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चीन में मुस्लिमों से सख्ती पर खामोशी

raghvendra
Published on: 15 Sep 2018 7:03 AM GMT
चीन में मुस्लिमों से सख्ती पर खामोशी
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के. विक्रम राव

इस्लामी पाकिस्तान की जानकारी में (बल्कि उसकी मूक स्वीकृति से) कम्युनिस्ट चीन अपने पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में मुसलमानों का थोक में वध कर रहा है। ऐसा व्यवहार तो नाजियों ने जर्मन यहूदियों के साथ भी नहीं किया था। जिनेवा में संयुक्त राट्र मानवाधिकार आयोग की बैठक (11 अगस्त 2018) में अपनी जांच रपट पेश करते हुए गेई मैकडूगल ने बताया कि 20 लाख मुसलमानों को माओवादी शिक्षण शिविर में अनीश्वरवादी बनाने के लिए कैद रखा गया है। दस लाख सुन्नियों को जेल में नजरबंद कर दिया गया है।

इन लोगों का अपराध केवल यह है कि वे अपनी जीवन पद्घति इस्लामी आचरण के मुताबिक संवारना चाहते हैं। बर्लिन के प्रोफेसर हांस क्रिश्चिन गुंथर ने चीन से लौटकर (26 अगस्त 2018) को अपने मीडिया कॉलम में लिखा कि उइगर मुसलमानों के दमन से भारत का सीधा सरोकार होना चाहिए क्योंकि यह चीन की विदेश नीति का खास आधार बन चुका है। शिनजियांग के मुसलमानों के संहार पर विभिन्न इस्लामी राष्ट्र विशेषकर सऊदी अरब की खामोशी यही दर्शाती है कि चीन से तिजारत का महत्व इस्लामी अकीदे से ऊपर है।

सवा सौ करोड़ की हान नस्ल के चीनी लोगों के सामने दो प्रतिशत उइगर मुसलमान तो जीरे के बराबर भी नहीं हैं,लेकिन उनके विरोधी तेवर और स्वर के कारण चीन के बहुसंख्यक उन्हें मिटा देना चाहते हैं। तीन तरीके अपनाए गए हैं। उइगर मुस्लिम युवतियों की शादी जबरन हान युवकों से कराई जा रही है। तुर्की भाषा की जगह चीनी मंडारिन को अनिवार्य कर दिया गया है और उनके मजहबी दस्तूर और रिवायतों पर पाबंदी लगाई जा रही है। जनसंख्या की दृष्टि से 1949 में शिनशियांग में 95 प्रतिशत उइगर मुसलमान और पांच प्रतिशत हान चीनी थे। आज दोनों पचास फीसदी अर्थात ठीक बराबर हो गए हैं।

आखिर कम्युनिस्ट चीन की केंद्रीय सरकार से इन उइगर मुसलमानों ने मांगा क्या था? बस वे अधिकार जिनका भारत में हर मुसलमान दशकों से निर्बाध रूप से उपभोग कर रहा है।

उइगर लोग चाहते हैं कि उन्हें जुमे की नमाज मस्जिदों में अदा करने दी जाए, वजू करने के लिए नल का पानी वहां पर मिले। हज यात्रियों की संख्या में की गई कटौती खत्म हो। पचास वर्ष से कम आयु वालों को हज पर जाने की इजाजत वापस ली जाए, अठारह वर्ष से कम उम्र वालों को मस्जिद प्रवेश की अनुमति दी जाए। उनकी मातृभाषा तुर्की को सीखने पर लगी पाबंदी हटा ली जाए और उन पर मंडारिन भाषा न लादी जाए। उनकी यह भी मांग है कि उइगर साहित्य को अरबी लिपि में ही रहने दिया जाए, मजहबी किताबों की बिक्री पर से पाबंदी उठा ली जाए, पाक कुरान पर सरकारी संस्करण न थोपा जाए, सील मदरसे खोल दिए जाएं, पुनर्शिक्षित करने के नाम पर बंदी शिविरों में अकीदतमंदों को जबरन नास्तिक न बनाया जाए, सरकारी दफ्तरों में नमाज पढऩे के लिए अल्पावकाश का प्रावधान किया जाए, उनकी रिहाइशी बस्तियों में घेंटी का गोश्त न बेचा जाए, उनके अपने रोजगार में बहुसंख्यक हान वर्ण के चीनीजन को वरीयता न दी जाए,उनकी ऐतिहासिक राजधानी काशगर विश्व धरोहर करार दी जाए और ऐतिहासिक इमारतें ध्वस्त कर आवासीय कॉलोनी और शॉपिंग माल न बनाए जाएं।

उइगर मुसलमान उदार सूफी चिंतन से प्रभावित हैं। उनकी स्वाधीनता, विकास तथा समरसता वाली आकांक्षा को आतंकवाद कहना तथ्यों को विकृत करना होगा। उइगर मुसलमान उज्बेकियों के निकट हैं जबकि तालिबानी लोग पश्तून हैं। दोनों शत्रु हैं। एक भी उदाहरण नहीं मिलता जब कोई उइगर मुसलमान किसी फिदायीन हमले का दोषी पाया गया हो। चीन ने इन उइगर मुसलमानों पर आतंकवादी का ठप्पा लगा दिया है पर उसकी दोहरी नजर में जमात-उद-दावा, जो लश्कर का सियासी अंग है और भारत में कई वारदातों को अंजाम दे चुका है, एक स्वयंसेवी संस्था है जो मिल्लत की खिदमत करता है।

अत: सवाल यह है कि हिन्दू बहुल भारत में फल फूल रही इस्लामी तंजीमों, अंजुमनों, संगतों तथा रफाकतों ने शिनजियांग के सुन्नियों के प्रति एकजुटता और हमदर्दी कितनी और कब दिखाई? कश्मीरी गिलगिट से शिनजियांग की राजधानी कासगर की दूरी सवा सौ किलोमीटर है। काराकोरम मार्ग से पुराने रेशम मार्ग होते हुए जाते हैं। यह प्रश्न इसलिए खटासभरा हो जाता है क्योंकि विश्व में कहीं भी मुसलमानों पर हमला होता है तो भारत के मुसलमान तुरंत सडक़ पर उतर आते हैं। इजराइल के अलअक्सा मस्जिद में तोडफ़ोड़ हो, डेनमार्क के अखबार में कोई कार्टून बना दे, पेरिस के दैनिक में कोई व्यंगात्मक लेख छप जाए, चेचेन्या और कोसोवो के राष्ट्रविरोधियों पर पुलिसिया कार्रवाई हो तो भारतीय मुसलमान उससे अपना सीधा सरोकार जोड़ लेते हैं।

हाल ही में हजारों मील दूर बर्मा के रोहिंग्या मुसलमान असम में घुस रहे थे तो भारतीय सुरक्षाबलों से टकराव हुआ। इस पर उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के मुसलमान हजरतगंज और वीटी स्टेशन तक बल्लम, बर्छी, छूरी, लाठी, जंजीर आदि लेकर उत्पात मचाने लगे, पुलिस असहाय थी। मगर इन्हीं मुसलमानों ने आजतक शिनजियांग के पीडि़त सधर्मियों के समर्थन में नई दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग और चीनी दूतावास के समक्ष प्रदर्शन नहीं किया। क्यों? देवबंद, बरेलवी, जमाते इस्लामी, असदुद्दीन ओवैसी, नदवा कालेज (लखनऊ), अदीबों, अकीदतमंदों को इसका जवाब देना होगा। भारत सेक्युलर है और यहां मजहबी सियासत करना गुनाह है। यदि इन लोगों को ये सेक्युलर कानून गवारा नहीं है तो ये दारुल इस्लाम को तलाश लें। दारुल हर्ब को छोड़ दें क्योंकि सत्तर साल हो गए भारत मजहब के कारण पिछड़ता गया। यह नई पंथनिरपेक्ष पीढ़ी के बर्दाश्त के बाहर हो गया है। भारत अब दकियानूस नहीं रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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