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जब जीने की उम्मीद न हो तो क्या करें?

raghvendra
Published on: 6 July 2019 3:46 PM IST
जब जीने की उम्मीद न हो तो क्या करें?
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ललित गर्ग

जीने की इच्छा जब साथ छोडऩे लग जाए तो क्या किया जाना चाहिए? जिसमें जीने की इच्छा खत्म हो रही हो वह क्या करे और उसके आसपास के लोग क्या करें? आज इच्छा मृत्यु को वैध बनाने का मुद्दा न केवल हमारे देश में बल्कि दुनिया में प्रमुखता से छाया हुआ है। हाल ही में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने एक दूरगामी असर वाले फैसले में लोगों को इच्छा मृत्यु की अनुमति दे दी है। कोर्ट ने कहा सम्मान से मरना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

इच्छा मृत्यु या मृत्यु की संभावना को देखते हुए जीवन को बचाने के प्रयत्न पर विराम लगाना क्या उचित है? कुछ ऐसा ही मैसूर में 10 साल की बच्ची के साथ हुआ, जिसको लेकर सोशल मीडिया और पूरे जैन समाज में एक ही चर्चा हो रही है कि आखिर इस बच्ची ने क्यों लिया ‘संथारा?’ संथारा यानी मृत्यु का वरण। इस बच्ची द्वारा सचेतन अवस्था में संथारा लेने का कारण ‘ब्रेन ट्यूमर’। डॉक्टर ने कहा था इस बच्ची के जीने की अब कोई उम्मीद नहीं है। जब परिवारवाले बच्ची को हॉस्पिटल से घर लेकर आये तो उसने इच्छा व्यक्त की कि वह संथारा लेना चाहती है। इस बच्ची ने जैन धर्म की संथारा परम्परा के अन्तर्गत मृत्यु का वरण कर लिया। जैन परम्परा ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म में भी जब किसी बुजुर्ग की मौत निकट दिखने लगती है तो उसके मुंह में परिवारजनों के हाथों से तुलसी गंगाजल दिलवाने का चलन है। माना जाता है कि इससे उसकी मृत्यु ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद उसकी यात्रा सुगम होगी। कुछ ऐसा ही मुंबई के एक बड़े अस्पताल में होता है। एक बड़े धार्मिक संप्रदाय से जुड़े ट्रस्ट द्वारा संचालित इस अस्पताल में प्रचलन यह है कि जब किसी मरीज की हालत ज्यादा बिगड़ जाती और लगता कि यह नहीं बचेगा तो उसे भजन या धर्मग्रंथों के अंश सुनाए जाने लगते हैं। अस्पताल प्रबंधन से जुड़े लोग इसका जिक्र अपनी विशिष्टता के रूप में करते थे। इसके विपरीत मुंबई के चिकित्सा हलकों में अच्छा नाम कमा चुके एक युवा डॉक्टर ने इस अस्पताल में काम करने का ऑफर इसी वजह से ठुकरा दिया। उसका कहना था कि यह चलन डॉक्टरी पेशे की मूल भावना के खिलाफ है।

इसके पीछे मौजूद सोच पर उस डॉक्टर ने कई तरह से सवाल उठाए। मसलन, यह कोई कैसे तय कर सकता है कि कोई मरीज अब मर ही जाएगा? और जैसे ही आपने उसे गीता के उपदेश सुनाने शुरू किए, इससे तो जो भी थोड़ी बहुत उम्मीद उसमें बाकी होगी, वह टूट जाएगी। तो फिर वह अपना संघर्ष कैसे जारी रखेगा? बतौर डॉक्टर हमारा काम है कि आखिरी दम तक जीवन को बचाने की कोशिश करते रहें। जब भी यह कोशिश नाकाम होती है, वह प्रोफेशनली हमारी हार होती है। उस पर हम उदास होते हैं। यह कैसे हो सकता है कि हम कुछ पल पहले ही लड़ाई छोड़ दें?

दुनिया में अनेक देशों में इच्छामृत्यु के कानून बने हैं। दिसंबर 2013 में बेल्जियम की संसद ने बच्चों को इच्छा मृत्यु का अधिकार देने के बारे में सहमति जताई। 50 सांसदों ने इसके समर्थन में मत दिया। विरोध में सिर्फ 17 थे। 2002 से बेल्जियम, नीदरलैंड्स में और 2009 से लक्जम्बर्ग में यह कानून लागू हुआ है कि वयस्क मरीज की इच्छा पर डॉक्टर जीवन रक्षक दवाइयां रोक सकते हैं। अब संसद में अल्पवयस्कों को भी इच्छा मृत्यु देने का बिल पास कर दिया है। 2012 में स्विस मेडिकल वकीलों के कराए गए एक सर्वे के मुताबिक लोग बहुत अलग प्रतिक्रिया देते हैं। जर्मनी में 87 फीसदी लोग इच्छा मृत्यु पर सहमति जताते हैं जबकि ग्रीस में सिर्फ 52 फीसदी इसके समर्थन में हैं। फ्रांस के कानून के मुताबिक लाइलाज बीमारी से ग्रस्त रोगी की जीवन रक्षक प्रणाली मरीज के अनुरोध पर डॉक्टर हटा सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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