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यही वो जगह है, यही वह फिजाएं
दुनिया हर सवेरे फिर भागती है, दुनिया नए सिरे से फिर तैयार होती है, उम्मीद का एक नया दिन लेकर। कभी हों खुद जब निराश तो ढूंढिए उस 'यही वह जगह है' को, उस 'टॉकिंग विद सेफ प्लेस' को जहां पर आप खुद के साथ समय व्यतीत कर सकें।
ऐसा अक्सर सबके साथ होता है जब हम अपने दिमाग को कुंद और खाली सा महसूस करते हैं, हमें लगता है कि हम कोशिश कर रहे हैं या करना चाह रहे हैं पर या तो कोशिशों को हम उस अंजाम तक नहीं पहुंचा रहे पा रहे हैं या कोशिशों में 100% अपना योगदान नहीं दे पा रहे हैं। तब मन में एक खीज उत्पन्न होती है और शायद हम उस समय निरुपाय होतें हैं अपने इस निरुद्देश्य समय को ठीक करने को लेकर। क्योंकि मनचाहा हम हासिल नहीं कर पा रहे होते हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हताशा की इस परिस्थिति के बीच संघर्ष में हम स्वयं को अवसाद से ग्रस्त पाते हैं क्योंकि हम अपने लक्ष्य को हासिल करने से फिसल रहे होते हैं, उससे दूर हो रहे होते हैं और जब हमें खुद को यह महसूस होने लगता है तो हम पटरी से डगमगाने लगते हैं, हम नकारात्मक हो जाते हैं। हमें आश्चर्य होने लगता है कि सब कुछ अच्छा होते हुए भी क्या कुछ कमी हो रही है जो इस तरह से जिंदगी को कचोट रही है।
हम कौन सी दिशा में जाना चाहते हैं, ऐसा हम उस दोराहे पर खड़े होकर सोचने लगते हैं। हमारा ध्यान भटकने लगता है, हमारी इच्छा शक्ति कुंद हो जाती है और दिमाग खाली। क्या करना चाहिए ऐसी स्थिति में? ऐसे में ओपी नैयर साहब और एच एस बिहारी द्वारा लिखित, फिल्म 'यह रात फिर ना आएगी' में आशा भोंसले द्वारा गाया गया यह गाना याद आ जाता है, जिसे मैंने प्रसिद्ध गायक अभिजीत की आवाज में हाल ही में फिर से सुना था। इसके कुछ शब्दों को माफी सहित मैंने यहां बदल दिया है अपने प्रयोग के लिए-
'यही वह जगह है
यही वह फिजाएं,
यहीं पर कभी
हम खुद से मिले थे।
यहीं पर ऊर्जा का नया रंग भर के
बनाई थी लक्ष्य की तस्वीर तुमने,
यही की दुनिया से मेहनत को चुनकर
संवारी थी अपनी तकदीर तुमने,
वह दिन खुद को याद कैसे दिलाए।'
तब ऐसी जगह जाने को मन कहता है जहां जाकर हम कह सके 'हां, यही वह जगह है' जहां पर हम खुद से मिल सकते हैं, हम खुद से सवाल भी कर सकते हैं और खुद ही जवाब भी तलाश कर सकते हैं। कभी पानी को देखा है जो कि वजन में पत्थर के जितना ताकतवर नहीं होता फिर भी पत्थर पर जब पानी गिरता है तो संगीत का स्वर भी फूटता है, तो पत्थर पर पानी का निशान भी बनता है। इसी तरह जब हम निराश होते हैं तो हमारे दिमाग के नकारात्मक विचार हमारे दिमाग को चोट पहुंचाते हैं पानी द्वारा पत्थर पर पड़ने के बाद बने निशानों की भांति और सकारात्मक विचार पानी के पत्थरों पर गिरकर संगीत के स्वर जैसा निकालने जैसे होते हैं। अब यहां कौन से विचारों को कब तक हम साथ रखने का माद्दा रखते हैं, यह तो हमारे अपने ऊपर है । क्योंकि जब हम 'टॉकिंग विद सेल्फ' के जोन में घुसते हैं तो हमें अपनी नकारात्मकता को वहीं खत्म कर देना चाहिए। इस दुनिया में अनगिनत नकारात्मक घटनाएं हर रोज घटती हैं, हर रोज इतिहास के पन्नों पर, अखबार के पन्नों पर, लोगों के दिमाग के पन्नों पर चस्प हो जाती हैं।
टॉकिंग विद सेफ प्लेस
तो क्या यह दुनिया डूब जाती है? क्या उम्मीदें खत्म हो जाती हैं? नहीं। यह दुनिया हर रात के बाद फिर जागती है। दुनिया हर सवेरे फिर भागती है, दुनिया नए सिरे से फिर तैयार होती है, उम्मीद का एक नया दिन लेकर। कभी हों खुद जब निराश तो ढूंढिए उस 'यही वह जगह है' को, उस 'टॉकिंग विद सेफ प्लेस' को जहां पर आप खुद के साथ समय व्यतीत कर सकें, खुद को खड़ा कर सकें, खुद की एनर्जी चार्ज कर सकें, अपने फिर से उगने की तमन्ना को मुट्ठियों में समेट सकें।
कभी हम कहीं बैठे होते हैं और अचानक कहीं से कोई कॉकरोच आकर हमारे कंधे पर बैठ जाता है, तो हम कितनी बुरी तरह से उछल पड़ते हैं, हम डर जातें हैं। वह छोटा सा बिना काटने वाला जीव हमें डरा देता है। कभी-कभी हमारे घर में हमारे रिश्तेदारों का दुर्व्यवहारपूर्ण रवैया हमें अंदर तक परेशान कर देता है, तो कभी-कभी हमारे बॉस की कही हुई कोई बात हमें अपमानजनक लग जाती है, कभी-कभी दोस्तों का मजाक हमें चुभ जाता है तो कभी-कभी ऐसा बहुत कुछ होता है जो हमें अशांत कर जाता है, हम दुःखी हो जाते हैं, हम निराश हो जाते हैं, हम नकारात्मक हो जाते हैं,हम अपना प्रिय काम छोड़ देते हैं, हम रिएक्ट कर जाते हैं। कहां गलती हो रही है ? कॉकरोच को कोई फर्क नहीं पड़ेगा हमारे डर से, हमारे चिल्लाने से। इसी तरह हमारे रिश्तेदारों को या किसी भी अन्य को कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि उनके दुर्व्यवहार से हम कितना परेशान हैं। हमारे खुद पर निर्भर करता है कि हम उसे किस तरह से ले रहे हैं, हम उन विचारों पर कैसे नियंत्रित करके उस रेड जोन से खुद को बाहर ला रहे हैं ।
यहां प्रसिद्ध कथाकार, साहित्यकार निर्मल वर्मा द्वारा प्रसिद्ध लेखिका उषा प्रियम्बदा को कही एक बात याद हो आई -
“किसी दूसरे पर अपने को इतना खर्च मत करो कि तुम्हारे पास अपना कुछ ना बचे।”
तो, संभालिए खुद को, अपने को बचाने के लिए। अगर कोई खुश दिखाई दे रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसके पास जीवन के हर सुख हैं। हो सकता है वह आर्थिक रूप से विपन्न हो, हो सकता है कि उसके पास परिवार, दोस्त जॉब न हो या कुछ और भी दिक्कत हो सकती है उसे। पर उसे पता है कि उसे अपनी जिंदगी को चलाने के लिए जिंदगी के प्रति अपने रवैया को, अपनी सोच को सही रखना होगा। अब क्योंकि सभी राज्यों के और कुछ दिनों में सीबीएसई की भी बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने लग रहे हैं और जल्द ही आ जाएंगे तो विद्यार्थियों को भी यही सीखना है कि वे आशावान रहें, नकारात्मक नहीं हो। जिंदगी सिर्फ एक परेशानी से न तो खत्म होती है और न ही रुकती है।
बदलाव प्रकृति का नियम
बदलाव जिंदगी का, प्रकृति का नियम है और कोई नहीं जानता कि भविष्य में उसके लिए क्या और कितना मिलने वाला है। इसलिए जीवन जो आज है वही जीवन है। बच्चों को तो विशेषकर भविष्य के प्रति आशावादी और वर्तमान को जीने वाला होना चाहिए है। तो अगर आप भी कुछ उदास हैं, निराश हैं, तो ढूंढिए उस जगह को जहां जाकर आप कह सकें, हां , यही वह जगह है जहां हम खुद को खुद से मिल पाते हैं, खुद की एनर्जी को चार्ज कर पाते हैं।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)