×

Maharana Pratap: कीका से महाराणा प्रताप बनने की कहानी, जिन्होंने अकबर का घमंड किया था चूर

Maharana Pratap: तिथि अनुसार महाराणाप्रताप का जन्म दिन ज्येष्ठ माह शुल्क पक्ष की तृतीया तिथि को माना जाता है।रानी जीवत कँवर का नाम कहीं-कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है।

Akshita Pidiha
Published on: 11 May 2023 7:22 PM IST (Updated on: 13 May 2023 4:27 PM IST)
Maharana Pratap: कीका से महाराणा प्रताप बनने की कहानी, जिन्होंने अकबर का घमंड किया था चूर
X
Maharana Pratap (photo: social media )

Maharana Pratap: राजस्थान के कुम्भलगढ़ में राणा प्रताप का जन्म सिसोदिया राजवंश के महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जीवत कँवर के घर 9 मई,1540 ई. को हुआ था। तिथि अनुसार महाराणाप्रताप का जन्म दिन ज्येष्ठ माह शुल्क पक्ष की तृतीया तिथि को माना जाता है।रानी जीवत कँवर का नाम कहीं-कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है। वे पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं। प्रताप का बचपन का नाम 'कीका' था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे। स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर थे। बड़ा होने पर वे एक महापराक्रमी पुरुष बनेंगे, यह सभी जानते थे। सर्वसाधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी।

महाराणा प्रताप और चेतक

भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता 'चेतक की वीरता' में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ़ की गई है।हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।

महाराणा प्रताप को चेतक की प्राप्ति

जब राणा प्रताप किशोर अवस्था में थे, तब एक बार राणा उदयसिंह ने उनको राजमहल में बुलाया और दो घोड़ों में से एक का चयन करने के लिए कहा। एक घोड़ा सफ़ेद था और दूसरा नीला। जैसे ही प्रताप ने कुछ कहा, उसके पहले ही उनके भाई शक्तिसिंह ने पिता से कहा कि उसे भी एक घोड़ा चाहिए। प्रताप को नील अफ़ग़ानी घोड़ा पसंद था। लेकिन वे सफ़ेद घोड़े की ओर बढ़ते हैं और उसकी तारीफ़ करते जाते हैं। उन्हें सफ़ेद घोड़े की ओर बढ़ते हुए देख कर शक्तिसिंह तेज़ी से घोड़े की ओर जाकर उसकी सवारी कर लेते हैं। उनकी यह शीघ्रता देखकर उदयसिंह वह सफ़ेद घोड़ा शक्तिसिंह को दे देते हैं और नील अफ़ग़ानी घोड़ा प्रताप को मिल जाता है। इसी नीले घोड़े का नाम 'चेतक' था, जो महाराणा प्रताप को बहुत प्रिय था।

महाराणा प्रताप का हाथी

आप सब ने महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक के बारे में तो सुना ही होगा। लेकिन उनका एक हाथी भी था। जिसका नाम था रामप्रसाद। उसके बारे में आपको कुछ बाते बताता हुँ।

रामप्रसाद हाथी का उल्लेख अल- बदायुनी, जो मुगलों की ओर से हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ा था ने अपने एक ग्रन्थ में किया है।

वो लिखता है की जब महाराणा प्रताप पर अकबर ने चढाई की थी तब उसने दो चीजो को ही बंदी बनाने की मांग की थी एक तो खुद महाराणा और दूसरा उनका हाथी रामप्रसाद। आगे अल बदायुनी लिखता है कि वो हाथी इतना समझदार व ताकतवर था कि उसने हल्दीघाटी के युद्ध में अकेले ही अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था। वो आगे लिखता है कि उस हाथी को पकड़ने के लिए हमने 7 बड़े हाथियों का एक चक्रव्यूह बनाया और उन पर 14 महावतो को बिठाया तब कहीं जाकर उसे बंदी बना पाये। उस हाथी को अकबर के समक्ष पेश किया गया जहा अकबर ने उसका नाम पीरप्रसाद रखा। रामप्रसाद को मुगलों ने गन्ने और पानी दिया। पर उस स्वामिभक्त हाथी ने 18 दिन तक मुगलों का न तो दाना खाया और न ही पानी पिया और वो शहीद हो गया। तब अकबर ने कहा था कि जिसके हाथी को मैं अपने सामने नहीं झुका पाया उस महाराणा प्रताप को क्या झुका पाउँगा। ऐसे ऐसे देशभक्त चेतक व रामप्रसाद जैसे तो यहाँ जानवर थे।

महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक

प्रताप सिंह के काल में दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था हिन्दू राजाओं की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह मुग़लों की नीति थी। अपनी मृत्यु से पहले राणा उदयसिंह ने अपनी सबसे छोटी पत्नी के बेटे जगमल को राजा घोषित किया, जबकि प्रताप सिंह जगमल से बड़े थे। प्रताप सिंह अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़कर मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, किंतु सभी सरदार राजा के निर्णय से सहमत नहीं हुए। अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना पड़ेगा। प्रताप सिंह ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रकार बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का यह पावन पौत्र (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) तारीख़ 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन हुआ।

हल्दीघाटी का युद्ध

मुग़ल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। 'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये, किंतु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की। युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी।

कठोर जीवन यापन

महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए थे। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थी। और शिला ही शैय्या थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था। उससे भी अधिक वह केवल यह चाहता था कि प्रताप मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें और उसका दम्भ सफल हो जाये। हिन्दुत्व पर 'दीन-ए-इलाही' स्वयं विजय प्राप्त कर ले। राजपूती आन-बान-शान के प्रतीक राणा प्रताप, हिन्दुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग और तप में भी अम्लान रहा, अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है।

चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर भट्ट कवियों ने उसको आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा दी है। प्रताप ने अपनी जन्मभूमि की इस दशा को देखकर सब प्रकार के भोग-विलास को त्याग दिया था। भोजन-पान के समय काम में लिये जाने वाले सोने-चाँदी के बर्तनों को त्यागकर वृक्षों के पत्तों को काम में लिया जाने लगा। कोमल शैय्या को छोड़ तृण शैय्या का उपयोग किया जाने लगा। उन्होंने अकेले इस कठिन मार्ग को अपनाया ही नहीं अपितु अपने वंश वालों के लिये भी इस कठोर नियम का पालन करने के लिये आज्ञा दी थी कि- "जब तक चित्तौड़ का उद्धार न हो, तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।" चित्तौड़ की मौजूदा दुर्दशा सभी लोगों के हृदय में अंकित हो जाय, इस दृष्टि से प्रताप ने यह आदेश भी दिया कि- "युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे-आगे बजाये जाते थे, वे अब सेना के पीछे बजाये जायें।" इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है और युद्ध के नगाड़े सेना के पिछले भाग के साथ ही चलते हैं।

शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा

चेतक नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी- "हो, नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उनका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए।

जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहे थे, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था।

प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम (जहाँगीर) को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, "मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।" सलीम ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा दिया।

राणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उन्हें अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा।

संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव वीरगति को प्राप्त हुए। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया।

महाराणा की प्रतिज्ञा

महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि- "वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे।" इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमर का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था। इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। "चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।" महाराणा की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही।

महाराणाप्रताप एक अद्वितीय वीर योद्धा

बहलोल खान अकबर का बड़ा सिपहसालार था,, हाथी जैसा भारी भरकम शरीर , और लम्बाई लगभग 7 फिट 8 इंच ,, क्रूर तो ऐसा था कि,, नवजात बालकों को भी अपने हाथ में लेकर उनका गला रेत देता था,, यदि बालक हिन्दुओं के हों तो वीर महाराणा प्रताप से युद्ध करने कोई जाना नहीं चाहता था,, क्योंकि उनके सामने युद्ध के लिये जाना मतलब अपनी मौत का चुनाव करना ही था।

अकबर ने दरबार में राणा को समाप्त करने के लिये बहलोल खाँ को चुना,, बहलोल खाँ यद्यपि अकबर के दरबार का सबसे हिम्मत वाला व्यक्ति माना जाता था।किन्तु वह भी महाराणा के समक्ष जाने से भय खाता था उसके मन में महाराणा का ऐसा भय था कि वह घर गया ,और अपनी सारी बेगमों की हत्या कर दी। पता नहीं वापस लौटूं न लौटूं ? इन्हे कोई दूसरे अपनी बेगमें बना लेंगे बस इसी भय के कारण उसने सबको मार डाला। और आ गया मेवाड़ में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जी के समक्ष,,आखिर सामना हो ही गया उसका , उसकी मृत्यु से। अफीम के खुमार मे डूबी हुई सुर्ख नशेड़ी आंखों से भगवा अग्नि की लपट से प्रदीप्त रण के मद में डूबी आंखें टकराईं और जबरदस्त भिड़ंत शुरू हो गई। एक क्षण तलवार से तलवार टकराईं और राणा की विजय ध्वनि बहलोल खाँ को भी प्रतीत होने लगी।

दूसरे ही क्षण वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की तलवार नें बहलोल खाँ को उसके शिरस्त्राण, बख्तरबंद, घोड़ा उसके रक्षा कवच सहित दो टुकड़ों में चीर कर रख दिया।7फिट 8 इंच का विशाल शरीर वाला पिशाच बहलोल खाँ का शरीर आधा इस तरफ आधा उस तरफ अलग अलग होकर गिर पड़ा। ऐसे महावीर थे वीर महाराणा।

अकबर द्वारा प्रशंसा

एक गुप्तचर किसी तरक़ीब से उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ राणा प्रताप और उनके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। खाने में जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं। परन्तु सभी लोग उस खाने को उसी उत्साह के साथ खा रहे थे, जिस प्रकार कोई राजभवन में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्तचर ने किसी के चेहरे पर उदासी और चिन्ता नहीं देखी। उसने वापस आकर अकबर को पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और प्रताप के प्रति उसमें मानवीय भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की। अकबर के विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा-

"इस संसार में सभी नाशवान हैं। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परन्तु महान् व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। पुत्तों ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परन्तु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है, जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।"

महाराणाप्रताप की मृत्यु

ऐसे में ही एक दिन प्रताप एक साधारण कुटी में लेटे हुए काल की कठोर आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चारों तरफ़ उनके विश्वासी सरदार बैठे हुए थे। तभी प्रताप ने एक लम्बी साँस ली। सलूम्बर के सामंन्त ने कातर होकर पूछा- "महाराज! ऐसे कौन से दारुण दुःख ने आपको दुःखित कर रखा है और अन्तिम समय में आपकी शान्ति को भंग कर रहा है।" प्रताप का उत्तर था- "सरदार जी! अभी तक प्राण अटके हुए हैं, केवल एक ही आश्वासन की वाणी सुनकर यह अभी सुखपूर्वक देह को छोड़ जायेगा। यह वाणी आप ही के पास है। आप सब लोग मेरे सम्मुख प्रतिज्ञा करें कि जीवित रहते अपनी मातृभूमि किसी भी भाँति तुर्कों के हाथों में नहीं सौंपेंगे। पुत्र राणा अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा। वह मुग़लों के ग्रास से मातृभूमि को नहीं बचा सकेगा। वह विलासी है, वह कष्ट नहीं झेल सकेगा।"

आंत की बीमारी के चलते महाराणा प्रताप की मृत्यु 19 जनवरी, 1597 ई को हो गयी। इसके साथ ही माँ भारती के एक परामयोद्धा सपूत की अमर यादे ही इतिहास के पन्नो पर रह गयी।

Akshita Pidiha

Akshita Pidiha

Next Story