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Motivation: उपदेश के बिजनेस में आप हैं एक कमोडिटी

Motivation: कुछ मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में, कुछ संत महंत के रूप में, कुछ टीचर के रूप में और कुछ चौर्य ज्ञानी के रूप में। किसी भी दिन सोशल मीडिया को खंगाल डालिये तो ऐसा लगता है समाज कितना सुधर गया है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 30 May 2022 9:04 AM IST (Updated on: 30 May 2022 12:28 PM IST)
Motivation: उपदेश के बिजनेस में आप हैं एक कमोडिटी
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Motivation उपदेश के बिजनेस में आप हैं एक कमोडिटी

Motivation Thoughts Yogesh Mishra: इन दिनों आपको सोशल मीडिया पर तमाम उपदेशक नज़र आते होंगे। कुछ मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में, कुछ संत महंत के रूप में, कुछ टीचर के रूप में और कुछ चौर्य ज्ञानी के रूप में। किसी भी दिन सोशल मीडिया को खंगाल डालिये तो ऐसा लगता है समाज कितना सुधर गया है। आप खुद को बिगड़े हुए मान बैठेंगे। आप एकदम अकेले पड़ जायेंगे। ये सभी तरह के उपदेशक बेहतर जीवन के बहुत से गुण सूत्र बताते मिलते हैं। सुखी जीवन के पाठ पढ़ाते मिलेंगे।

लेकिन ये जान लीजिए कि इनकी पूरी क़वायद का मतलब केवल अपने लाइक, कमेंट, ट्विट, रिट्वीट व फ़ालोअर बढ़ाना होता है। आपको लग सकता है कि ये कितने महान, कितने ज्ञानी हैं। इनकी इतनी फैंन फालोइंग है, ये भला ऐसा क्यों करेंगे। सही यह है कि ऐसी शख़्सियतों को ऐसा करना ही नहीं चाहिए ।

पर पहले इनकी हक़ीक़त समझने की कोशिश करें कि वे हमसे आपसे कहते हैं - माया से दूर रहें। पर खुद इनके इर्द गिर्द इकट्ठी माया व कंचन देखें लें तो बस दिमाग़ बौरा जायेगा। बाप रे बाप, कह उठेगें। कंचन, काया व माया का ऐसा अद्भुत संयोग आपने शायद ही देखा होगा। ऐसा महज़ इसलिए क्योंकि हमने अनजान और नए मानदंड वाले युग में प्रवेश किया है। तभी तो हम किसी से जुड़ते हैं तो केवल यह देखते हैं कि हमारा कौन कितना फ़ायदा कर सकता है। लेकिन कौन कितना नुक़सान कर सकता है, यह नहीं देखते हैं। जबकि यह देखना चाहिए।

समाज में अर्थ के कई स्तर

महादेवी वर्मा कह गई हैं- "स्वार्थमय सबको बनाया है करतार ने।" हमारे समाज के नव उदारवादी मार्केट का अंतस स्वार्थमय है। वही स्वार्थ हमारा गला घोंट रहा है, जबकि हम सोचते हैं कि हम बाज़ार से प्राप्त वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं। पर हो ठीक उल्टा रहा है। क्योंकि स्वार्थ का स्तर पेड़ से फल लेने तक ही सीमित नहीं है। अब तो स्वार्थ का स्तर लकड़ी लेने और पेड़ को गिराने के बाद ख़ाली होने वाली ज़मीन हथियाने से भी आगे निकल चुका है।

पहले पल दो पल जीवन के लिए केवल दो नियम बनाये गये थे - निखरो फूलों की तरह, बिखरो खुशबू की तरह। पर अब जब ज़िंदगी पल भर की रह गयी है तब हमने "हथियाओ किसी आक्रमणकारी की तरह" के नियम पर काम शुरू कर दिया है। पश्चिम समुन्नत है। हमारा समाज विकास कर रहा है।

समाज में अर्थ के कई स्तर बन रहे हैं। हम संसाधन पाकर होना चाहते हैं संतुष्ट। हमने जीवन में आनंद को जगह देना बंद कर दिया है। हमने केवल सुख को जीवन में जगह व ज़मीन दी है। हम यह भूल बैठे हैं कि सुख का सीधा रिश्ता भौतिकता से है। एसी ख़रीद लीजिये, गर्मी में ठंडक सा सुख लीजिये। आदि इत्यादि। पर आनंद का रिश्ता भाव से है। एसी तन को शीतलता देगा परंतु मन को शीतलता भला कहाँ और कैसे मिलेगी?

जितने भी संत महंत व मोटिवेशनल स्पीकर हैं सब के सब की कोशिश केवल जीवन को सुखी बनाने की हैं। इसके लिए वे हमको आप को समझाते हैं कि अच्छा सोचो, अच्छा होगा। पर उनसे ये भी तो पूछो कि उनके पास कितने दशकों का राशन, यात्रा व दवा पर होने वाले खर्चें आदि की व्यवस्था है। कितनी गाड़ियाँ हैं। क्या खाते व क्या पहनते हैं? कितने दशकों तक के लिए उन्होंने अपनी मुक्कमल व्यवस्था कर रखी है?

सोचने से सब अच्छा होता है

फिर भी कोई सामान बेचकर झोली भर रहा है। कोई कार रैली में शामिल होने की फ़ीस माँग रहा है। कोई दूसरे तमाम जुगाड़ों से अपने आर्थिक हैसियत में इज़ाफ़ा करता दिख रहा है, पर हमको आपको शिक्षा दीक्षा दूसरी दे रहा है। कह रहा है - माया से रहो दूर। वह यह नहीं सोच पा रहा है कि जिसके घर शाम का चूल्हा जलने की व्यवस्था नहीं है, जिसकी तबीयत ख़राब है, जिसके बच्चे का नाम स्कूल से फ़ीस न दे पाने के कारण कट गया है, जिसके माता पिता उसे अनाथ छोड़ गये हैं, जिसके पास अस्पताल के बिल भरने के पैसे नहीं हैं, ऐसी अनगिनत समस्याओं के चक्रव्यूह में जो फँसा है, वह अच्छा कैसे सोच सकता है? इसी तरह की तमाम समस्याओं से देश की बहुत बड़ी आबादी जूझ रही है, पर ये लोग तो ज्ञान देने के धंधे से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं हैं।

मेरी एक दोस्त मुंबई में रहती है, उनसे अक्सर बातें होती रहती हैं। कई बार की बातचीत में हमने कहा कि मूड अच्छा नहीं है। परेशानी बहुत है। हमने यह भी कहा कि पिताजी व माताजी के अलावा कोई फ़ोन हाल-चाल लेने के लिए कभी नहीं आया। सारे फ़ोन कामकाज के लिए आये। आते हैं। अब माता पिता जी के न रहने के बाद लगता है कोई हाल-चाल पूछता? उन्होंने हमें एक दिन सदगुरू व शिवानी के दो वीडियो क्लिपिंग सुनने को भेजी। सदगुरू की क्लिप थी - Manifest whatever you want जबकि शिवानी की क्लिप थी - Affirmation to Attract what you want।

शिवानी बता रही थीं कि आपको हाई ब्लड प्रेशर हो, हाई शुगर हो और बार बार आप यही दोहराते रहेंगे तो अच्छा नहीं है।यदि इस भाव के साथ आपने खाना बनाया तो खाने में निगेटिव एनर्जी मिलेगी। आप अच्छा सोचिये। सोचने से सब अच्छा होता है।

भला यह कैसे हो सकता है? विज्ञान व मनोविज्ञान के सिद्धांत के खिलाफ कैसे कुछ किया जा सकता है, कैसे करते रहा जा सकता है? जब आपका ब्लड प्रेशर बढ़ा होगा, शुगर बढ़ा होगा, चोट लगी होगी, कहीं दर्द हो रहा होगा तब पॉज़िटिव थिंकिंग कैसे होगी? जो डिप्रेस होगा। परेशान होगा। वह वही तो सोचेगा। यही सोचेगा तभी इन हालतों से निकल पायेगा। बेसिक जरूरतों में उलझा इंसान भला कैसे मोटीवेट होगा?

संकल्प से सृष्टि बनती है

इन उपदेशकों के उपदेश कैसे कैसे होते हैं। ये कहते मिल जायेंगे-इंसान अपनी कमाई के हिसाब से नहीं, अपनी ज़रूरत के हिसाब से गरीब होता है। ज़िंदगी बहुत निगेटिव हालात में गुजर रही हो और आप पॉज़िटिव सोचें। भला यह संभव है क्या? डॉक्टर से पूछिये, मनोवैज्ञानिक से पूछिये, समाजशास्त्री से पूछिये - कहेगा नहीं, बिलकुल नहीं।

पर चाक चिक्य में लिपटे नये उपदेशक कहेंगे - हाँ। आपके शरीर का सबसे सुंदर हिस्सा आपका मुँह होता है, क्यों? क्योंकि आप मुँह का सबसे ज़्यादा ख़्याल रखते हैं। कोई चोट महज़ इसलिए नहीं ठीक हो जाती है कि आपने दवा खा ली। बल्कि आपने उस पर ध्यान दिया, उसे देखा, उसे निरखा। जब आप सोचेंगे ही नहीं तो उबरेंगे कैसे?

ये उपदेशक बताते हैं,"संकल्प से सृष्टि बनती है।" जबकि सच यह है कि संकल्प से काफ़ी पहले सृष्टि बन चुकी होती है। सृष्टि के बाद ही आदमी या प्राणी आता है। संकल्प सृष्टि में केवल एक एलीमेन्ट होता है। संकल्प से सिद्धी भी नहीं होती। सिद्धी भाग्य से होती है। नियति से होती है। कहा गया है कि समय से पहले और क़िस्मत से ज़्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता। भारत भाग्य का देश है। यह मानता हर कोई है। पर बताता नहीं है। ताकि आप उस पर अमल न कर बैठें। यदि आपने अमल किया तो उनकी दुकान बंद समझो। कोई अपना शटर क्यों गिरायेगा? सोचिए जरा।

दूसरे संत, ईशा फ़ाउंडेशन के सद्गुरू हैं, वह कहते हैं आपने इस प्लेनेट सब कुछ क्रियेट किया है। मतलब यही हुआ कि पानी, हवा, जीवन, आत्मा, परमात्मा सब आपने बनाया है। यह कैसे हो सकता है? बाबा अपने वीडियो में आभासी दुनिया के फूलों में विचरण करते दिखते हैं।

वह समझाते हैं कि भौतिक शरीर, आपका मन, आपकी भावना और मौलिक जीवन एक साथ नियंत्रण में हो जाये या शारीरिक क्रिया, भावनात्मक क्रिया, मानसिक क्रिया और ऊर्जा क्रियायें नियंत्रित कर आप उसे एक डायरेक्शन में चला सकें तो आप कल्पवृक्ष बन सकते हैं। जबकि हमारे यहाँ कहा गया है कि इसके लिए जितेंद्रिय होना पड़ेगा। ये इंद्रियों की बात करते ही नहीं है। क्योंकि इनकी खुद की इंद्रियाँ इनके ही वश में नहीं हैं।

पर हमने अपने मुंबई वाली मित्र से कहा कि ये लोग "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" वाली कोटि के हैं। पहले यह देखना ज़रूरी है कि ये उपदेशक जो कुछ कह रहे हैं, वह कहने के अधिकारी ये हैं भी या नहीं। हमने अपने दोस्त को महात्मा गांधी की गुड़ खाने व गुड छोड़ने की नसीहत देने वाला प्रसंग भी सुनाया। पर उन्हें हमारी बात इतनी बुरी लगी कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि मैं तो आपको लाइक माइंडेड समझती थी। अब आप से ऐसे विषयों पर बात नहीं करूँगी। यहाँ बात ख़त्म हो जाती तो कुछ नहीं । पर तीन चार दिन उनने बड़े सरकास्टिक ढंग ये मेरा हालचाल पूछा।

अपने पर अमल करना

तिरस्कार यदि बार बार अपनों से मिले, तो शब्दों का विवाद उचित नहीं क्योंकि जो व्यक्ति आपके महत्त्व को ही नहीं समझा, वह आपके शब्दों और भावनाओं को क्या ख़ाक समझेगा। जिसका बार बार तिरस्कार होता है उसका एक दिन सत्कार होता है और कुण्ठा का घर अवहेलना की नींव पर खड़ा होता है।

मैं केवल यह बताना चाह रहा था कि किसी भी उपदेश देने ने पहले आदमी को अपने पर अमल करना चाहिए। जो कार्य व्यवहार व उपदेश में अलग अलग हो उसकी अनसुनी कर देना चाहिए। पर सत्य परेशान होता है। पराजित नहीं होता। मुझे इसका शिकार होना पड़ा।

भारत महापुरुषों का देश है। हमारे जितने संत, महंत, दिव्य पुरुष, गुरू या भगवान वही रहे हैं, जिन्होंने त्यागा है। भगवान राम ने अयोध्या का राजपाट त्यागा। भगवान शंकर ने ज़िंदगी के सारे सुख त्यागे। बुद्ध व महावीर ने राजपाट त्यागा। कौटिल्य - चाणक्य ने राजा द्वारा मिलने वाले सुख त्यागे। पर ये उपदेशक त्यागने का केवल संदेश हमको आपको दे रहे हैं।

वे उपदेशक जिन्होंने कुछ त्यागा नहीं, बल्कि खुद तो भर रहे हैं। इकट्ठा कर रहे हैं। यदि हम त्यागने को तैयार हो जायें तो इन उपदेशकों से हम बड़े हो जाते हैं। पर ये होने नहीं देंगे। तभी तो हम सब को ये माया मिली न राम वाली श्रेणी में रख छोड़ना चाहते हैं। ये समाज के बिजूका हैं। इन्हें हक़ीक़त मानने की गलती न करें।

करीब आने से चलता है शख्सियत का पता, जमीं से तो चांद भी छोटा सा दिखाई देता है। लक्ष्य के बिना जीवन बिना पता लिखे लिफाफे की तरह है, जो कभी किसी मुकाम पर नहीं पहुंचता। इन उपदेशकों को मॉनसून की कोटि में रखें। यानी न इनकी की मान और न इनकी सुन। विचार मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र भी है। विचार ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु भी है। यह आपका पंचनामा है कि कि ये किस कोटि के विचार को बाँट रहे हैं।

दूसरे लोगों से हमारा यही अंतर होना चाहिए कि उन्होंने शरीर को साध्य माना है। पर हमने उसे साधन समझा है। जितनी भौतिक आवश्यकताएं हैं, उसकी पूर्ति का महत्व हमने स्वीकार किया है, पर उन्हें सर्वस्व नहीं माना है।

किसी आलोचना से आप खुद के अहंकार को कुछ समय के लिए तो संतुष्ट कर सकते हैं। किन्तु उसकी काबिलियत, नेकी, अच्छाई और सच्चाई की संपदा को नष्ट नहीं कर सकते। हर समस्या के दो समाधान होते हैं - भाग लो (Run Away) या भाग लो (Participate)। ये लोग "रन अवे" वाले भाग लो की तालीम देते हैं।

बहुत मुश्किल नहीं जिन्दगी की सच्चाई समझना, जिस तराजू पर दूसरों को तौलते हैं, उस पर कभी खुद बैठ के देखिए। ज़िंदगी सड़क की तरह है, यह कभी भी सीधी नहीं होती, कुछ दूर बाद मोड़ अवश्य आता है। इसलिए धैर्य के साथ चलते रहिए, आपकी ज़िंदगी का सुखद मोड़ आपका इंतज़ार कर रहा है। पर किसी उपदेशक के भरोसे नहीं।

खुद को केवल हवा, पानी व प्रकृति के भरोसे छोड़ने महज़ से। आपको सिर्फ एक ग्राहक समझने वाले मोटिवेशनल वक्ताओं से खुद को दूर ही रखिये। इनकी हवाई बातें ठीक उसी तरह लीजिये जिस तरह आप रोजाना व्हाट्सप और फेसबुक पर आने वाले अनगिनत मोटिवेशनल कोट्स को बिना पढ़े डिलीट कर देते हैं।

(लेखक पत्रकार हैं ।)

Vidushi Mishra

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