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महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मराठा आरक्षण की राजनीति
प्रमोद भार्गव
महाराट्र सरकार ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को मंजूर करते हुए मराठा समुदाय को नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने का फैसला लिया है। आयोग की सिफारिश के मुताबिक मराठों को आरक्षण की नई श्रेणी ‘सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा वर्ग’ के तहत आरक्षण दिया जाएगा। मराठा समाज की यह मांग 1980 से लंबित है। 2014 में महाराष्ट्र विधानसभा से इस समुदाय को 16 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान पहली बार किया गया था। किंतु मुंबई उच्च न्यायालय ने इस व्यवस्था को गैर संवैधानिक मानते हुए, इसके अमल पर रोक लगा दी थी। इसके बाद आरक्षण की मांग नियमित उठती रही। 2016 में इस आंदोलन ने आक्रोश का रूप भी लिया। अब आयोग ने 25 विभिन्न बिंदुओं के आधार पर इस समुदाय को कमजोर मानते हुए 16 प्रतिशत आरक्षण देने की हरी झंडी दिखा दी। इन्हें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक आधार पर पिछड़ा मना गया है। फिलहाल महाराष्ट्र में 52 प्रतिशत आरक्षण है, जो अब बढक़र 68 प्रतिशत हो जाएगा।
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस को यह बड़ी राहत है। आयोग की स्वीकृति को चुनौती देना आसान नहीं होगा, क्योंकि उसे लोकसभा के पिछले सत्र में संवैधानिक दर्जा मिल चुका हैं। लेकिन सरकार 16 प्रतिशत आरक्षण कैसे देगी यह विवाद का पहलू बन सकता है। अगर सरकार मौजूदा आरक्षण कोटे के भीतर इसे स्थान देती है तो लाभ प्राप्त कर रहीं अन्य जातियां भडक़ सकती हैं और यदि इसे सीधे लागू किया जाता है तो आरक्षण का लाभ 52 प्रतिशत से बढक़र 68 हो जाएगा, जो सर्वोच्च न्यायालय की गाइड लाइन के विरुद्ध होगा। अगर आरक्षण मिल जाता है तो जातीय आधार पर जो जातियां राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और आंध्रप्रदेश में आरक्षण के लिए उग्र व हिंसक प्रदर्शन कर चुकी हैं, वे फिर से इस मांग को लेकर आंदोलित होने लग जाएंगी।
इस आरक्षण को देने के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग ने मराठा समुदाय की सभी जातियों और उपजातियों से विचार विमर्श किया। समाज के 98 फीसदी लोगों से राय ली गई। 43,600 से भी ज्यादा परिवारों का सर्वेक्षण किया गया। इससे पता चला कि मराठा समुदायों के 37 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने को विवश हैं। 70 प्रतिशत परिवार कच्चे मकानों में रहते हैं और 63 प्रतिशत परिवार लघु कृषक हैं। 53 प्रतिशत परिवारों के पास फ्रिज, वाशिंग मशीन और कंप्यूटर नहीं हैं, 43 प्रतिशत परिवार के पास टीवी नहीं हैं। 22 फीसदी परिवारों की वार्षिक आय 24000 से भी कम है। 51 प्रतिशत परिवारों की सालाना आमदनी 24 से 50 हजार के बीच है। 19 फीसदी परिवारों की आमदनी 50 हजार से 1 लाख के बीच है। आठ फीसदी परिवारों की आय 1 लाख से 4 लाख रुपए वार्षिक और महज 0.5 फीसदी परिवारों की सालाना आमदनी 4 लाख रुपए से अधिक है। महाराष्ट्र में मराठा, उत्तर भारत के क्षत्रियों की तरह उच्च सवर्ण और सक्षम भाषाई समूह है। आजादी से पहले शासक और फिर सेना में इस कौम का मजबूत दखल रहा है। आजादी की लड़ाई में मराठा, पेशवा, होल्कर और गायकवाड़ों की अहम भूमिका रही है। स्वतंत्र भारत में यह जुझारू कौम आर्थिक व समाजिक क्षेत्र में इतनी क्यों पिछड़ गई कि इसे आरक्षण के बहाने सरंक्षण की जरूरत पड़ गई, यह राजनेताओं और समाज विज्ञानियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
दरअसल किसी भी समाज की व्यापक उपराष्ट्रीयता धर्म, भाषा और कई जातीय समूहों की पहचान से जुड़ी होती है। भारत ही नहीं, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में उपराष्ट्रीयताएं अनंतकाल से वर्चस्व में हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि भारत एक साथ सांस्कृतिक भाषाई और भौगोलिक विविधताओं वाला देश है। इसीलिए हमारे देश के साथ ‘अनेकता में एकता’ का संज्ञा सूचक शब्द जुड़ा है। एक क्षेत्र विशेष में रहने के कारण एक विशेष तरह की संस्कृति विकसित हो जाती है। जब इस एक प्रकार की जीवन शैली के लोग इलाका विशेष में बहुसंख्यक हो जाते हैं तो यह एक उपराष्ट्रीयता का हिस्सा बन जाती है। मराठे, बंगाली, पंजाबी, मारवाड़ी, बोड़ो, नगा और कश्मीरी ऐसी ही उपराष्ट्रीयताओं के समूह हैं।
एक समय ऐसा भी आता है, जब हम अपनी-अपनी उपराष्ट्रीयता पर गर्व, दुराग्रह की हद तक करने लग जाते हैं। जम्मू-कश्मीर और पंजाब के अलगाववादी आंदोलन, शुरुआत में उपराष्ट्रीयता को ही केंद्र में रखकर चले, किंतु बाद में सांप्रदायिकता के दुराग्रह में बदलकर आतंकवादी जमातों का हिस्सा बन गए। इन्हीं उपराष्ट्रीयताओं के हल हमारे पूर्वजों ने भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण करके किए थे। महाराष्ट्र में मराठों को आधार बनाकर आरक्षण का जो प्रावधान किया जा रहा है, उससे अब तमाम सुप्त पड़ी उपराष्ट्रीयताएं जाग जाएंगी। गुजरात में पटेल, हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर और आंध्रप्रदेश में कापू समाज का आरक्षण के लिए आगे आना तय है।
हमारा संविधान भले ही जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर वर्गभेद नहीं करता, लेकिन आज इन्हीं सनातन मूल्यों को आरक्षण का आधार बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। आजादी के बाद जब संविधान अस्तित्व में आया तो, अनुसूचित जाति और जनजातियों के सामाजिक और उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा दी गई थी। 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए ओबीसी आरक्षण का प्रावधान किया था। आजादी के 70 साल बाद भी ये जातियां समग्र रूप में न तो अपने बुनियादी उद्देश्य में सफल हुईं और न ही व्यापक सामाजिक हित साधने में कामयाब रहीं। इसके उलट एक ही वर्ग में आर्थिक और सामाजिक विसंगति बढ़ गई, जो ईष्र्या और विद्वेष का कारण बन रहे हैं।
एक समय आरक्षण का सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था, लेकिन सभी जाति व वर्गों के लोगों द्वारा शिक्षा हासिल कर लेने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक गए औजार से संभव नहीं है। लिहाजा सत्तारूढ़ दल अब सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों के समाधान आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाय रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालेंगे तो बेहतर होगा। यदि वोट की राजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण के लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उनका समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं हो पाया है।
भूमण्डलीकरण के दौर में खाद्य सामग्री की उपलब्धता से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उन्हें हासिल करना इसलिए और कठिन हो गया है, क्योंकि अब इन्हें केवल पूंजी और अंग्रेजी शिक्षा से ही हासिल किया जा सकता है। ऐसे में आरक्षण लाभ के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अर्थाभाव में जरूरी योग्यता और अंग्रेजी ज्ञान हासिल न कर पाने के कारण हाशिये पर उपेक्षित पड़े हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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