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नोटों की चाशनी में लिपटा लोकतन्त्र का महापर्व

raghvendra
Published on: 26 April 2019 3:48 PM IST
नोटों की चाशनी में लिपटा लोकतन्त्र का महापर्व
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मदन मोहन शुक्ला

लोकसभा चुनाव का दौर जारी है। राजनीतिक योद्धा अपने तरकश से तीर पर तीर चला रहे हैं लेकिन जिस तरह सभी दल आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहे हैं वह चिन्ताजनक है और लोकतंत्र का दुर्भाग्य भी है। इसके अलावा सभी दलों ने न सिर्फ दागी पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को टिकट दिए हैं बल्कि चुनाव प्रचार में धनबल का बेलगाम इस्तेमाल किया जा रहा है। जाति व धर्म के नाम पर जिस तरह सभा मंचों से बेखौफ अपीलें की जा रही हैं,वह इस बीमारी का आक्रामक अवतरण है। जो माहौल है उसमें राजनीतिक दलों से किसी अनुशासन की अपेक्षा करना बेमानी है। उनका उददेश्य किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है। ऐसे में चुनाव आयोग के कन्धे पर इन दलों पर लगाम लगाने की महती जिम्मेदारी है। अफसोस की बात है कि आयोग का मौजूदा रुख नाउम्मीद करता है।

जिस संसद में भारत बसता है उसके 60 से 70 फीसदी सदस्य अरबपती हैं, 90 फीसदी दागी हैं और 40 फीसदी निरक्षर या न्यूनतम स्तर के शिक्षित हैं। क्या यही देश का लोकतंत्र है कि सत्ता के शीर्ष पर ऐसे लोग काबिज हों जिनकी बुनियाद ही संदिग्ध है। लोकतंत्र के महापर्व की बात हो रही है लेकिन यह महापर्व तो रुपए की चाशनी में लिपटा हुआ है। ६० दिन के महापर्व में कितने पैसों का वारा न्यारा होगा उसकी कोई गिनती नहीं है। इसका आंकड़ा अगर 100 खरब को पार कर जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। हम भारत के लोग समझदार हैं और भावुक भी। हम अक्लमंद हैं लेकिन दिल के गुलाम भी हैं। हमें बहकाना आसान है। मतदाता की सबसे बड़ी कमजोरी है लोक लुभावन जुमलों में सब कुछ लुटाने की प्रवृत्ति। इसी कमजोर नब्ज को पकडक़र राजनीतिक पार्टिया जाल बुनती हैं चाहे वह जाति का समीकरण हो या धार्मिक भावनाओं के उकसाने की तुष्टिकरण की या एक वर्ग विशेष को अलग थलग करने की प्रवृत्ति।

आज की सियासत ने गरीबी, अशिक्षा और धर्म को लेकर देश के भीतर एक मोटी रेखा खींच दी है। गरीबी एक पब्लिक टूल है सत्ता मेें बने रहने का। राजनेता चुनावी वादों का जुमला फेंकते हैं और जनता सहर्ष स्वीकार करती है और मान लेती है कि सब वादे पूरे होंगे। पार्टियां जातिगत समीकरण का तानाबाना बुनती हैं, उन्हें किसी मुद्दे, किसी समस्या की कोई परवाह नहीं होती। राजनीतिक पार्टियां व उनके नेता बखूबी जानते हैं कि किस क्षेत्र में किस तरह की बात करनी है और कहां कैसे लोक लुभावन वादे करने हैं।

मुफ्त खोरी की प्रवृत्ति किस तरह अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है इसका एक प्रमाण यह है कि 2014 से अब तक 1.9 लाख करोड़ रुपए की कर्ज माफी की जा चुकी है। आम चुनाव से पहले केन्द्र सरकार छोटे किसानों को सालाना 6000 रुपए देने की योजना लेकर आयी है जिस पर सालाना 75000 करोड़ रुपए खर्च होंगे। खाद्य, पेट्रोल और उर्वरक सब्सिडी के मद में 2.84 लाख करोड़ रुपए दिए ही जाते हैं। कांग्रेस भी गरीब परिवारों को 72000 रुपए सालाना की न्यूनतम आय देने का वादा कर रही है। साफ है कि सभी राजनीतिक दल समाज की भलाई के नाम पर मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने में लगे हैं। इसी का सहारा लेकर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इतना सारा पैसा कहां से आएगा? यह समझना होगा कि साब्सिडी के जरिए हम समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। सब्सिडी लोगों को आलसी बनाती है। मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की बजाए प्रोडक्टिविटी को बढ़ावा देने की बात करनी चाहिए लेकिन राजनीतिक दलों और नेताओं को आसान रास्ता चाहिए सो पैसा बांटने, सब्सिडी बढ़ाने की ही बात की जाती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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