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Ramayana: कितने-कितने राम

Ramayana: वियतनाम को यदि हम छोड़ दें तो दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध थाईलैंड, कम्बोडिया, इस्लामिक इंडोनेशिया हर स्थान पर तो रामकथा अभी भी जीवित हैं।

Prof Anamika Rai
Written By Prof Anamika Rai
Published on: 16 Jan 2024 10:44 AM GMT
Lord Ram
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Lord Ram  (photo: social media )

Ramayana: इतिहास, परम्परा, मिथक एवम् लोक परम्परा सबके राम और राम किसी एक बिंदु पर तो रुके ही नहीं। जितनी रामकथा लोकप्रिय हुई है, अनेक स्वरूपों के साथ, प्रश्न है कि किस स्वरूप का वर्णन किया जाए ?

कस्मै देवाय हविषा विधेम

हर समाज, संस्कृति तथा व्यक्ति का अपना नजरिया है, उसके अपने राम हैं, उसका अपना दृष्टिकोण है। रामकथा भी एक कहाँ है ! वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण, कृतिबास की बंगला रामायण तथा तुलसीदास की रामचरितमानस है। कितने कितने नाम लें ? हर युग के हर परिवेश की हर भाषा के हर लेखक के हर क्षेत्र के अपने राम हैं।


वियतनाम को यदि हम छोड़ दें तो दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध थाईलैंड, कम्बोडिया, इस्लामिक इंडोनेशिया हर स्थान पर तो रामकथा अभी भी जीवित हैं। बाली में तो राम कथा का मंचन इतना सजीव है; वह तो अपने आप में एक शोध का विषय है, जहाँ खुले हुए रंगमंच में 700 कलाकार केवल मुख से ध्वनि करके रामकथा का मंचन करते हैं।

कभी विचार किया है कि रामकथा अथवा राम इतने वर्षों से लोगों के हृदय पर क्यों राज्य कर रहे हैं ? जयदेव जैसा शाक्त लिख रहा है 'गीत

गोविन्द' - कृष्ण और राधा की लीला पर परन्तु आह्वान कर रहा है विष्णु के दशावतार का, जिसमें एक अवतार राम भी हैं :

केशव धृत राम स्वरूप जय जगदीश हरे।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो राम कालिदास के रघुवंशम् से मूर्तिमान

रामाभिधानो हरिरित्युवाच।

हुए।

राम लोकप्रिय हुए अलवार सम्प्रदाय से और उसे लोकप्रिय करने वाले रामानन्द का जन्म 1299 ईस्वी में प्रयाग में ही हुआ था। उस समय की समाज की स्थिति को यदि देखें तो समाज की रक्षा के लिए भक्ति की लहर में उन्होंने जो परिकल्पना की वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम नहीं थे, धनुर्धारी शौर वीर राम की भक्ति को उन्होंने प्रसारित किया। धनुर्धारी राम का शिल्प स्वरूप अत्यन्त लोकप्रिय है और यह 9वीं से 10वीं शताब्दी ईस्वी की मूर्तियों में परिकल्पित होने लगा था।


मामल्लपुरम् के रथ मंदिरों में देखिए। यहाँ तक कि जब बाद में कांस्य के श्री राम (चोल काल) बनने लगे तब भी शंख-चक्र उनके दोनों हाथों में और धनुष और बाण नीचे के दोनों हाथों में बनाए गए। यह उस समय के विष्णु अवतार थे और ऐसी ही आवश्यकता के अन्तर्गत उसी प्रकार निर्मित और कल्पित किया गया। पुराणों में कहा गया है कि भक्तों का उपकार करने वाले विष्णु अपनी इच्छा से मनुष्य का रूप धारण करते थे विष्णु पुराण में कहा गया है:

आत्मच्छया कारण रूप धारिणो ।

ब्रह्माण्ड पुराण और वायु पुराण में कहा गया है :

अप्रमेयो नियोन्यश्च यत कामचरो प्रतिष्ठो मानुषीम् योनिम्।

रामानन्द राम भक्ति को दक्षिण भारत से उत्तर भारत ले आए।यह अध्यात्म रामायण थी, जिसमें गंभीरता थी। रामानन्द के शिष्य कबीर

के राज में रहस्य था, माधुर्य था :

हरि मोरे पिउ मैं राम की बहुरिया।

धनुर्धारी राम से शनैः शनैः कबीर लोक परम्परा वाले राम को ले आए।

मिथक टूटते हैं; विश्रृंखलित होते हैं, परम्परा नये मिथक गढ़ लेती है। सांस्कृतिक चेतना में बदलाव आता है तो कई स्थापित मूर्तियाँ भी खंडित होली हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में भी राम कथा को देखना आवश्यक है।


लोक परम्परा के राम वे हैं जो एक सामान्य मानव हैं, चाहे वह तुलसीदास के 'ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनिया' हो या फिर लोकगीत के राम हों। परम्परा में जहाँ राम वर हैं, सीता वधू। कहा जाता है कि विवाह में पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार में शिव-पार्वती के विवाह के गीत गाए जाते हैं, परन्तु विवाह में हमेशा राम वर हैं, सीता वधू है। शिव जैसे जामाता की परिकल्पना कोई भी सास नहीं करती है। मिथिला में विवाह के अवसर पर गाया जाता है:

परीछु आज सुन्दर जमाई हो,

चलु सखी चलु सखी आईले रघुराई।

तो जामाता जिस क्षेत्र का हो, परन्तु वह रघुराई रघुवंशी है।

भोजपुरी में है :

अवध दिशा से अइले सुन्दर दूलहा।

जुरावै लगिली हो सासु अपनी नजरिया ।

लोकप्रिय परिकल्पना है राम के सांवले रंग को लेकर मिथिला में। संभवतः किसी का जामाता साँवला रहा हो।

रुक हो पाहुन राम एक महीना उबटन लगाई के गोर करब।

अपने जामाता से सास कह रही है, मेरे अतिथि राम, हे मेरे जामाता ! एक महीना रुको; मैं तुमको उबटन लगाकर के गोरा कर दूँगी।

इन समस्त में यदि सामाजिक सरोकार को देखा जाए तो रामकथा को

क्या माना जाए विरह का वियोग का ? वाल्मीकि कह रहे हैं काव्य की जो उत्पत्ति हुई है वह वियोग से हुई है :

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः

यत क्रौचमिथुनादेकमवधी काम मोहितम्।

परन्तु यदि देखा जाए तो रामकथा सम्बन्धों के संगम का भी कथानक है। पारिवारिक सम्बन्धों को छोड़कर यदि सामाजिक सम्बन्धों को देखा जाए तो रामकथा तो सम्बन्धों के, संगम का काव्य है। श्रीराम का शबरी से संगम, श्रीराम का निषादराज से संगम, श्रीराम का सुग्रीव से संगम, श्रीराम का विभीषण से संगम तथा श्रीराम का जटायु से संगम। जो श्रीराम अपने पिता का अंतिम संस्कार करने से वंचित रह गए थे, वह जटायु का अंतिम संस्कार कर रहे हैं।


रामकथा को यदि गहराई से देखा जाए तो राम का वनवास अखण्ड भारत का एक पूरा भूगोल है। अयोध्या सरयू नदी के तट पर, प्रयाग संगम पर, चित्रकूट मन्दाकिनी पर, दक्षिण भारत में पंचवटी नासिक, किष्किन्धा पंपा सरोवर पर, कर्नाटक रामेश्वरम् पूरा समुद्र पर।

किस प्रकार राम के वनवास के ब्याज से पूरा का पूरा भारत का भूगोल और श्रीराम से सम्बन्धित समस्त स्थान कैसे नदी के तट पर स्थित हैं, नदी का कितना महत्व है, यह रामकथा में ही प्राप्त होता है।

जो अन्य महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि वन कितना महत्वपूर्ण है। दण्डकारण्य में वनस्पतियों का वर्णन है और जिस जिस ने राम कथा लिखी वह ना तो सम्राट अशोक से परिचित रहा होगा ना समुद्रगुप्त से परिचित रहा होगा ना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना रही होगी। लेकिन अशोक की जनजातियों के प्रतिनिधि उसके अभिलेखों में हैं, समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में आटविक नरेशों का वर्णन है। जनजातियों के प्रति हमारे संविधान में वर्णन है और वही वनवासी कितने प्रमुख रूप से दण्डकारण्य में आए हैं यह विचारणीय है।

एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यदि महाभारत में तीर्थों का वर्णन है तो यहाँ पर आश्रम का वर्णन है। प्रयाग में भरद्वाज, चित्रकूट में अत्रि, पंचवटी में अगस्त्य तथा किष्किन्धा काण्ड में सबरी आश्रम, इन सबका वर्णन कहीं ना कहीं एक ऐतिहासिक विवेचना अथवा धार्मिक विवेचना का विषय है। क्यों राम कथा में इतने आश्रमों का वर्णन है ? ऋषियों का वर्णन है ? क्या यह राम के वन-गमन और वन-गमन के कृत्यों को एक आध्यात्मिक धार्मिक कलेवर पहचान पहनाने का प्रयास है ?

यह तो राम थे विजेताओं के, यह राम थे रामकथा लिखने वाले कवियों के, यह राम थे जिन पर धार्मिक एवम् ऐतिहासिक विमर्श होता है, क्योंकि यह तो विजेताओं के इतिहास वाले राम थे जबकि अकबर ने भी राम सीता प्रकार के सिक्के चलाए थे। यह राम थे आलवार संतों के जिन्होंने भक्ति की धारा दक्षिण से लेकर उत्तर भारत लाई थी; केवल राम नाम पर।

एक और भी राम हैं, जो सम्बल हैं विवश और दम तोड़ती मानवता के। वह राम थे एक पराजित कौम के। यदि विजेताओं का इतिहास होता है तो पराजितों का भी इतिहास होता है और पराजितों की धार्मिक आस्था विजेताओं की धार्मिक आस्था से कहीं अधिक गहरी होती है। यह बात उस कौम की है जिसे उपनिवेशवाद की जंजीरों में जकड़कर अपनी ही जड़ों को, अपनी ही जन्मभूमि को छोड़कर जाने के लिए विवश किया गया था। यह बात है उन गिरमिटिया मजदूरों की जो रेल की पटरी बिछाने के लिए गन्ने के खेत में काम करने के लिए अपनी जन्मभूमि को छोड़कर चले गए थे। यह कहानी है दीति की, कुंदन की, सिकनुवा की, जो कुली बनकर एक के खेत में काम करने के लिए मरीच देश गए थे। मरीच देश अर्थात् वह मॉरीशस गये थे।

रामचरितमानस, गंगाजल और हाथ में पोस्ता के दाने की पोटली जो उनके अपने देश की स्मृति थी। वह नौका चली इन तमाम अनपढ़ अबोध मजदूरों को लेकर गाजीपुर से। गाजीपुर से छपरा होते हुए और पटना से पश्चिम बंगाल और वहाँ से उन्हें एक जहाज पर सवार कर दिया गया। उनके पास था क्या ? रामचरितमानस - रामकथा उनके सम्बल थे।

आप उपन्यास पढ़िए आप इतिहास पढ़िए सबमें इनकी यह कथा लिखी हुई है। अभिमन्यु अनत से लेकर अमिताभ घोष तक वे राम के भक्त थे जो कभी लौटकर नहीं आए।1924 में महात्मा गाँधी जब मॉरीशस गए थे तो उस समय डेढ़ हजार से ज्यादा ऐसे गिरमिटिया मजदूर मानस की एक पोथी लेकर जेल में बंद थे। वहाँ उन्हें अपनी भाषा भोजपुरी में भी बात करने का अधिकार नहीं था। उनके घावों पर नमक छिड़क दिया जाता था। उन्होंने बाहर मंदिर बनवाया तो राम जी का और काली माँ का। उनके गीत थे-

रामजी की ईख के तू चूस ले ले मितवा ।

हमरे खातिर छोड़ गइले सैंया हो।

वस्तुतः राम उन्हीं के हैं जो अपनी जड़ों से उखड़ गए जो अपनी जन्मभूमि से उखड़ गए। जिन्होंने अपनी भाषा का भी बोलने का अदिकार खो दिया उनके सम्बल थे राम और राम वहाँ अभी भी जीवित हैं। राम एक विश्वास है, परम्परा है, लोक परम्परा है, उन्हें आस्था ही बने रहने दीजिए। क्योंकि उसी राम की आस्था पर एक पराजित कौम, जीती हुई कौम बन गई। तभी राम एक शाश्वत सत्य रहेंगे।

संस्कृति में, परम्परा में, मिथकों में सब स्थान में राम हैं। यदि राम मिथक हैं तो पुराने मिथकों को तो सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है और यदि मिथकों का इतिहास लिखा जाए तो अतीत से अनेक बिम्ब लिए जाते हैं। कुछ मुख्य परम्परा का हिस्सा हो जाते हैं, कुछ लोक परम्पराओं का। जीवन्त दोनों ही रहते हैं। प्रायः मिथकों के लिए यह कहा जाता है कि मिथक वह है जो इतिहास में नहीं है। यह नितान्त भ्रामक है। अतीत के बिम्ब मिथक से इतिहास बनाते हैं।

मिथक में मौलिकता होती है, मासूमियत होती है और भावनात्मकता होती है। इतिहास में प्रवेश करते ही वह विवाद बन जाते हैं, खेमों का हिस्सा बन जाते हैं।

राम भी बिम्ब हैं, प्रतीक हैं, रहस्य हैं और संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। वे समस्त मिथकों को ध्वस्त करते हैं, परम्परा एवं इतिहास बनाते हैं। लेकिन जब परम्परा और मिथकों के राम इतिहासकार के फावड़े और कलम का भाग बन जाते हैं, तब वह तमाम दम तोड़ती ऐतिहासिक विचारधाराओं का, विचार विमर्श का और विवाद का केन्द्र बन जाते हैं। तभी विवश होकर लिखा गया था कि- राम को पुनः वनवास ना दें।

(लेखिका प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व , इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर है। ‘ कला व संस्कृति में श्रीराम ‘ पुस्तक से साभार। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है।)

Monika

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Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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