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1942 के आंदोलन में अटल की भूमिका

raghvendra
Published on: 18 Aug 2018 6:15 AM GMT
1942 के आंदोलन में अटल की भूमिका
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के. विक्रम राव

पूर्व प्रधामंत्री और भाजपा के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के चुनावी राजनीति से रिटायर होने के बाद उन पर हर लोकसभा चुनाव के दारौन लगाया जाने वाला आरोप भी बिसरा दिया गया। उनके शत्रुओं, खासकर तथाकथित वामपंथियों की एक फितरत जैसी हो गई थी कि अटल को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में खलनायक ही नहीं बल्कि ब्रिटिश राज के मददगार की भूमिका में पेश किया जाए। यह एक सरासर ऐतिहासिक झूठ रहा मगर नाजीवादी प्रोपेगेण्डा शैली की नकल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता इस झूठ को बार-बार दुहराते रहे ताकि लोग सच मान लें। मतदान खत्म होते ही यह कुप्रचार भी हवाई हो जाता था। आशंका है कि कहीं आज की किवदंतियां कल ऐतिहासिक दस्तावेज न बन जाएं। इसीलिए आवश्यकता है कि लोकसभा चुनाव अभियान में रवां हुई विकृतियां समय रहते दुरुस्त की जाएं।

इतिहासवेत्ता प्रो.इरफान हबीब ने तेरहवीं लोकसभा के आम चुनाव के दौरान लखनऊ में (26 सितंबर,1999) अटल बिहारी वाजपेयी को ब्रिटिश राज का मुखबिर बताया था। अटल की 1942 में कथित भूमिका चुनावों के दौरान रक्तबीज के खून की बूंद से उपजे महादैत्यों की भांति अक्सर चर्चा में उभरती रहीं। चुनावी शाम गई तो बात भी गई। फिर चुनाव आया तो इसी बात को प्रोफेसर हबीब ने नए पैकेज में पेश किया। लखनऊ के निकट गढ़ी भिलवल के अंग्रेज भक्त तालुकेदार के खानदान में जन्मे इरफान हबीब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं। हबीब जानते हैं कि 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी ने अंग्रजों की मुखबरी की थी। गांधीजी के आंदोलन का दमन करने में पुलिस को मदद दी थी। भारत के विभाजन का समर्थन किया था तो प्रो.हबीब को 1942 में अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका पर सवाल उठाने की सुपात्रता कैसे मिल गयी? इरफान हबीब को याद कराना अनावश्यक होगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक श्रीपाद अमृत डांगे ने मेरठ षड्यंत्र केस में सजा के बाद जेल से वॉयसराय को लिखकर सहयोग का वचन दिया था। इसी कुख्यात डांगे पत्र के कारण माक्र्सवादी (1964 में) अलग हो गये थे।

अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कुछ भी 1942 मे किया होगा, वह सत्रह साल के देहाती लडक़े की आयु में किया था। आज इतने विकसित सूचना तंत्र के युग में एक सत्रह-वर्षीय किशोर की सूझबूझ और सोच कितनी परिपक्व होती है, इससे सभी अवगत है। सात दशक पूर्व गुलाम भारत के ग्वालियर रजवाड़े के ग्रामीण अंचल में अटल कितने समझदार रहे होंगे? इस कसौटी पर समूचे मसले को जांचने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम राजनीतिक तौर पर दिल्ली में हुए लोकसभा चुनाव (1971) में कांग्रेस के शशिभूषण वाजपेयी ने इस बात को प्रचारित किया था कि अटल ने ग्राम बटेश्वर कांड (1942) में ब्रिटिश सरकार के पक्ष में बयान दिया था, जिसके आधार पर राष्ट्रभक्तों को सजा दी गयी थी।

उस दौरान सोवियत कम्युनिस्टों का प्रभाव भारत में चढ़ाव पर था। तब साप्ताहिक ब्लिट्ज (9 फरवरी 1974) ने इस विषय को तोड़मरोड़ कर लिखा था। तत्पश्चात 1989 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब पूरा देश बोफोर्स की दलाली के मुद्दे पर वोट दे रहा था, तो राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी पर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान धोखा देने का आरोप लगाया था। इसके प्रचारक थे डी.एस.आदेल। उसी वर्ष 8 अगस्त को बावन राजीव भक्त सांसदों ने अटल जी को मुंबई में अगस्त क्रांति समारोह से बाहर रखने की मांग की थी। फिलहाल यहां मुद्दा है अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रति निष्ठा का। इस विवाद की सिलसिलेवार पड़ताल की प्रस्तावना में लखनऊ से ही लोकसभा के लिए वर्षों पहले निर्वाचित हुए दो प्रतिनिधियों का उल्लेख हो जाए क्योंकि चुनाव में इन दोनों प्रत्याशियों की राष्ट्रभक्ति को मुद्दा बनाया गया था। शायर और न्यायमूर्ति पंडित आनंद नारायण मुल्ला तब वामपंथी, प्रगतिशील लोगों द्वारा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार (1967) थे। उन पर कांग्रेसियों का आरोप था कि वे अंग्रेजी राज के वकील थे, जिनकी जिरह पर काकोरी केस के क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान आदि को फांसी पर चढ़ाया गया था। तब सरकारी वकील के तौर पर मुल्ला को रोज की फीस पांच सौ रुपये मिलती थी। उन दिनों रुपये में बीस सेर चावल मिलता था। यही आरोप उनकी बहन शिवराजवती नेहरु पर भी जड़े गये थें, जब लखनऊ के लोकसभाई उपचुनाव (1955) में वे कांग्रेस की प्रत्याशी थीं।

भारतीय जनसंघ के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी का वह प्रथम चुनावी संघर्ष था। बाबू त्रिलोकी सिंह प्रजा सोशिलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी थे। शिवराजवती नेहरु के खिलाफ प्रचार था कि उनके पिता पंडित जगत नारायण मुल्ला ने काकोरी केस में पैरवी कर क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिलवाया था मगर लखनऊ के वोटरों ने अपने उदार चरित्र को दिखाया। दोनों लोग (नेहरु और मुल्ला) विजयी हुए थे। एक बार फिर चुनाव (1999) में लखनऊ में अटल जी वाला पुराना मुर्दा उखाड़ा गया।

जिस बयान के आधार पर अटल को आज तक हर चुनाव के समय लांछित और प्रताडि़त किया जाता रहा, वह फारसी में लिखा दस्तावेज है। केवल एक वाक्य है जिस पर व्याख्याकारों ने अपनी मंशा के अनुसार आख्या लिखी है। यह अनूदित वाक्य है किशोर अटल की जुबानी मैंने सरकारी इमारत गिराने में कोई मदद नहीं की। दो सौ लोगों के हुजूम में एक सत्रह साल का देहाती छात्र कितना कर पाता? एक साधारण स्कूल मास्टर कृष्ण बिहारी वाजपेयी का छोटा बेटा अटल कम से कम राष्ट्रवादियों के जत्थे में शामिल होकर 1942 में तेईस दिवस जेल तो काट आया। अब इन अदालती तथ्यों पर भी गौर कर लें ताकि भ्रांतियां दूर हो जाएं। युवा अटल ब्रिटिश हुकूमत के इकबालिया गवाह नहीं थे। अभियोजन पक्ष ने उन्हीं के साथियों के विरुद्ध उन्हें साक्षी नहीं बनाया था।

अपने बचाव में युवा अटल ने कोई भी माफीनामा नहीं लिखा था। उनके बयान को सरकार ने किसी सबूत के तौर पर भी प्रस्तुत नहीं किया गया था। उपरोक्त तथ्य उस पत्रकारी जांच से उजागर हुए हैं जो दैनिक हिन्दू के साप्ताहिक द फ्रंटलाइन के माक्र्सवादी सम्पादक एन.राम ने अपने तीन विशेष संवाददाताओं की खोजी टीम से करायी थी। (दि फ्रंटलाइन, चेन्नई, फरवरी 20, 1998, पृष्ठ 115 से 127) एक खास मुद्दा यह है कि पुलिस की कैद में कौन आंदोलनकारी कितनी दिलेरी से रह पाता है? इमरजेंसी में दरोगा राज के दौरान चार राज्यों की छह जेलों और पुलिस लॉकअप में तेरह महीने हथकड़ी-बेड़ी में गुजारने के आधार पर मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि पाशविक बल के सामने बिरले ही अडिग रह पाते हैं। यह भी तब जब न्यायतंत्र हो, जो इमर्जेन्सी में नहीं था। तब सर्वोच्च न्यायालय तक ने नागरिकों के मूलाधिकार को निलंबित कर डाला था।

अत: सत्रह वर्षीय अटल बिहारी वाजपेयी ने यदि कथित बयान दर्ज भी करा दिया तो अचरज नहीं होना चाहिए। ब्रिटिश पुलिस तब कुछ भी करा सकता था। ऐसा ही मंजर लखनऊ में 1954 में दिखा था। बढ़ी हुई सिंचाई दरों के विरुद्ध प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने महासचिव राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में जनान्दोलन छेड़ा था। तब संपूर्णानन्द के मुख्यमंत्रित्व वाली कांग्रेस सरकार पुलिसिया बल प्रयोग कर गिरफ्तार किसान सत्याग्रहियों द्वारा माफीनामे पर बलपूर्वक हस्ताक्षर कराकर रिहा करती थी। रोज राज्य सूचना विभाग की ओर से प्रेस नोट भी जारी होते थे कि सत्याग्रही माफी मांगकर छूट रहे हैं।

वाजपेयी का बयान

आगरा के मजिस्ट्रेट (द्वितीय श्रेणी) एस.हसन की अदालत में ब्रिटिश सम्राट बनाम लीलाधर वाजपेयी तथा अन्य वाले केस में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1 सितम्बर 1942 को फारसी में दर्ज किये गये बयान का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है। अगस्त 27, 1942 को बटेश्वर के बाजार में आल्हा गाया जा रहा था। अपराह्न करीब दो बजे ककुआ उर्फ लीलाधर तथा महुआ आए और उन्होंने अपने भाषण में वन कानूनों को तोडऩे का जनता से अनुरोध किया। दो सौ लोग वन विभाग के दफ्तर गए। अपने भाई के साथ मैं भी भीड़ के पीछे गया। बटेश्वर वन विभाग कार्यालय पहुंचने पर लोग ऊपर गये। मेरे भाई और मैं नीचे थे। सिवाय ककुआ और महुआ के मैं अन्य किसी को नहीं जानता हूं। मुझे लगा कि ईटें गिर रही हैं। मेरा भाई और मैं फिर माईपुरा की ओर चले। भीड़ भी पीछे थी। लोगों ने बाड़े से बकरियों को भगा दिया। फिर बिचकोली की ओर चले। दस या बारह लोग वन विभाग के कार्यालय में रहे होंगे। मैं करीब सौ गज की दूरी पर खड़ा था। सरकारी इमारत को गिराने में मैने कोई मदद नहीं की थी। बाद में हम अपने-अपने घर चले गये।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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