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जन्मशती पर विशेष : तिवारीपुर के माधो बाबू
संजय तिवारी
तब बस्ती जिला विभाजित नहीं हुआ था। इसकी बांसी तहसील में एक गांव पड़ता है तिवारीपुर। गांव में ब्राह्मण ज्यादा हैं। यह इलाका राज साहब बांसी के अधीन था। इस इलाके में उन्ही की चलती भी थी। आजादी से पहले के समय से लेकर काफी बाद तक इस इलाके में बांसी राजपरिवार का ही वर्चस्व रहा है।
इसी गांव में 12 सितम्बर 1917 को जन्माष्टमी के दिन पैदा हुए थे माधो बाबू। जनसंघ वाले माधो बाबू। अपने समय के दिग्गज दार्शनिक, समाजशास्त्री, इतिहासकार तथा राजनीतिक विचारक माधो बाबू का पूरा नाम माधव प्रसाद त्रिपाठी था। वह संयोग ही है कि 19 अगस्त 1984 को जब उनका निधन हुआ तो उस दिन भी जन्माष्टमी ही थी।
तिवारीपुर अब सिद्धार्थनगर जिले का हिस्सा
माधव बाबू का गांव तिवारीपुर अब सिद्धार्थनगर जिले का हिस्सा है। उनके पिता का नाम पं. सुरेश्वर प्र्रसाद त्रिपाठी था, जो एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। इनके दो बड़े और एक छोटे भाई भी थे। बड़े भाई कमलादत्त त्रिपाठी ने डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद बस्ती में चिकित्सा सेवा शुरू की तो दूसरे भाईवशिष्ठ दत्त त्रिपाठी ने व्यवसाय।
छोटे भाई उमेश मणि त्रिपाठी ने काशी को अपनी कर्म भूमि बनाई वहीं, वेसंपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में उपाचार्य बने।माधव बाबू ने काशी विश्वविद्यालय से स्नातक और विधि स्नातक की उपाधि हासिल की। बाद में बस्ती में वकालत शुरू कर दी।
1937 में राष्ट्रीय सेवक संघ के सम्पर्क
माधो बाबू भारतीय जनसंध महत्वपूर्ण नेता थे। उन्होंने पार्टी को खड़ा करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। गजब का व्यक्तित्व था उनका। उनके समय के कुछ लोग बताते हैं कि वह एक साथ दार्शनिक, समाजशास्त्री, इतिहासकार तथा राजनीतिक विचारक सब थे। वह भारतीय जनता पार्टी के आजीवन अध्यक्ष रहे। जब वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के 1937 में विद्यार्थी थे तो राष्ट्रीय सेवक संघ के सम्पर्क में आये।
वह संघ के संस्थापक के. बी. हेडगवार से मिले तो उन्हे एक शाखा का बौद्धिक विमर्श के लिए काम दे दिया गया। घुड़सवारी के शौकीन माधव बाबू की 1940 में आरएसएस गोरखपुर के विभाग प्रचार प्रमुखनानाजी देशमुख से हुई। नानाजी की प्रेरणा से संघ में शामिल हुए और 1941 में नगर संघ चालक बना दियागया। कुछ ही वर्षों में जिला संघ चालक जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी गई। 1942 से वह पूर्णकालिक संघ के समर्पित हो गये।
उन्होने नागपुर में 40 दिन का ग्रीष्म शिविर में भाग लिया था। यही पर उन्हें संघ के प्रशिक्षण की शिक्षा मिली थी। संघ के शैक्षिक शाखा के द्वितीय साल के प्रशिक्षण के पूरा करने के उपरान्त उन्हे आजीवन प्रचारक बना दिया गया। उन्हें लखीमपुर जिले का कार्य भार दिया गया था। 1955 से उन्हें उत्तर प्रदेश के संयुक्त प्रान्त प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। वह संघ के एक आदर्श स्वयंसेवक रहे।
1962 में वे पहली बार विधायक बने
माधव बाबू ने संघ के विचारों को अपने जीवन में अक्षरशः आत्मसात कर लिया था। 1951 में श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना किया था। पं. दीन दयाल को संघ परिवार की ओर से द्वितीय संस्थापक के रुप में जिम्मदारी दी गयी थी। संगठन के प्रति निष्ठा से प्रभावित होकर 1951-52 में डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी टीम में शामिल कर लिया।
पहले आम चुनाव मेंवे भारतीय जनसंघ से चुनाव मैदान में उतरे, मगर वे चुनाव जीत नहीं सके लेकिन 1958-62 में उन्हें विधानपरिषद सदस्य चुना गया। वर्ष 1962 में वे पहली बार विधायक बने। सरकार में वह एक बार कृषि मंत्री भी रहे।वह 1962-66 तथा 1969-77 के मध्य भारतीय जनसंघ की तरफ से उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य थे।
विपक्ष के नेता तथा कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य
वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के विपक्ष के नेता तथा उत्तर प्रदेश के कैविनेट मंत्री थी रहे। आपातकालके दौरान उन्हें करीब 19 माह तक जेल में गुजारना पड़ा। आपातकाल के बाद भारतीय जनसंघ और जनतापार्टी का विलय हुआ तो वे 1977 में डुमरियागंज के सांसद चुने गए। वह डुमरियागंज लोक सभा क्षेत्र के 1977 के सदस्य चुने गये थे।
वह पूर्वाचल उत्तर प्रदेश के अनेक वरिष्ठ सदस्य मा. राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, डा. महेन्द्रनाथ पाण्डेय, स्व. हरीश श्रीवास्तव के साथ काम किये थे। वह पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी वाजपेयी के बहुत करीबी तथा विश्वासपात्र रहे।
यद्यपि माधो बाबू भाजपा के नेता थे परन्तु अन्य राजनीतिक दलो के नेता जैसे चैधरी चरणसिंह तथा मुलायम सिंह आदि भी उनको बहुत सम्मान देते थे। एक बार माधो बाबू विधान सभा चुनाव हार गये थे तो चैधरी चरण सिहं ने अपने पाटी के विधायको से कहकर उन्हे विधान परिषदकी सदस्यता दिलवायी थी।
बांसी को संघ (भाजपा) का गढ़ बना दिया माधो बाबू ने
बांसी विधानसभा क्षेत्र आजादी के बाद से ही भाजपा (जनसंघ) का गढ़ माना जाता है और माधव बाबू उस गढ़ के रचनाकार। उनके इस किले को आजादी के बाद से कांग्रेस केवल चार बार ही जीत पाई। जिसमेंदो चुनाव आजादी के तत्काल बाद यानी सन 52 और 57 के थे, जब कांग्रेस को हराने की कल्पना भी नहीं कीजा सकती थी।
बाद के 13 चुनावों में भी सिर्फ दो बार ही कांग्रेसी जीतने में कामयाब हो सके। 1962 के चुनावमें कांग्रेस का बांसी में जोर तो था, लेकिन यहां जनसंघ (भाजपा) ने माधव प्रसाद त्रिपाठी को युवा नेता केतौर पर तैयार कर लिया था। माधव बाबू एलएलबी करके रानीति में आये थे। उनका मुकाबला कांग्रेस केपूर्व विधायक प्रभुदयाल विद्याथीं से हुआ।
प्रभुदयाल गांधी जी के आश्रम में वर्षों रहे थे, लेकिन नतीजासामने आया तो लोग चौंक पड़े। महात्मा गांधी के साये में राजनीति का ककहरा सीखने वाले प्रभुदयाल कोमात मिली। 1967 के विधान सभा के चौथे आम चुनाव में प्रभुदयाल विद्यार्थी ने 26834 बोट पाकर माधवबाबू को हरा दिया।
माधव बाबू को 23948 बोट ही मिल सके। इसके बाद 69 और 74 के चुनाव में माधवबाबू लगातार जीते। 1977 में माधव बाबू की जगह भाजपा कोटे के हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव उर्फ हरीश जी नेचुनाव जीता। 80 में हरीश को हराते हुए कांग्रेस के दीनानाथ पांडेय ने 33189 वोट पाकर जीत हासिल की, लेकिन 85 के चुनाव में हरीश जी ने कांग्रेस विधायक दीनानाथ पांडेय को हरा कर हिसाब बराबर करलिया।
उतरप्रदेश में भाजपा के प्रथम अध्यक्ष
छह अप्रैल 1980 में जब भाजपा का गठन हुआ तो शीर्ष नेतृत्व ने उन्हेंउत्तर प्रदेश के अध्यक्ष की कमान सौंप दी। 1980 के दशक माधो बाबू का चरमोत्कर्ष का समय था। उन्हे लोग जन नेता के रुप में मानते थे। विपक्ष के नेता के रुप में उनके सलाह का पूर्ण सम्मान दिया जाता था।
अपने राजनीतिक जीवन के दौरान वह वह उ. प्र. हाउसिंग डेवलपमेंट कांउंसिल के अध्यक्ष तथा डेलीमिटेशन कमीशन के सदस्य आदि भी रहे। पं. दीन दयाल उपाध्याय की तरह उनका भी विवास्पद मृत्यु 19 अगस्त 1884 में हुआ था। जन्माष्टमी के दिन संगठन के कार्यक्रम में जाते समय लखनऊ मेंउनकी मौत हुई।
संत - विरागी का जीवन
माधो बाबू का जीवन पूरी तौर पर संत या विरागी जैसा था। उनके परिवार के वे बच्चे जिन्होंने उन्हें देखा है , अब वृद्ध हो चले हैं इन बच्चो को माधो बाबू की वही छवि याद है। एक ऐसा विरागी पुरुष जो केवल देश और समाज के लिए समर्पित था। हर पल उन्हें देश की चिंता थी घर में तो उनको देखने के लिए उस समय बच्चे ही तरस जाते थे।
माधव बाबू के साथ रहने वाली भतीजी 84 वर्षीय उषा देवी शुक्ला और 74 वर्षीय सुधा द्विवेदी कहती हैं कि हम सभी एक ही घर में रहकर महीनों उनसे मुलाकात नहीं कर पाते थे।क्योंकि वह ज्यादातर समय संगठन और सामाजिक कार्य में देते थे।
आरएसएस के प्रति समर्पित होकरचाचा जी ने जिस तरह घर परिवार का मोह छोड़ बैरागी जीवन अपना लिया उससे तो शुरुआती दौर मेंहम परिवार के लोगों को थोड़ा दुख हुआ, मगर समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा और त्याग कीभावना आज भी हमें और हमारे परिवार की प्रेरणा है।
अब जब कि उनकी जन्म शताब्दी वर्ष की अंतिम घडी चल रही है , ऐसे में उन्हें जानने वालो की आंखे छलक जाती हैं। माधव प्रसाद त्रिपाठी की चर्चा से ही सबके भाव पिघलने लगते हैं। आसान नहीं है पंडित माधव प्रसाद त्रिपाठी होना।