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नारायण दत्त तिवारी : कुछ यादें

Manali Rastogi
Published on: 20 Oct 2018 1:49 PM IST
नारायण दत्त तिवारी : कुछ यादें
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के. विक्रम राव के. विक्रम राव

यह श्रीमती मोहसिना किदवई ने मुझे बताया था। एक बार श्री नारायण दत्त तिवारी और मोहसिना जी के साथ श्रीमती इंदिरा गांधी पहाड़ पर कार से जा रही थीं। इंदिरा जी ने पूछा की यदि वे इस पहाड़ पर फंस जाएँ और अरसे तक रुकना पड़े तथा भोजन में केवल एक ही तरकारी उपलब्ध हो, तो वे किसे पसंद करेंगे ? तिवारी जी का उत्तर था, “आलू”। बस आलू एकमात्र वह सब्जी है जो प्रत्येक अन्य भाजी के साथ माकूल बैठता है।

तिवारी जी का सबसे बड़ा गुण यही था कि वे हर किसी व्यक्ति अथवा अवसर पर हरेक के अनुकूल ही पड़ते थे। भारतीय राजनीति में शायद ही ऐसा कोई अन्य व्यक्ति हो जो विपरीत परिस्थितियों में भी सहज हो। एक बार जार्ज फर्नान्डिस ने मुझसे पूछा था की आखिर कांग्रेसी तिवारी जी को नापसंद करने में, अथवा उनकी आलोचना करने में इतनी कठिनाई क्यों हो जाती है ?

फिर बजाय मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये, जार्ज ने स्वयं कहा की हर भेंट पर तिवारी जी पहले अभिवादन कर देते हैं। भाई कहकर पुकारते हैं। शब्द सरल और आत्मीय होते हैं। ऐसे व्यक्ति का विरोध हो तो कभी, क्यों, कैसे, कहा जार्ज फर्नान्डिस ने। यह बयान वजनदार इसलिए है कि जार्ज फर्नान्डिस मूलतः लड़ाकू हैं। उनसे कम लोगों की पटती है। ऐसा जुझारू श्रमिक पुरोधा यदि प्रशंसा करे तो अवश्य तिवारी जी अदभुत गुण संपन्न थे।

यूँ समाजवादियों में उनका गुण भी अक्सर अवगुण जैसा दिखता है। जैसे दो समाजवादी, यदि वे लोहियावादी हुए तो, तय है की मिलते ही पहले मत विषमता जाहिर कर देंगे। सहमति हुई तो क्रियान्वयन पद्दति पर राय अलग होगी। अर्थात संस्कृत कहावत “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्न:” शायद इसी समाजवादी जमात के लिये रची गयी है।

साधारणतयः इन सोशलिस्टों में प्रचुरता से पाया जाने वाला लक्षण वाणी कटुता तथा निजी तीव्रता है। उनमें विनोदी प्रकृति कम, परिहास भावना ज्यादा होती है। नारायणदत्त तिवारी इस पैमाने पर समाजवादी होते नहीं लगते थे। वे किसी पर कटाक्ष करते भी हैं तो उपहास या उलाहना के अंदाज में नहीं।

मगर उनके कटाक्ष होते बड़े सटीक थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनता पार्टी शासन के दौरान विपक्ष की भूमिका में प्रेस दीर्घा से नारायणदत्त तिवारी को देखकर मुझे विपक्षी ब्रिटिश लेबर पार्टी के सांसद एन्युरिन बीवन की याद आती थी, जिसने, संसदीय रपटों के अनुसार, महाबली सर विंस्टन चर्चिल को छका दिया था। बजट पर समीक्षात्मक भाषण तिवारी जी के जैसा मैंने किसी भी विधानसभा में नहीं सुना। हालांकि “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के संवाददाता के नाते मुझे दस से अधिक राज्य विधानसभाओं की रिपोर्टिंग का मौका मिल चुका है।

तिवारी जी का मेरा प्रथम दीदार 1956 में हुआ था। तब हम लोग लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रथम वर्ष बी.ए. में पढ़ रहे थे। हड़ताली छात्र जुलूस लेकर विधासभा के सामने जमा हुए। तब डॉ. सम्पूर्णानन्द राज्य के मुख्यमंत्री थे। सदन छोड़कर एक युवा विधायक हमारी सभा में आया। गहरी आँखे, गाल लाल, टोपी गेहुई, आवाज गूँजती हुई, व्यक्तित्व आकर्षक, प्रभावी और मनभावन था। पता चला नैनीताल जिले के सोशलिस्ट विधायक नारायणदत्त तिवारी हैं। छात्र के नाते फिर समजवादी हमसफ़र होने पर और बाद में पत्रकार के नाते मेरी इस विलक्षण व्यक्ति से कई बार भेंटे हुई, आत्मीयता पनपती गई।

दो निजी घटनाएँ हमेशा याद रहेंगी। तभी इमरजेंसी ख़त्म हुई थी। हम लोग भी जेल से रिहा हुए थे। और हम पर चला बड़ौदा डायनामाइट का मुकदमा ख़ारिज हो गया था। “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” ने मेरा लखनऊ तबादला किया था। तभी 1978 में चौधरी चरण सिंह ने केन्द्रीय गृहमंत्री के नाते इंदिरा जी को कैद किया था।

उत्तर प्रदेश के कांग्रेसजन भी गिरफ्तार होकर जेल भर रहे थे। तिवारी जी गिरफ्तार होकर लखनऊ जेल में रखे गए थे। उनसे मिलने मैं जेल में गया। वहाँ तिवारी जी का बयान लिया। उनमें वही पुराना प्रतिपक्ष का नेता जागृत हो गया था। उन्होंने मेरी भेंट पड़ोस के बैरक में बंद अंधे कैदियों से करायी। जनता पार्टी सरकार ने अपने आर्थिक अधिकारों हेतु संघर्षरत इन नेत्रहीन प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज करवाया था। दृश्य बड़ा मर्मस्पर्शी था।

लौटकर मैंने अपने डिस्पैच में लिखा की “सलाखों से सत्ता पर विराजी जनता पार्टी सरकार बंदियों पर वही सलूक कर रही है जो इंदिरा गांधी सरकार ने हमारे साथ किया था।” सांसद मधु लिमये ने फोन किया कि वस्तुस्थिति क्या है। फिर मुझसे जानकारी पाकर मुख्यमंत्री (रामनरेश यादव) जो कभी समजवादी थे, को सचेत किया।

दूसरी घटना बिजनौर की है। इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आई.एफ.डब्ल्यु.जे.) की उत्तर प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार यूनियन का प्रतिनिधि सम्मलेन था। तभी आन्ध्र प्रदेश में एन.टी. रामा राव की नवसृजित तेलुगु देशम पार्टी कांग्रेस को बुरी तरह पराजित कर विधानसभा में दो तिहाई बहुमत पा चुकी थी।

तिवारी जी केंद्र में मंत्री थे और कांग्रेस हाई कमान के आन्ध्र प्रदेश निर्वाचन में राज्य पर्यवेक्षक भी। पार्टी की पराजय से क्षुब्ध तो थे ही। वे हैदराबाद से दिल्ली लौटे। हमारे राज्य सम्मलेन का 14 जनवरी 1983 को उन्हें उद्घाटन करना था। वे नहीं आये। हम सब निराश हो गये, और नाराज भी। मगर उसी रात को सन्देश आया की तिवारी जी दूसरे दिन आएंगे। अपने स्वागत भाषण में मैंने कहा कि अट्ठावन-वर्षीय तिवारी जी की याददाश्त तो पक्की है, अतः उनकी बात पर भरोसा नहीँ होता कि वे हमारे अधिवेशन के प्रथम दिन की तारीख भूल गए होंगे।

“मगर यह तिवारी जी का नहीं, वरन स्थल-दोष है। क्योंकि यहीं एक राजा अपनी प्रेयसी को अंगूठी पहनाकर अपना शादी का वादा भूल गया था”, मैंने कहा। सन्दर्भ हमारे सभा स्थल के समीप स्थित कण्वऋषि के आश्रम से था जहाँ कभी राजा दुष्यंत आया था। तिवारी जी छूटते ही मुझसे फुसफुसाये, “शकुन्तला कहाँ है”?

यह भी चुनावी सियासत की विडम्बना है कि नारायणदत्त तिवारी सरीखा उम्मीदवार भी लोकसभा में पराजित हो गया था। वह भी ऐसे दौर में (जून 1991) जब नैनीताल लोकसभा मतदाताओं का यह प्रत्याशी पी.एम. पद हेतु तयशुदा पसंदीदा था। पर एम. पी. नहीं बन सका। भाग्य खुल गया उस व्यक्ति का जिसे सांसदों को रिश्वत देने के आरोप में प्रधान मंत्री होने के बावजूद सजा दी गयी। विधि की विडम्बना कहिये अथवा फिर सितारों की तिरछी चाल की सुपात्र वंचित रह गया। बारिश हुई तो रेत पर।

(साभार: के. विक्रम राव की फेसबुक वाल)



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