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मुझे ज़िंदगी की दुआ न दें: Article by Yogesh Mishra
ये दौर में धीरे-धीरे धर्म , ईश्वर, पाप, पुण्य, शील और आचार जैसे शब्द तो दक़ियानूसी करार दिये गये हैं। इसकी जगह स्वायत्त होता आदमी निरंकुश, बेख़ौफ़ और दिशाहीन होता जा रहा है।
हम जिस तरह की जिंदगी जी रहे हैं, उसमें क्या जिंदगी की दुआ देने का कोई मतलब रह गया है? जिंदगी के नाम पर जी जा रही जिंदगी में यह बड़ा सवाल है। विवेकानंद ने जीवन व अस्तित्व की भौतिक स्थिति को लेकर कहा था, तन जितना घूमता है, उतना ही स्वस्थ रहता है। मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ होता है।
विज्ञान के क्षेत्र में अक्सर एक रैखिक ( लीनियर) विकास की कल्पना की जाती है। पर उसके ऊपर क्रमिक विकास की बात ज़्यादा लागू नहीं होती। वहाँ भी एक प्रारूप (पैराडाइम) की परिधि में वैज्ञानिक विचार का विकास होता है। पर आधुनिक होते समाज में हो रहे सामाजिक परिवर्तन, रिश्तों के व्याकरण को पूरी तरह गड़बड़ा रहे हैं। आदमी में पुराकाल के हिंसक पशु- जीवन की स्वच्छंदता के अवशेष पुनर्जीवित हो रहे हैं।
नया दौर
नये दौर में धीरे-धीरे धर्म , ईश्वर, पाप, पुण्य, शील और आचार जैसे शब्द तो दक़ियानूसी करार दिये गये हैं। इसकी जगह स्वायत्त होता आदमी निरंकुश, बेख़ौफ़ और दिशाहीन होता जा रहा है। अबला रह कर पराश्रय में जीना स्त्री की अब नियति नहीं है।
प्रदर्शन का शौक़ आदमी की फ़ितरत बन रहा है। कृत्रिम या ओढ़े हुए अपरिचय ने मामूली समस्याओं को नासूर बन जाने दिया है। उसकी सोच पर पूर्वाग्रह व दुराग्रह हावी है। अर्थव्यवस्था ने मनुष्य को नफ़ा नुक़सान के झमेले में फँसा कर मात्र उपभोक्ता बना कर छोड़ दिया है।
ज़िंदगी के लिए भागना एक मुहावरा बन गया है।ताक़त की खोज व सिद्धि हमें वैयक्तिक दृष्टि से कायर बना रही है। लोग ज़्यादा चालाक होते जा रहे हैं। इंटेलिजेंट नहीं हो रहे हैं। आदमी व दीमक में कोई अंतर नहीं रह गया है। दोनों ऊपर चढ़ना चाहते हैं। दोनों मिट्टी में मिल जाते हैं।
बंद दरवाज़े के अंदर दुनिया सचमुच बंद हो गयी है। कभी चीख पुकार पड़ोसी सुन लेते थे, आज बग़ल के फ़्लैट वाला नहीं सुन रहा है। आदिवासी अतीत व भविष्य के आतंक से मुक्त वर्तमान में ही जीवित रहना पसंद करते हैं। पर शहरी लोग नहीं। आँगन हमारे परिवार की ख़ुशियों को जताने की जगह रही है। जहां बच्चे बकइयां किलकारी भरते हैं. दादी चंदा मामा दिखाती थीं। चंदा मामा के कौर बनाकर खिलाती थी। वह नदारद है।
सुनने का धैर्य ख़त्म होता जा रहा
युवा अवस्था की दहलीज़ पर खड़े बच्चों से माता पिता का अपरिचय एक गंभीर संकेत देता है। अपनी आशाओं, आकांक्षाओं , सीमाओं व अड़चनों पर की गयी उसकी टिप्पणी आह्वलादित करने के साथ साथ विस्मय का बीजारोपण भी करती है। दूसरों के निजी जीवन के बारे में जानने की इच्छा का सिरा कई बार दमित कुंठाओं से भी जुड़ा मिलता है।
टी एस इलियट ने कविता की परिभाषा देने के बजाय सिर्फ़ यही कहा कि पोयट्री इज वर्डस, वर्डस एंड वर्डस, यानी कविता केवल शब्द ही शब्द है। कवि शब्दों को ऐसे गढ़ता है जैसे सोनार गहनों को।
वाटर पेंटर ने कहा है कि एक बात को कहने का कई तरीक़ा होता है। शब्द ही उसे कह सकता है। चुनिंदा, तराशे हुए और दिल से निकलने वाले शब्द अगर एक दूसरे से क़रीने से गुंथे हों, क़रीने से जोड़ दिये जायें, तो सोने में सुहागा जैसा काम करते हैं। ये प्रयास बंद हो गये हैं। अब शब्द की जगह भाव प्रकट करने का काल चल रहा है।
कहा जाता है कि जब नैतिक आत्म चेतना विकसित होती है, तब मनुष्य स्वयं अपने व्यवहार को दंडित या पुरस्कृत करता है। पर नैतिक चेतना का लोप होने से केवल पुरस्कृत करने का चलन चल रहा है। जो कुछ हो रहा है, कोई भी कर रहा है, समाज में या परिवार में, उसे होने दीजिए। रोकिये मत। क्योंकि समाज में बातचीत के दौरान दूसरों का तर्क सुनने का धैर्य ख़त्म होता जा रहा है। शस्त्र केवल शरीर को घायल करते हैं, किंतु इनके भाव तो आत्मा को भी घायल करते हैं।
जिन लोगों ने आत्मा को घायल करने का बीड़ा उठा रखा है, उनके पास समाज की शर्म व सजा का भय दोनों नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति के समीप नहीं जाना चाहिए। क्योंकि संभव है कि उसकी मित्रता दुष्कार्य के लिए आपको भी निर्लज्ज बना दे। ऐसे व्यक्ति की बात बुरी लगे तो व्यक्ति महत्वपूर्ण है तो बात भूल जाओ। यदि बात महत्वपूर्ण है तो व्यक्ति को भूल जाओ।
जीवन में बहुधा वे त्रुटियाँ बहुत पीड़ा देती हैं, जिनके क्षमा माँगने का समय निकल जाता है। श्रेष्ठ यही है कि बिना संकोच के अपनी त्रुटियों को समय से स्वीकार करके एवं समय से क्षमा मांग कर जीवन को सामान्य किया जाये। पर यह करता कौन है? इसलिए ज़रूरी है कि आनंद में वचन मत दीजिए, क्रोध में उत्तर मत दीजिए, दुख में निर्णय मत कीजिए। क्योंकि दुख के समय के आँसू निर्मम समय के विरुद्ध पीड़ा का महाकाव्य रचते हैं।
क्योंकि हर व्यक्ति को परमात्मा सुबह दो रास्ते देते हैं- उठिये व अपने मनचाहे सपने पूरे कीजिये। सोते रहिये व अपने मनचाहे सपने पूरे कीजिए। पर आज सोकर मनचाहे सपने पूरे करने का दौर है।
इसीलिए आख़िरी साँस तक कोशिश करने की बात बेमानी हो गयी है। वैसे कोशिश करने पर मंज़िल या तजुर्बा दोनों में से कुछ न कुछ मिलता तो है। रिश्ते बनाना इतना आसान है जैसे मिट्टी पर मिट्टी से मिट्टी लिखना। लेकिन रिश्ते निभाना उतना मुश्किल, जैसे पानी से पानी पर पानी लिखना। हम न तो मिट्टी पर मिट्टी से लिख रहे हैं, न तो पानी पर पानी से लिख रहे हैं क्योंकि रिश्ते तो महाजनी लाल किताब का हिस्सा हैं।
ज़िंदगी छोटी नहीं होती जनाब
संसार को ज़रूरत के नियमों पर चला दिया गया है। सर्दियों में जिस सूरज का इंतज़ार होता है, उसी सूरज का गर्मियों में तिरस्कार किया जाता है। पूर्वाग्रहों की लीक पर गुजरती ज़िंदगी में स्वीकार ग़ायब है। यदि कभी दिखा भी तो क्षणिक व ज़रूरत भर के लिए। हम याद नहीं रखते हैं कि एक बार घर की दिवार चटक जाती है तो उन पर टिकी रिश्तों के नाम की छत गिर जाती है।
जिसका पेट भरा होता है वह चिंतन करता है। जिसका पेट ख़ाली होता है वह चिंता करता है। अध बीच की चिंताएँ ही आदमी को तिल तिल कर मारती हैं। चिंता से मुक्ति का मार्ग मन को किसी शौक़ की ओर मोड़ना है।
आभासी दुनिया ने शौक़ को भी वहीं लाकर समेट दिया है, जहां सिर्फ़ आप वाली की जाती हो। जो कुछ आप कर रहे है, उसका केवल समर्थन हो। विरोध किया तो समझें आप दुश्मन। वह भी ऐसे जिसे उपेक्षा की चाक में पीस दिया जायेगा। पीसने के समय भी दुआओं के रटे रटाये वाक्यांश दोहराये जायेंगे।
हम जितना बाहर जायेंगे। दूसरों का भला करेंगे। हमारा हृदय उतना ही शुद्ध होता जायेगा। हमने बाहर जाना बंद कर दिया है। अपनी दुनिया बना ली है। उनकी दुनिया को आभासी दुनिया पर ज़ोरदार समर्थन है। आभासी दुनिया में चित्र विचित्र हर तरह की दुनिया है। इसलिए यदि उनकी तरह आप नहीं बन सकते हैं तो आप अपनी ख़ुशी के लिए हार मान लें। यही ठीक भी होगा।
क्योंकि हम, आप उनसे कभी जीत नहीं सकते। क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा का कोई ख़्याल नहीं रहता। किसी हद तक गुजर जाना, हर पल लक्ष्मण रेखा लांघना उनकी दुनिया की फ़ितरत है। वह नहीं जानते कि प्रतिष्ठा की उम्र उनकी उम्र से ज़्यादा होती है। ज़िंदगी छोटी नहीं होती जनाब, आप देर से जीना ही शुरू करते हैं।