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Kota Student Suicide: मां बाप की जिद बनी बच्चों के लिए श्राप, कोटा में बच्चों की आत्महत्या का जिम्मेदार कौन ?

Kota Student Suicide Case: काले रंग के पानी वाली चम्बल नदी के किनारे बसा कोटा शहर कई बरस से उम्मीद और अपेक्षा का अजीब मंजर देख रहा है। अरमान और उम्मीदें उन लाखों पेरेंट्स की जिन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना है।

Yogesh Mishra
Published on: 23 Aug 2023 2:59 PM IST (Updated on: 24 Aug 2023 7:35 AM IST)

Kota Student Suicide Case: उम्मीद। आशा। अरमान। बहुत वजनदार शब्द हैं। पूरा जीवन इन्हीं पर टिका है। एक-एक क्षण इन पर निर्भर है। ये मात्र शब्द नहीं, बल्कि जिंदगी हैं। लेकिन जब यही उम्मीद, अपेक्षा बन जाती है यानी होप, एक्सपेक्टेशन में तब्दील हो जाती है और अरमान दरकने लगते हैं तो नतीजे इस हद तक भयानक हो सकते हैं कि जिंदगियां तबाह कर दें,

काले रंग के पानी वाली चम्बल नदी के किनारे बसा कोटा शहर कई बरस से उम्मीद और अपेक्षा का अजीब मंजर देख रहा है। अरमान और उम्मीदें उन लाखों पेरेंट्स की जिन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना है। उम्मीद उन लाखों बच्चों की जिन्हें अपने खुद की और अपने माँ बाप की अपेक्षाओं पर खरा उतरना है। अरबों रुपये की कोचिंग इंडस्ट्री की चक्की में जब यही उम्मीद और अपेक्षा पिसती है तो कई जिंदगियां तबाह भी हो जाती हैं। कितने ही बच्चे उम्मीद और अपेक्षा के फंदे में अपना गला घोंट देते हैं।

इस साल अब तक सात महीने बीते हैं, आठवाँ खत्म भी नहीं हुआ और कोटा में 22 बच्चों की जान जा चुकी है। साल दर साल यही सिलसिला जारी है, कभी कम कभी ज्यादा। इंसानी जिंदगी सिर्फ एक आंकड़ा बनती जा रही है।

कुछ बनने की उम्मीद और अपेक्षा का ये भयानक मंजर सिर्फ कोटा का नहीं, पूरे देश का है। हर साल बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट आने के बाद ऐसी दर्दनाक घटनाएं दोहराई जाती हैं। हर बार वही, बस नाम बदल जाते हैं।

उम्मीद और अपेक्षा

दोष न कोटा का है, न बोर्ड परीक्षाओं का। दोष सिर्फ और सिर्फ दो शब्दों का है : उम्मीद और अपेक्षा और इसकी शुरुआत होती है घर से। उसी घर से जहां बच्चे के लिए मनौतियां मानी जाती हैं, लेकिन कब वह मनौती उसी बच्चे के टॉपर बनने, डॉक्टर इंजीनियर बनने की मनौती में तब्दील हो जाती है, पता ही नहीं चलता।

आंकड़े तस्दीक करते हैं कि 2021 में लगभग 13,000 छात्रों की आत्महत्या से मृत्यु हुई। बच्चे देश का भविष्य कहे जाते हैं । लेकिन उन्हीं भविष्य का ये अंजाम? दुनिया में कहीं और ऐसा नहीं होता।

शायद आप भी किसी बच्चे के पेरेंट होंगे। बहुत मुमकिन है कि आपके भी अरमान अपने लाडले/लाडली को डाक्टर या आईआईटी इंजिनियर बनाने के हों। इस अरमान को पूरा करने के लिए कोचिंग या ट्यूशन का सहारा भी जरूर दिलाते होंगे। ये ख़ुशी की बात है या चिंता की, ये तो हम नहीं कह सकते लेकिन आप इस चक्र में अकेले नहीं हैं। समाज की इस चाहत को पूरा करने के लिए सिर्फ कोटा ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में ट्यूटर्स और कोचिंगों का जाल फैला हुआ है। दो साल की महामारी वाली रुकावट के बाद यह अब पहले से कहीं अधिक बड़ा आकार ले चुका है। भारत में कोचिंग बाकायदा एक इंडस्ट्री बन चुकी है जिसकी बाज़ार कमाई 58,088 करोड़ रुपये है। यह इंडस्ट्री इस रफ़्तार से फलफूल रही है कि 2028 तक 1,33,995 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। 2015 के अनुमान के अनुसार, कोचिंग संस्थानों का वार्षिक राजस्व 24,000 करोड़ रुपये था। प्रतिस्पर्धा बहुत है। जब इस तरह की होड़ लगी हो तो क्या उम्मीद की जा सकती है?

बचपना रेस में दौड़ते निकल जाता है

जरा सोचिये। पेरेंट्स दो – ढाई साल के बच्चे को ऐसे प्रीस्कूल में ट्रेनिंग के लिए भेज देते हैं ताकि वह ‘अच्छे’ स्कूल में एडमिशन पाने की रेस में जीत दर्ज कर सके। बचपना इसी रेस में दौड़ते निकल जाता है। जो दौड़ में थक जाते हैं या पिछड़ जाते हैं उनमें से कुछ ऐसा कदम उठा लेते हैं कि जिन्दगी भर का जख्म और अपार दर्द छोड़ जाते हैं।

आपके लिए क्या महत्वपूर्ण है ये खुद तय करना होगा, सब चीजें सरकार पर मत छोड़िये। आप जो सपने अपने पूरे नहीं कर पायें उसे बच्चों से पूरा करने की ख्वाहिश मत पालिये।



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Yogesh Mishra

Yogesh Mishra

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