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धन कुबेरों पर लक्ष्मी मेहरबान, देश का गरीब गरीब ही रहा
आदर्श प्रकाश सिंह
देश की आर्थिक दशा पर जहां कहीं भी या जब कभी भी कोई बहस छिड़ती है तो एक बात दावे के साथ कही जाती है कि हमारे यहां अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं, इस जनम में यह खाई तो पटने से रही। तब हम या आप बिना किसी आंकड़े या पूर्वानुमान के इस बात के पक्ष में कई दलीलें भी दे डालते हैं। बड़े कारोबारी घरानों को भी लगे हाथ हम याद कर लेते हैं। मगर, वैश्विक गरीबी उन्मूलन पर केन्द्रित 20 स्वतंत्र चैरिटेबल संगठनों के संघ ‘ऑक्सफैम’ ने इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की है। इस संस्था ने दुनिया भर में सर्वेक्षण करके अपना जो आकलन पेश किया है वह नीति नियंताओं की आंख खोलने वाला है। स्विटजरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के सम्मेलन के अवसर पर जारी यह रिपोर्ट हम सबके लिए चौंकानेवाली है। इसका लुब्बोलुआब यह है कि दुनिया की सरकारें आखिर क्या कर रही हैं? उनके प्रयासों एवं उपायों का उल्टा असर क्यों हो रहा है? रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में जो बातें कही गई हैं उससे साफ पता चलता है कि अपने देश में असमानता की खाई कभी नहीं पाटी जा सकेगी। अमीरों तथा गरीबों का फर्क बना रहेगा और इसी बिना पर यहां वोट की राजनीति भी चलती रहेगी।
ऑक्सफैम का अध्ययन बताता है कि वर्ष 2018 के दौरान भारत के एक प्रतिशत बड़े अमीरों की संपत्ति में 39 प्रतिशत का इजाफा हो गया। यानी देश के अरबपतियों पर लक्ष्मी जी खूब मेहरबान रहीं। उनके खजाने में रोज 2200 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी दर्ज की गई। वहीं, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की संपत्ति में केवल तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई। इतना ही नहीं, देश के शीर्ष 9 अमीरों की संपत्ति 50 फीसदी गरीब आबादी की संपत्ति के बराबर है। विश्व भर में अरबपतियों की संपत्ति में पिछले साल प्रतिदिन 12 प्रतिशत यानी 2.5 अरब डालर की वृद्धि हुई है। वहीं, सबसे गरीब तबके की संपत्ति में 11 फीसदी की गिरावट आई है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि दुनिया में आज अमीरों और गरीबों की क्या स्थिति है। हम समझ सकते हैं कि बड़े -बड़े सम्मेलनों में सिद्धांत व आदर्श बघारने वाले देशों की कथनी एवं करनी में कितना अंतर है। दबे कुचले तथा निर्धन वर्ग के हितैषी बनने वाले राष्ट्राध्यक्ष केवल मंच पर भाषण देकर वाहवाही लूटते हैं। असलियत में उनकी सारी योजनाएं एवं नीतियां गरीब विरोधी हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट को यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह अतिरंजित या मनगढ़ंत है। विश्व स्तर की यह संस्था ऐसा काम नहीं करेगी जिससे उसकी साख धूमिल हो।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में इसलिए खास है क्योंकि मौजूदा केन्द्र सरकार आम जनता के हित में काम करने का दावा करती है। गरीबों, वंचितों के लिए उसने तमाम कल्याणकारी योजनाएं संचालित की हैं। नोटबंदी के पीछे का मकसद भी जनता की भलाई था। मुद्रा, जनधन, उज्जवला जैसी योजनाएं गरीबों की उन्नति का मार्ग प्रषस्त करने के लिए शुरू की गई हैं। ‘स्टार्ट अप’ का उद्देश्य भी उद्यमियों को प्रोत्साहित करना है। मोदी सरकार ने सभी कदम गरीबी दूर करने और जनता को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठाए गए हैं मगर ताजा अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इन अच्छी योजनाओं का वास्तविक लाभ पात्र लोगों को नहीं मिला। सरकार अपने आंकड़ों से खुश हो सकती है, लेकिन क्या गरीबी दूर हुई? भारत की 10 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 77.4 फीसदी जबकि एक फीसदी लोगों के पास कुल संपत्ति का 51.53 फीसदी हिस्सा है। जरा सोचिए, यह कैसी विडंबना है कि केवल एक प्रतिशत धनी लोग देश की आधी संपत्ति का उपभोग कर रहे हैं। यही नहीं, भारत की सर्वाधिक गरीब 10 फीसदी (13.6 करोड़) आबादी पिछले 14 वर्षों से कर्जदार बनी हुई है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि गरीबी की वजह से ही समाज में अपराध भी बढ़ते हैं। गैरबराबरी लोगों को अपराध की ओर ले जाती है।
रिपोर्ट में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई को पाटने के लिए दुनिया भर के राजनीतिक नेताओं को चेताया गया है। कहा गया है कि इस असमानता से दुनिया में आक्रोश और संघर्ष की स्थिति बन रही है। इसके अलावा अर्थव्यवस्था के लिए भी यह स्थिति उचित नहीं है। इस नाते दावोस सम्मेलन में जो भी बड़े नेता शिरकत कर रहे हैं वह इस चिंताजनक रिपोर्ट पर गंभीरतापूर्वक विचार करें। इसका एक संदेश यह भी है कि सरकारें लोक लुभावन वादों एवं घोषणाओं से बचें। अक्सर चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल की सरकारें ऐसी चालें चलती हैं। अपने देश में तो यह आम परंपरा सी बन गई है। हाल ही में गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का मोदी सरकार का फैसला इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। अभी तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत और उसकी सरकारों द्वारा किसानों की कर्जमाफी भी लोक लुभावन निर्णय है।
बहरहाल, दुनिया के तथाकथित विकसित देश इस रिपोर्ट में दी गई चेतावनी को कितनी गंभीरता से लेंगे यह एक विचारणीय प्रश्न है पर, भारत को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ऑक्सफैम इंटरनेशनल की कार्यकारी निदेशक विनी ब्यानिमा ने कहा है कि ‘भारत में अमीरों का धन बढ़ रहा है जबकि गरीब दवाओं एवं भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अगर यह खाई बढ़ती रही तो देश की सामाजिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाएगी।’
मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, मुद्रा, कौशल विकास जैसी योजनाएं शुरू कर युवाओं को अपने पैरों पर खड़े होने को प्रेरित किया। ग्रामीण इलाकों में ये योजनाएं काफी जोरशोर से लागू की गईं। यह स्वागत योग्य कदम है क्यों कि अपने देश में नौकरी पाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य रहता है। सरकारी नौकरी के पीछे लोगों का पागलपन किसी से छिपा नहीं है। अच्छा हो कि लोग नौकरी के लिए भटकने के बजाय अपना खुद का कोई रोजगार शुरू करें। इससे वे कुछ और लोगों को नौकरी दे सकेंगे। मगर, अब भी सरकार की योजनाओं को कागज से जमीन पर उतारने में काफी समय लगता है। भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद अपनी जगह बरकरार है। ऐसे में योजनाओं का सही लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता। मिसाल के तौर पर लखनऊ में फरवरी 2018 में इन्वेस्टर्स समिट में लाखों करोड़ों के निवेश का जो खाका तैयार हुआ उसका वास्तविक लाभ कितनों को मिला? उद्योगपतियों की घोशणाओं के अनुरूप बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन का क्या हुआ? निवेश प्रस्तावों को अमल में लाने में इतना विलंब क्यों हो रहा है? उद्योग धंधे क्यों नहीं लग रहे हैं?
अगर हमारी सरकार ऑक्सफैम की रिपोर्ट का संज्ञान लेकर कुछ ठोस कदम उठाए तो बात बन सकती है। मगर, सवाल है कि अब जबकि सरकार के कार्यकाल में महज कुछ महीने बचे हैं, वह क्या करेगी? सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था लेकिन यह बस नारा भर ही रह गया। देश में योजनाएं तो खूब बनती हैं लेकिन वह कागजों पर ही दम तोड़ती रहती हैं। जब तक यह ढर्रा नहीं बदलेगा हालात भला कैसे बदल सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)