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म्यांमार पर भारत की चुप्पी
म्यांमार के फौजियों ने जनता द्वारा चुनी हुई उनकी सरकार का इस साल फरवरी में तख्ता-पलट कर दिया था। उसके पहले 15 साल तक उन्हें नजरबंद करके रखा गया था।
म्यामांर की विश्व प्रसिद्ध नेता आंग सान सू ची (Aung San Suu Kyi) की चार साल की सजा सुना दी गई है। फौजी सरकार (military coup in myanmar) ने उन पर बड़ी उदारता दिखाते हुए उसे चार की बजाय दो साल की कर दी है। सच्चाई तो यह है कि उन पर इतने सारे मुकदमे चल रहे हैं कि यदि उनमें उन्हें बहुत कम-कम सजा भी हुई तो वह 100 साल की भी हो सकती है। उन पर तरह-तरह के आरोप हैं। जब उनकी पार्टी, 'नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी' की सरकार थी, तब उन पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया गया था।
म्यांमार (Myanmar) के फौजियों(military coup in myanmar) ने जनता द्वारा चुनी हुई उनकी सरकार का इस साल फरवरी में तख्ता-पलट कर दिया था। उसके पहले 15 साल तक उन्हें नजरबंद करके रखा गया था। नवंबर 2010 में म्यांमार में चुनाव हुए थे, उनमें सू ची की पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला था। फौज (military coup in myanmar) ने सू ची पर चुनावी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और सत्ता अपने हाथ में ले ली।
तानाशाही-अत्याचारी रवैये पर सारी दुनिया चुप्प
फौज(military coup in myanmar) के इस अत्याचार के विरूद्ध पूरे देश में जबर्दस्त जुलूस निकाले गए, हड़तालें हुई और धरने दिए गए। फौज ने सभी मंत्रियों और हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। लगभग 1300 लोगों को मौत के घाट उतार दिया और समस्त राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया। फौज ने लगभग 10 लाख रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार से भाग जाने पर मजबूर कर दिया। वे लोग भागकर बांग्लादेश और भारत आ गए। म्यांमारी फौज(military coup in myanmar) के इस तानाशाही और अत्याचारी रवैये पर सारी दुनिया चुप्पी खींचे बैठी हुई है।
संयुक्तराष्ट्र संघ में यह मामला उठा जरुर । लेकिन मानव अधिकारों के सरासर उल्लंघन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। यह ठीक है कि सैनिक शासन के राजदूत को संयुक्तराष्ट्र में मान्यता नहीं मिल रही है । लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
लोकतंत्र की इस हत्या पर चुप्प
यदि म्यांमार (बर्मा) को संयुक्तराष्ट्र की सदस्यता से वंचित कर दिया जाता और उस पर कुछ अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबंध थोप दिए जाते तो फौजी शासन को कुछ अक्ल आ सकती थी। आश्चर्य की बात है कि अपने आप को महाशक्ति और लोकतंत्र का रक्षक कहनेवाले राष्ट्र भी इस फौजी(military coup in myanmar) अत्याचार के खिलाफ सिर्फ जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं। अमेरिका शीघ्र ही दुनिया के लोकतांत्रिक देशों का सम्मेलन करनेवाला है और अपने सामने हो रही लोकतंत्र की इस हत्या पर उसने चुप्पी खींच रखी है।
म्यांमार भारत का निकट पड़ौसी है और कुछ दशक पहले तक वह भारत का हिस्सा ही था । लेकिन भारत की प्रतिकिया भी एकदम नगण्य है। जैसे अफगानिस्तान के मामले में भारत बगलें झांकता रहा, वैसे ही म्यांमार के सवाल पर वह दिग्भ्रमित है। उसमें इतना दम भी नहीं है कि वह जबानी जमा-खर्च भी कर सके।
चीन से तो कुछ आशा करना ही व्यर्थ है, क्योंकि उसके लिए लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं है और फौजी शासन के साथ उसकी पहले से ही लंबी सांठ-गांठ चली आ रही है। म्यांमार की जनता अपनी फौज से अपने भरोसे लड़ने के लिए विवश है।