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Lok Sabha Election 2024: लो फिर आया लोकतंत्र का उत्सव

Lok Sabha Election 2024: चुनाव जैसी गंभीर चीज जो हमारी आपकी जिंदगी की दिशा और दशा को तय करने की हैसियत रखती है, उसको भी हमने उत्सव बना रखा है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 19 March 2024 3:31 PM IST (Updated on: 19 March 2024 3:31 PM IST)
Lok Sabha Election 2024 Schedule
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Lok Sabha Election 2024 Schedule 

Lok Sabha Election 2024: हम उत्सवों और त्योहारों का देश हैं। आये दिन कोई न कोई त्योहार होता है। हम उत्सवधर्मी लोग हैं। कुछ और नहीं तो कम से कम उत्सव के बहाने ही खुशियां मन जाती हैं, मौज मस्ती हो जाती है। तभी तो, एक उत्सव बीता नहीं कि अगले का इंतजार और तैयारी शुरू हो जाती है। खालीपन कतई नहीं लगना चाहिए।

इन्हीं उत्सवों की फेहरिस्त में अब एक और उत्सव शुमार हो आया है। जो पहले सिर्फ चुनाव हुआ करता था वो अब लोकतंत्र का उत्सव कहलाया जाने लगा है। जैसे साल भर बाकी तीज - त्योहारों - उत्सवों का सिलसिला लगा रहता है ठीक वैसे ही लोकतंत्र का उत्सव भी साल भर चलता रहता है। आज ये वाला तो कल वो वाला। मनाते चलो लोकतंत्र का उत्सव।

लेकिन एक फर्क है। इस उत्सव को मनाते सब हैं। होली सब खेलेंगे लेकिन रंग चंद लोगों को लगेगा, गुझिया सबको नहीं मिलेगी।

बड़ी हैरानी की बात है। चुनाव जैसी गंभीर चीज जो हमारी आपकी जिंदगी की दिशा और दशा को तय करने की हैसियत रखती है, उसको भी हमने उत्सव बना रखा है। जो गंभीर मंथन, मंत्रणा, विमर्श और समझदारी का विषय है, उसे एक दिन की मस्ती का उत्सव मनाने की चीज बना दिया है, लेकिन सबके लिए नहीं बल्कि सिर्फ उनके लिए जो इस दिन को उंगली पर स्याही लगवा कर फोटो खिंचवाने का क्षण मात्र मानते हैं। जिनके नाम उस मशीन में दर्ज हैं जिसका बटन दबाने को हम उत्सव मानते हैं उन नामों के लिए ये मौज मस्ती का उत्सव नहीं बल्कि बेहद गंभीर क्षण है।

चुनाव दुनिया का सबसे महंगा उत्सव

तभी तो हमारा लोकतंत्र का उत्सव रूपी चुनाव दुनिया का सबसे महंगा बन चुका है। वोटर ठनठन गोपाल है लेकिन लाखों करोड़ का उत्सव मन जाता है, मनता ही चलता रहता है। लोकसभा और कई विधानसभाओं के लिए चुनावों का प्रोग्राम सामने है। जिसका शिद्दत से इंतज़ार था, वो घड़ी आ गई है। इंतज़ार जनता को नहीं, बल्कि राजनेताओं और राजनीतिक दलों का क्योंकि उत्सव उन्हीं का है। जनता का क्या, उसे तो सिर्फ नाचते हुए जलसा मनाना है।

2024 का उत्सव सामने है। न सिर्फ लोकसभा बल्कि कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। हम भले ही गरीब हैं, करोड़ों लोग सरकार के मुफ्त राशन पर निर्भर हैं । लेकिन चुनाव के उत्सव में उस बार रिकॉर्ड 1 लाख 20 हजार करोड़ खर्च कर देंगे। ये एक अनुमान है।

ये जान लीजिए कि 2019 में हुए चुनावों में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा लगभग 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए, जो 2014 के चुनावों के दोगुने से भी अधिक है। एक रिपोर्ट बताती है कि देश के प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में प्रति मतदाता 700 रुपये या लगभग 100 करोड़ रुपये खर्च किए गए। ये कोई मामूली रकम नहीं है।

2019 में कोई 90 करोड़ मतदाता थे। इस बार यानी 2024 में 98 करोड़ हो चुके हैं। चुनावी खर्च में हम अमेरिका को टक्कर देते हैं। बाकी देश तो पसंगा भर नहीं हैं।

अगर पहले की बात करें तो 1993 में लोकसभा चुनाव पर 9000 करोड़ रुपये, 1999 में 10,000 करोड़ रुपये, 2004 में 14,000 करोड़ रुपये, 2009 में 20,000 करोड़ रुपये, 2014 में 30,000 करोड़ रुपये और 2019 में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

2019 में चुनाव पर खर्च की बात करें तो इसका 20 फीसदी यानी 12 हजार करोड़ रुपये चुनाव आयोग ने चुनाव प्रबंधन पर खर्च किए। 35 फीसदी यानी 25000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों ने खर्च किये। खर्च की कहें तो प्रत्याशियों के खर्च की सीमा तय है लेकिन पार्टी पर कोई रोक नहीं है।


चुनाव में खर्च

चुनाव आयोग ने तय कर रखा है कि चुनाव में प्रत्याशी कितना खर्च कर सकता है। लेकिन क्या उतने में काम चलता है? जी नहीं, कई गुना ज्यादा पैसा लगता है। रैलियां, हेलीकॉप्टर, बैनर, प्रचार और ढेरों अन्य चीजों पर खर्च करती है। चुनाव खर्च तो अंधा कुआं है। बस झोंकते जाओ। उत्सव है।

एक एक वोट की कीमत है। भले ही वोटर इसे न समझें लेकिन पार्टियां और प्रत्याशी इसे बखूबी जानते हैं। ये सब खर्च एक एक वोट के लिए किया जाता है।

हमारे संविधान की भावना कहती है कि सभी भारतीयों को चुनाव लड़ने में सक्षम होने के बारे में सोचना चाहिए। लेकिन कोई हो भी तो कैसे?अमेरिका में तो चुनाव अभियान के लिए प्रत्याशी खुद चंदा आदि से धन जुटाते हैं। सब हिसाब किताब खुला और पारदर्शी है। लेकिन हमने इसका कोई सिस्टम अभी तक डेवलप नहीं किया है। चुनावी खर्च की लिमिट है । लेकिन लिमिट क्रॉस करने पर कोई सज़ा नहीं है। उत्सव खत्म, मामला खत्म। अब अगले की तैयारी करिये।


अब चुनावी सिस्टम को भी क्या ही कहा जाए। आयोग है लेकिन कोई ताकत ही नहीं। मानो खेत में खड़ा पुतला हो। चिड़िया भी बेखौफ उसके सिर पर बीट करने लगती है। साल भर कभी यहां तो कभी वहां चुनावी उत्सव कराने वाले आयोग के पास टूल्स कौन हैं? वही सरकारी मशीनरी वाले जिनकी ओवरहॉलिंग के लिए चुनाव होते हैं? ले दे कर वही आईएएस।

न अपना फौज फाटा, न कानूनी ताकत। बस आदर्श आचार संहिता जारी करते रहो। जो न माने उसको नोटिस, बस। नख दांत विहीन की और उम्दा मिसाल क्या ही हो सकती है।

सात-सात, नौ-नौ चरणों में चुनाव

एक और बात। ये साल भर उत्सव मनाने की भी क्या जरूरत? ये तीन तीन महीने तक उत्सव खींचने का क्या मतलब? टेक्नोलॉजी कहाँ से कहाँ पहुंच गई। कम्युनिकेशन और ट्रांसपोर्टेशन कितना आगे बढ़ चुका है और हम हैं कि सात-सात, नौ-नौ चरणों में चुनाव करते जा रहे हैं। कहने को बहाना सुरक्षा बलों का है। क्या एक जगह से दूसरी जगह पैदल जाते हैं? जब हम यूक्रेन और न जाने कहाँ कहाँ से लोगों को एयरलिफ्ट कर सकते हैं तो चुनावी मशीनरी को क्यों नहीं करते? फिर इसका स्थाई इंतजाम क्यों नहीं होता। बात मंगल ग्रह पर बस्ती बसाने की हो रही लेकिन यहां एक जिले से दूसरे जिले में अमला पहुंचने में लाले हैं। एक ही दिन में पूरे देश में सब चुनाव कराने में क्या जाता है? एक देश, एक चुनाव क्यों नहीं होना चाहिए? क्यों नहीं नामांकन से मतदान के बीच के पंद्रह दिनों को कम करके सात दिन कर दिया जाना चाहिए? पैसा बचेगा, टाइम बचेगा। ये तो वक्त की मांग है। अब नहीं तो कब?

कब तक चलेगा ऐसे? कहने को हम टेक स्मार्ट हैं। 2026 तक भारत में एक अरब स्मार्टफोन यूजर्स होंगे। लेकिन चुनाव अभियान अब भी हेलिकॉप्टर, रैलियों, रोड शो पर टिके हुए हैं। पार्टियाँ चुनावी मौसम के दौरान बड़े पैमाने पर अभियान रैलियाँ आयोजित करना जारी रखे हैं। भीड़ ही एक पैमाना कब तक बना रहेगा? अब तो हम उत्सव से आगे बढ़ें। कुछ गंभीर बनें। पारदर्शी तो बनें। ये उत्सव जरूर है, इसे तमाशा न बनाएं। तमाशबीन तो हर्गिज न रहें। पैसे और समय की वकत समझें।


( लेखक पत्रकार हैं। दैनिक पूर्वोदय से साभार।))

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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