्टी को धोखा नहीं दिया।
वैचारिक रूप से वह हमेशा भाजपा व संघ के क़रीब ही रहे। उन्हें संघ से सबसे अधिक पीड़ा तब हुई थी जब बिठूर की बैठक में संघ ने उन्हें डिसओन किया था। वह समय-समय पर इस पीड़ा को व्यक्त भी करते थे। कल्याण सिंह की उपयोगिता इससे भी समझी जा सकती है कि नरेंद्र मोदी व अमित शाह की भाजपा में एक परिवार से एक ही आदमी के राजनीति के सिद्धांत पर अमल हो रहा हो तब भी उनकी तीन पीढ़ियाँ एक साथ अलग अलग पदों पर हों। एक समय वह राज्यपाल थे। बेटा राजवीर सांसद थे। पौत्र उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री। मेरी मुलाक़ात 28 जनवरी, 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से गांधी नगर में हुई थी, तब उन्होंने कल्याण सिंह के बारे में अलग से बहुत बातें कीं और बताईं। वह कल्याण सिंह को अपने समय का सबसे प्रभावी नेता मान रहे थे।
शायद यही वजह है कि 2014 के लोकसभा व 2017 के विधानसभा चुनाव में टिकट बाँटने से पहले अमित शाह ने अलीगढ़ में उनके आवास पर लंबी मंत्रणा की थी। कल्याण सिंह अपने लोगों का बहुत ख़्याल रखते थे। खिलाने-पिलाने के बेहद शौक़ीन थे। राजस्थान में रहते हुए जब भी उनसे मिलने गया तो खाने की तमाम चीजें मँगवा कर रखते थे। हर आइटम से एक-एक भी खायें तब भी सभी आइटम तक हमारी आपकी पहुँच नहीं बन सकती थी। उचित बात कोई कहता तो वह सुन लेते थे। अनुचित बात न केवल सुनने से कतराते थे, बल्कि विरोधी की हद तक भी चले जाते थे। जब राजस्थान में राज्यपाल बन कर गये। तब उन्होंने लंबे समय से रुके दीक्षांत समारोहों को सिलसिलेवार शुरू कराया।अपनी उपस्थिति वह अपने काम से हमेशा दर्ज कराते रहे। उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में भी उनके कार्यकाल की बराबरी करने वाला कोई नेता नहीं हुआ है। वह बेहद बेहतर लेखक भी थे। उन्होंने कई कविताएँ भी लिखी हैं।
एक बार रात को मैं कल्याण सिंह जी के साथ बैठा था। तब तक बचपन के उनके एक साथी आ धमके। आते ही उन्होंने कल्याण सिंह जी से कहा कि शर्मा का ट्रांसफ़र नहीं हुआ। कर दें। कई बार मैं कह चुका हूँ। कल्याण सिंह जी ने उनसे मेरा परिचय कराया। उसके बाद उन्होंने अपने साथी से पूछा, शर्मा ब्राह्मण है। तुम लोध राजपूत । तुम्हारा शर्मा से क्या लेना देना। तुम क्यों शर्मा के ट्रांसफ़र के पीछे पड़े हो। वह भी कल्याण सिंह जी का मुँह लगा था। बोल उठा बिटिया की शादी के लिए शर्मा से बीस हज़ार रूपये लिये थे। कल्याण सिंह जी उठे, अंदर गये। उन्होंने बीस हज़ार रूपये लाकर अपने साथी के हाथ में रखते हुए कहा ये लो शर्मा का पैसा वापस कर देना। वह भी कम सिरफिरा नहीं था, पूछ बैठा, "तुम तो ईमानदार हो, तुम्हारे पास कहाँ से पैसा आया।" कल्याण सिंह जी हंसे। उसे बताया कि मुख्यमंत्री के पास फंड होता है। वह कितना वेतन पाते हैं। वह जब इस बात से मुतमइन हो गये कि पैसा वापस हो गया। तब उन्हें अभियंता ट्रांसफ़र भी कर दिया।एक बार सप्तपुरियों में गिने जाने वाले एक शहर के बड़े महाविद्यालय के प्राचार्य जी ने कहा कि उन्हें रिवाल्वर का लाइसेंस चाहिए । कल्याण सिंह जो को यह बात बहुत अखरी। प्राचार्य जी के पैरोकारों से कल्याण सिंह ने कहा कि लड़कों के बीच जाने के लिए असलहा चाहिए तो उनसे कहो कि प्राचार्य जी इस्तीफ़ा दे दें फिर लाइसेंस मिल जायेगा।एक बार एक डाक्टर के ट्रांसफ़र के लिए दर्जन भर से अधिक विधायकों ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पत्र लिखा। कल्याण सिंह ने विधायकों से कहा डॉक्टर को कह दें कि वह डॉक्टरी छोड़ राजनीति करें। इतने विधायक तो मेरे पास भी नहीं है। पर डॉक्टर का तबादला नहीं किया ।
एक वाक़या और बहुत भावुक कर देने वाला है। मैं उन दिनों आउटलुक में काम करता था। आडवाणी जी अपनी स्वर्ण जयंती रथ यात्रा निकाल रहे थे। हमें उनका इंटरव्यू करना था। हमने दीपक चोपड़ा से बात की। सोचा उनके रथ में बैठने का अवसर मिल जाये तो मेरा काम हो चल जाता । पर हमें अवसर नहीं मिल रहा था। दीपक जी आश्वासन पर आश्वासन दिये जा रहे थे। आडवाणी जी का अयोध्या से पहले नाश्ते का कार्यक्रम था। मुझे नाश्ता वाले कमरे के बाहर तक पहुँचने का अवसर मिल गया। जैसे ही मैं दरवाज़े पर पहुँचा। कल्याण सिंह की नज़र हम पर पड़ी। फिर क्या मेरे कमरे में प्रवेश का रास्ता खुल गया। उन्होंने मुझे कमरे में बुला लिया। सभी कुर्सियों पर लोग बैठे थे। कल्याण सिंह जी ने मुझे अपने क़रीब बुलाया। पूछा क्या बात है? मैंने बताया कि आडवाणी जी का इंटरव्यू करना है। उन्होंने मेरा परिचय आडवाणी से करवाते हुए कहा, " ये योगेश हैं। बहुत अच्छे पत्रकार हैं। बहुत अच्छा लिखते हैं।
आपका इंटरव्यू करना है। इनके लिखें से ही मेरा इनका परिचय हुआ है। परिचय कराने के बाद कल्याण सिंह जी ने अपनी कुर्सी ख़ाली कर दी। पर मैंने वहीं खड़े खड़े आडवाणी जी का इंटरव्यू किया। कल्याण सिंह जी के परिचय कराने के बाद आडवाणी जी नज़र में मेरे महत्व का बढ़ जाना स्वाभाविक था। उन्हें दिल्ली की सियासत रास नहीं आती थी। इसीलिए जब २००४ में भाजपा में वापस लौटे और बुलंदशहर से सांसद बने तब भी उनका ज़्यादा समय उत्तर प्रदेश में ही गुजरता था। कल्याण सिंह को १९९९ में पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखाया। २००४ के लोकसभा चुनाव हारने के बाद अटल जी को कल्याण सिंह जी की अहमियत समझ में आयी। केंद्र में भाजपा की सरकार न बनने का सबसे बड़ा कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा का दस सीटों पर सिमट जाना रहा। समाजवादी पार्टी ने बेहद बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने लिए पैंतीस सीटें जुटाई थीं।
कल्याण सिंह जी निजी बातचीत में हमेशा यह कहते थे कि जनसंघ व भाजपा ने उन्हें बहुत दिया। उनकी एक ही ख्वाहिश थी कि वह भाजपा के झंडे में लिपटकर अपनी अंतिम यात्रा पर जायें। भाजपा ने वह भी पूरा नहीं होने दिया। जब कल्याण सिंह को दूसरी बार भाजपा में लाने की कोशिश चल रही थी तब वह मन नहीं बना पा रहे थे। एक दिन उनके सरकारी आवास पर बातचीत में हमने कहा अपनी अंतिम इच्छा पूरी करने के चलते आप फ़ैसला कर लिजिये। पहली बार वापसी के बाद के उनके अनुभव बहुत अच्छे नहीं थे। वह खुद को भाजपा व संघ से कभी अलग नहीं कर पाये। पार्टी के बाहर भी वह इन्हीं के संस्कार जीते रहे। तभी तो जनसंघ के एजेंडे को कभी छोड़ा नहीं।
(लेखक न्यूजट्रैक और अपना भारत के संपादक हैं)