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बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज

raghvendra
Published on: 15 Feb 2019 4:02 PM IST
बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज
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डॉ. नीलम महेंद्र

वैलेंटाइन डे फिर आया और चला गया। कुछ सालों पहले तक इस बारे में हमारे देश में बहुत ही कम लोग जानते थे। अगर आप सोच रहे हैं कि केवल इसे चाहने वाला युवा वर्ग ही इस दिन का इंतजार विशेष रूप से करता है तो आप गलत हैं। आज के भौतिकवादी युग में जब हर मौके और हर भावना का बाजारीकरण हो गया हो, ऐसे दौर में गिफ्ट्स, टेडी बियर, चॉकलेट और फूलों का बाजार भी इस दिन का इंतजार उतनी ही व्याकुलता से करता है।

आज प्रेम आपके दिल और उसकी भावनाओं तक सीमित रहने वाला केवल आपका एक निजी मामला नहीं रह गया है। उपभोक्तावाद और बाजारवाद के इस दौर में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही बाजारवाद का शिकार हो गए हैं। आज प्रेम छुप कर करने वाली चीज नहीं है, फेसबुक इंस्टाग्राम पर शेयर करने वाली चीज है। आज प्यार वो नहीं है जो निस्वार्थ होता है और बदले में कुछ नहीं चाहता बल्कि आज प्यार वो है जो त्याग नहीं अधिकार मांगता है क्योंकि आज मल्टीनेशनल कंपनियां बड़ी चालाकी से हमें यह समझाने में सफल हो गई हैं कि प्रेम को तो महंगे उपहार देकर जताया जाता है। वे हमें करोड़ों के विज्ञापनों से यह बात समझा कर अरबों कमाने में कामयाब हो गई हैं कि अगर आप किसी से प्रेम करते हैं तो जताइए। यह वाकई में खेद का विषय है कि राधा और मीरा के देश में जहां प्रेम की परिभाषा एक अलौकिक एहसास के साथ शुरू होकर समर्पण और भक्ति पर खत्म होती थी आज उस देश में प्रेम की अभिव्यक्ति तोहफों और बाजारवाद की मोहताज होकर गई है।

उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक समाज के रूप में पश्चिमी अंधानुकरण के चलते हम विषय की गहराई में उतर कर चीजों को समझकर उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता नहीं देखते।

सामाजिक परिपक्वता दिखाने की बजाय कथित आधुनिकता के नाम पर बाजारवाद का शिकार होकर अपनी मानसिक गुलामी ही प्रदर्शित करते हैं। अब प्रश्न यह है कि हमारे देश में जहां की संस्कृति में विवाह हमारे जीवन का एक अहम संस्कार है उस देश में ऐसे दिन को त्यौहार के रूप में मनाने का क्या औचित्य है जिसके मूल में विवाह नामक संस्था का ही विरोध हो? क्योंकि भारत में विवाह का कभी भी विरोध नहीं किया गया बल्कि यह तो खुद ही पांच-छह दिनों तक चलने वाला दो परिवारों का सामाजिक उत्सव है। किसी भी त्योहार को मनाने या किसी संस्कृति को अपनाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमें किसी भी कार्य को करने से पहले इतना तो विचार कर ही लेना चाहिए कि इसका औचित्य क्या है ? भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश को प्यार जताने के लिए विदेश से किसी दिन को आयात करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह तो त्योहारों का वो देश है जो मानवीय संबंधों ही नहीं बल्कि प्रकृति के साथ भी अपने प्रेम और कृतज्ञता को अनेक त्योहारों के माध्यम से प्रकट करता है।

इसके बावजूद अगर आज भारत जैसे देश में वसंतोत्सव की जगह वैलेंटाइन डे ने ले ली है तो कारण तो एक समाज के रूप में हमें ही खोजने होंगे। यह तो हमें ही समझना होगा कि हम केवल वसंतोत्सव से नहीं प्रकृति से भी दूर हो गए। केवल प्रकृति ही नहीं अपनी संस्कृति से भी दूर हो गए। हमने केवल वैलेंटाइन डे नहीं अपनाया बल्कि बाजारवाद और उपभोगतावाद भी अपना लिया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हम मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन कर खुद अपनी संस्कृति के विनाशक बन जाते हैं जब हम अपने देश के त्योहारों को छोडक़र प्यार जताने के लिए वैलेंटाइन डे जैसे दिन को मनाते हैं।

(लेखिका साहित्यकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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