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Inspiring Stories: जिंदगी विदाउट फिल्टर्स

Inspiring Stories: हम क्यों इमेज बनाने में इतना सतर्क हैं कि हम उसके लिए दूसरों को नुकसान पहुंचाने से भी नहीं डरते? हम क्यों इमेज को बनाए रखने के लिए इतना सतर्क है कि हमने अपने चारों ओर एक झूठ की दुनिया गढ़ ली है, जिसके अंदर पैर रखने वाला हमें अपना दुश्मन लगता है।

Anshu Sarda Anvi
Written By Anshu Sarda Anvi
Published on: 25 Dec 2023 9:19 PM IST
Life without filters
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जिंदगी विदाउट फिल्टर्स: Photo- Social Media

Inspiring Stories: इसी साल जुलाई में ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हुई फिल्म 'बवाल' कोई बहुत बवाल तो नहीं मचा सकी पर एक विषय जरूर दे गई सोचने के लिए। अज्जू भैया जो की फिल्म का मुख्य नायक है अपनी इमेज के प्रति इतना सचेत है, सतर्क है कि उसे दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा अपनी इमेज की चिंता रहती है। यह इमेज के बिगड़ने बनने का डर ही था उसके अंदर जो वह अपनी पत्नी निशा को घर से बाहर कहीं भी साथ नहीं लेकर जाता था । क्योंकि उसने एक बार उसे मिर्गी का दौरा पड़ते हुए देख लिया था। इससे उसकी बनी- बनाई इमेज को नुकसान पहुंचेगा। फिल्म क्या रही, कैसी रही, किसने कैसा अभिनय किया यह सब अलग विषय है। यहां विषय यह है कि ऐसे लोग हमारे आसपास , हमारे संग- साथ हमेशा ही रहते हैं जिन्हें अपने इमेज की इतनी चिंता होती है कि वह उसको अच्छी बनाए रखने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं । ऐसे- ऐसे धनाढ्य व्यक्ति देखे हैं कि पैसे की तंगी भले ही घर में हो, उसे घर में ही रखो पर बाहर अपनी शानदार इमेज पर बट्टा नहीं लगना चाहिए, उसके लिए हर धर्म-कर्म, दान-पुण्य सब किए जाते हैं। अपनी जेब से बाहर जाकर खर्च करने में यानि आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया तो वैसे भी हम भारतीयो की आदत है। अपनी इमेज परफेक्ट होनी चाहिए क्योंकि अगर वह न हो तो हमें कुछ बहुमूल्य खो जाने का दर्द महसूस होगा। हमारी इमेज बाहर न आ जाए इसलिए हम मुखोटे पर मुखौटे पहने रहते हैं।

मुखौटों से याद आया कि माजुली जो कि पूर्वोत्तर का एक सुंदर, दर्शनीय, सांस्कृतिक , धार्मिक स्थल है, दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप भी है जहां मुखौटों के बनाने वाले एक से एक कारीगर हैं, हुनरमंद हैं, रंग-बिरंगे मुखौटे बनाने में माहिर हैं जो कि अपने पारंपरिक शिल्प कौशल के माध्यम से अपनी अभिव्यक्तियों को दर्शाते हैं। इन मुखौटों का प्रयोग पारंपरिक नाट्य प्रदर्शनों के अलावा आधुनिक नाटकों में भी किया जाता है और घरों की सजावट में और संग्रहालयों में भी संग्रह के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। मुखौटा किसी भी आदमी की असली सूरत को छिपा लेता है पर क्या वह उसकी सीरत को भी छिपा पता है? नहीं। आज हम डीपफेक वीडियो के युग में जी रहे हैं, तकनीक इतना आगे बढ़ चुकी है कि हम वास्तविक दुनिया से बहुत दूर सोशल मीडिया से बनी आभासी दुनिया में रहने के आदी हो चुके हैं और उसके प्रपंच में ही फंसे रहना हमें अच्छा लगने लगा है।

जरूरत के साथ आदमी खुद को बदलता है

इस चकाचौंध से भरी जिंदगी में सब कुछ बदल चुका है और सच तो यह है कि हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं कि यह इतनी तेजी से कैसे बदलता जा रहा है। आदमी अंदर ही अंदर कितना बदलता जा रहा है, बदला जा चुका है, यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि समय के साथ, जरूरत के साथ आदमी खुद को बदलता है। जीवन जीने का तरीका बदलता है समय के साथ पर अपनी इमेज के प्रति हमेशा बहुत सजग रहता है। पिछले कई दिनों से अपनी फोटो को आप जैसा चाहते हैं वैसा ऐप के माध्यम से बदलकर खुद को सजाकर, पोज़ बनाकर फिल्टर करके फेसबुक पर डालने का ट्रेंड चल रहा है। जब हम पुराने कैमरे की रील से खींचे हुए फोटो वाले एल्बम देखते हैं तो उसमें इमेज क्रिएशन जैसा कुछ नहीं था।

यही कहा जा सकता है कि जो जैसा था, वैसी ही उसकी फोटो आई थी। यानि 'जिंदगी विदाउट फिल्टर्स थी।’ पर अब इमेज को बेहतर दिखाने के लिए हम लोग नकली आवरण ओढ़े पड़े हैं। कहीं बालों की सफेदी छुपाते हैं तो कहीं चेहरे पर पड़ी झुर्रियां, कहीं शरीर का मोटापा कि कहीं अंकल- आंटी नहीं कहलवा दे यह मोटापा इसलिए छिपाते हैं। क्योंकि अपनी इमेज को बनाने, बनाए रखने और बरकरार रखने के प्रति हमारा जो डर है और हमारे मन में जो असुरक्षा है उसने हमारे अंदर गहराई तक पैठ बना रखी है। अपने आप को चरित्रवान, धनवान, बुद्धिमान, मोस्ट टैलेंटेड, मोस्ट नॉलेजिबेल दिखाने की हमारी जो जद्दोजहद है वह हमारे अंदर की ही कुंठा को बाहर दिखाती है कि अब हम कितनी नकली और आभासी दुनिया में जी रहे हैं। हकीकत से भागते हैं हम और तो और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस युग में इस छोटे से मोबाइल ने हमें वैसे ही कैद कर रखा है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस

डीपफेक के इस युग में अब हमें चेहरे पर मुखौटा लगाने की जरूरत ही कहां रह गई है। जो पसंद हो, जैसा पसंद हो वैसा चेहरा लगाओ और उसे ही सच बना दो। चेहरे पर चेहरे रखती इस दुनिया में अब हम मानसिक तौर पर अपने दिल और दिमाग को इस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हवाले कर चुके हैं। किसकी खातिर? इस इमेज की खातिर। यह तेरा छोटा घर, यह मेरा बड़ा घर, यह तेरा ब्रांड , यह मेरा ब्रांड, यह तेरी दुनिया, यह मेरी दुनिया..... क्या है सब? कुछ लोग दूसरों के लिए रोते- हंसते नहीं है, अपने लिए भी नहीं रोते- हंसते हैं। वे इमेज के लिए रोते- हंसते हैं।

पारिवारिक, सामाजिक संवेदनाओं वाली हमारी संस्कृति अब इमेज की भेंट चढ़ चुकी है । हम सभी किसी न किसी की कार्बन कॉपी बनने को तैयार है पर अपनी ओरिजिनल कॉपी कहीं दूर रख आए हैं इसके लिए क्योंकि हमें रोल मॉडल बनना है, किसी के सामने अपनी इमेज को बचाए रखना भी तो आज एक बड़ी चुनौती है और हमारी सभ्यता, संवेदना और संस्कृति इन सब के कारण तंग गलियों से होकर गुजर रही है। संभाल कर रखिएगा अपनी इस इमेज को नहीं तो यह असुरक्षा की भावना ला देगी आपके अंदर। पर क्या इस इमेज को बनाकर रखने में हम अपनी वास्तविकता से दूर नहीं भाग रहे हैं? हम उस प्रकृति से अपना रिश्ता नहीं तोड़ रहे हैं, जो कि अपने अटूट बिखरे हुए सौंदर्य से रोज धरती का श्रृंगार करती है।

सब कुछ है पर इमेज की खातिर

हम क्यों इमेज बनाने में इतना सतर्क हैं कि हम उसके लिए दूसरों को नुकसान पहुंचाने से भी नहीं डरते? हम क्यों इमेज को बनाए रखने के लिए इतना सतर्क है कि हमने अपने चारों ओर एक झूठ की दुनिया गढ़ ली है, जिसके अंदर पैर रखने वाला हमें अपना दुश्मन लगता है। यह कैसा नया समाज खड़ा हो रहा है? यह कैसा नया परिवार आजकल खड़ा हो रहा है? यहां सब है, सब कुछ है पर इमेज की खातिर। जिंदगी वही अच्छी जो विदाउट फिल्टर्स हो । अपने खुद में अपनी जिंदगी को जिएं और साल के आखिरी दिनों की ठंड का और अदरक वाली चाय का भरपूर लुत्फ उठाइए दोस्तों।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)



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Shashi kant gautam

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