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National Herald Case: नेशनल हेराल्ड-क्या गत बन गयी आज!

National Herald Case: नेशनल हेराल्ड' कभी आजादी की आवाज था। अब संस्थापक जवाहरलाल नेहरू के पडनाती राहुल गांधी ने उसे फिर जगविख्यात करा दिया। लेकिन अंग्रेज नेशनल हेराल्ड को बंद कराना चाहते थे।

K Vikram Rao
Written By K Vikram Rao
Published on: 15 Jun 2022 6:13 PM IST
National Herald
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नेशनल हेराल्ड। (Social Media)

K Vikram Rao: 'नेशनल हेराल्ड' कभी आजादी की आवाज था। अब संस्थापक जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) के पडनाती राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने उसे फिर जगविख्यात करा दिया। कारण नीक नहीं है, हेय है। इस प्रतिक्षारत प्रधानमंत्री को केन्द्रीय प्रवर्तन निदेशालय (Central Enforcement Directorate) ने फर्जीवाडा और धनशोधन अर्थात कोष के लूट का आरोपी करार दिया। खैर जुर्म पर निर्णय तो दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi HC) देगा। मगर हेराल्ड तब और अब पर गौर करना चाहिये। इतिहास बोध का यह तकाजा है। मेरा एक दस्तावेजी लेख 15 नवम्बर, 1998 का पेश है। तस्वीर का खाका पूरा रेखांकित करता है।

आजाद की आवाज था हेराल्ड खो गया इतिहास में

अंग्रेज नेशनल हेराल्ड (National Herald) को बंद कराना चाहते थे। कांग्रेसियों ने उसे नीलामी पर चढ़ा दिया। ठीक (1938) में कैसरबाग चौराहे (लखनऊ) की पासवाली इमारत पर जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने तिरंगा फहरा कर राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दैनिक को शुरू किया था। आज उनके नवासे की पत्नी ने नेहरू परिवार की इस सम्पत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर ने लगवा दी, ताकि चार सौ कार्मिकों के बाइस माह के बकाया वेतन में चार करोड़ रुपये वसूले जा सकें। यूपी प्रेस क्लब में उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी ने संवाददाताओं के पूछने पर कहा था- जो हेराल्ड नहीं चला पाये, वे देश क्या चला पायेंगे? टिप्पणी सटीक थी, सच हो सकती है। देश की जंगे आजादी को भूगोल का आकार देने वाला हेराल्ड फिर खुद भूगोल से इतिहास में चला गया।

लेखक टामस कार्लाइल की राय में अखबार इतिहास का अर्क होता है। अर्क के साथ हेराल्ड एक ऊर्जा भी था अब दोनों नहीं बचे। जब इसके संस्थापक-संपादक मेरे स्वर्गीय पिता श्री के. रामा राव ने मई 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। बहुतेरे तूफान उठे, पर हेराल्ड की कश्ती सफर तय करती रही। जब यदि डूबी भी तो किनारे से टकराकर। इसकी हस्ती ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही, भले ही दौरे-जमाना उसका दुश्मन था? नेहरू और रफी अहमद किदवई इसके खेवनहार थे। इसपर कई विपत्तियां आई मगर यह टिका रहा। एक घटना है 1941 के नवम्बर की जब अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने कागज देने से मना कर दिया था क्योंकि उधार काफी हो गया था। नेहरू ने तब एक रूक्के पर दस्तखत कर हेराल्ड को बचाया था, हालांकि नेहरू ने व्यथा से कहा भी कि ''सारे जीवन भर मैं ऐसा प्रामिसरी नोट न लिखता।'' पिता की भांति पुत्री ने भी हेराल्ड को बचाने के लिए गायिका एम.एस. सुब्बालक्ष्मी का कार्यक्रम रचा था, ताकि धनराशि जमा हो सके। इंदिरा गांधी तब कांग्रेस अध्यक्ष थी। रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेरल्ड राहत के कूपन बेचकर आर्थिक मदद की थी।

हेराल्ड ने आज़ाद भारत के समाचारपत्र उद्योग में थी क्रांति

हेराल्ड ने आज़ाद भारत के समाचारपत्र उद्योग में क्रांति की थी जब 1952 में सम्पादक की अध्यक्षता में सहकारी समिति बनाकर प्रबंध चलाया गया था। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रबन्ध निदेशक मोहनलाल सक्सेना (Managing Director Mohanlal Saxena) (22 अप्रैल 1952) को लिखे पत्र में इस अभिनव श्रमिक प्रयोग की सफलता की कामना की थी। उमाशंकर दीक्षित जो कुशल प्रबंध निदेशक बनकर आये, ने कश्ती बचा ली। प्रधानमंत्री के तीन मूर्ति आवास में 1957 में निदेशकों की बैठक में दीक्षित की नियुक्ति की गयी। हेराल्ड और उसके साथी दैनिक 'नवजीवन' और 'कौमी आवाज' की प्रतियां बढ़ीं। विज्ञापनों का अम्बार लग गया। मुनाफा तेजी से बढ़ा। उमाशंकर दीक्षित बाद में इंदिरा गांधी के गृह मंत्री बने, फिर बंगाल के राज्यपाल। इन्हीं की पतोहू श्रीमती शीला दीक्षित दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर रही। श्रमिक सहयोग का यह नायाब उदाहरण हेरल्ड में एक परिपाटी के तहत सृर्जित हुआ था। दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का। छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे। हेरल्ड तीन साल के अन्दर ही बंदी की कगार पर था। अंग्रेजपरस्त दैनिक 'पायनियर' इस आस में था कि उसका एक छत्र राज कायम हो जायेगा। तब पत्रकारों और अन्य कर्मियों ने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा करवा लिया था। तीन महीने तो बिना वेतन के काम किया। कई अविवाहित कर्मचारी हेरल्ड परिसर में रहते और सोते थे। कामन किचन भी चलता था जहां चंदे से खाना पकता था। संपादक के हम कुटम्बीजन तब (आठ भाई-बहन) माता-पिता के साथ नजरबाग के तीन मंजिला मकान में रहते थे। किराया था तीस रूपये हर माह। तभी अचानक एक दिन पिता जी हम सबको दयानिधान पार्क (लालबाग) के सामने वाली गोपालकृष्ण लेन के छोटे से मकाने में ले आये। किराया था सत्रह रूपये। दूध में कटौती की गयी। रोटी ही बनती थी क्योंकि गेहूं रूपये में दस सेर था और चावल बहुत महंगा था, रूपये में सिर्फ छह सेर मिलता था। दक्षिण भारतीयों की पसन्द चावल है। फिर भी लोभ संवरण कर हमें गेहूं खाना पड़ा। यह सारी बचत, कटौती, कमी बस इसलिए कि हेरल्ड छपता रहे। यह परिपाटी हेराल्ड के श्रमिकों को सदैव उत्प्रेरित करती रही, हर उत्सर्ग के लिए।

श्रम न्यायालय ने कर्मियों के वेतन के भुगतान हेतु हेराल्ड भवन की नीलामी का दिया था आदेश

यूं तो हेरल्ड के इतिहास में खास-खास तारीखों की झड़ी लगी है, पर 9 नवम्बर 1998 मार्मिक दिन रहा। उससे दिन प्रथम सम्पादक स्वर्गीय श्री के.रामाराव की 102वीं जन्मगांठ भी थी। श्रम न्यायालय ने कर्मियों के बकाया वेतन के भुगतान हेतु हेरल्ड भवन की नीलामी का आदेश दिया था। लखनऊ के पुराने लोग उस दिन महसूस कर रहे थे कि मानों उनकी अपनी सम्पत्ति नीलाम हो रही हो। वह मशीनें भी थी, जिसे फिरोज गांधी अपने कुर्ते से कभी—कभी पोछते थे। वह फर्नीचर जिस पर बैठकर इतिहास का क्रम बदलने वाली खबरे लिखी गयी थी। पिछले कई दशकों से हेरल्ड का दौर उत्तर प्रदेश और भारत के घटनाक्रम से अविभाज्य रहा है।

इसकी शुरूआती कड़ी 1938 के गर्मी के मौसम की बनी थी। संयुक्त प्रान्त (तब यू.पी. का यही नाम था) में विधान सभा निर्वाचन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) को बहुमत मिल गया था। जवाहरलाल नेहरू ने सुझाया कि पार्टी को अपना दैनिक समाचार पत्र छापना चाहिए क्योंकि तब के अंग्रेजी दैनिक अंग्रेजों के समर्थक थे। एक कम्पनी पंजीकृत हुई। नाम रखा गया एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड। नेहरू बने अध्यक्ष और निदेशक मण्डल में थे फैजाबाद जिले के आचार्य नरेन्द्र देव (प्रख्यात समाजवादी चिन्तक), बाराबंकी जिले के रफी अहमद किदवई (बाद में केन्द्रीय मंत्री), आगरा के श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल (दैनिक सैनिक के सम्पादक), इलाहाबाद के राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन और डा. कैलाश नाथ काटजू, नैनीताल के गोविन्द वल्लभ पन्त, गंगाघाट, (उन्नाव), के एम.ए. सोख्ता और अमीनाबाद, लखनऊ, के मोहनलाल सक्सेना (बाद में केन्द्रीय मंत्री)। अब प्रश्न था सम्पादक कैसा हो? राष्ट्रवादी हो और वेतन के बजाय मिशन की भावना से काम करने वाला हो। पहला नाम था पोथन जोसेफ का, जो तब दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक थे और बाद में जिन्ना के मुस्लिम लीगी दैनिक 'दि डॉन' के सम्पादक बने। उन्हीं दिनों अपने कराची अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया था कि सारे कांग्रेसी सरकार के मंत्री सादा जीवन जियें और मासिक आय पांच सौ रूपये से अधिक नहीं लेंगे। पोथन जोसेफ खर्चीली आदतों वाले थे। पांच सौ रूपये वेतन कैसे स्वीकारते? हेरल्ड के सम्पादक को कांग्रेस मंत्री से अधिक वेतन देना वाजिब नहीं था। फिर नाम आया मुंबई दैनिक 'दि फ्री प्रेस जर्नल' के सम्पादक के. श्रीनिवासन का। वे कांग्रेस की विचारधारा के निकट नहीं थे। तब रफी साहब ने बाम्बे क्रानिकल के मशहूर सम्पादक सैय्यद अहमद ब्रेलवी से सुझाव मांगा।

ब्रेलवी के साथ युवा के. रामाराव काम कर चुके थे। ब्रेलवी ने रफी साहब से कहा कि नया अखबार है तो आलराउण्डर को सम्पादक बनाओ जो प्रूफ रीडिंग से लेकर सम्पादकीय लिखने में हरफनमौला हो। अतः रामाराव ही योग्य होंगे। तब वे दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स में समाचार सम्पादक थे। उन्हें इंटरव्यू के लिए रफी साहब ने लखनऊ के विधान भवन में अपने मंत्री कक्ष में बुलवाया। सवा पांच फुट के, खादीकुर्ता- पाजामा-चप्पल पहने उस व्यक्ति को कुछ संशय और कौतूहल की मुद्रा में देखकर रफी साहब ने पूछा कि "आप वाकई में सम्पादन कार्य कर सकेंगें?" रामाराव का जवाब संक्षिप्त था, "बस यही काम मैं कर सकता हूं।" फिर हेरल्ड के संघर्षशील भविष्य की चर्चा कर, रफी साहब ने पूछा, "जेल जाने में हिचकेंगे तो नहीं?" रामाराव हंसे, बोले, "मैं पिकनिक के लिए तैयार हूं।" बाद में 1942 में रामाराव को उनके सम्पादकीय 'जेल और जंगल' के लिए छह माह तक लखनऊ सेन्ट्रल जेल (Lucknow Central Jail) में कैद रखा गया था। रामाराव के सम्पादकीय सहयोगियों में तब थे: त्रिभुवन नारायण सिंह (बाद में संविद सरकार के मुख्यमंत्री और बंगाल के राज्यपाल), नेताजी सुभाष बोस के साथी अंसार हरवानी (बाद में लोकसभा सदस्य) और एम. चलपति राव। एक सादे समारोह में नेशनल हेरल्ड की शुरूआत हुई। पूरी यू.पी. काबीना हाजिर थी। ये सारे मंत्री रोज शाम को हेरल्ड कार्यालय आकर खुद खबरें देते थे। वहाँ काफी हाउस जैसा नजारा पेश आता था। जवाहरलाल नेहरू भी खबरें देते थे।

जनसभा में अपने भाषण की रपट को खुद आकर वे लिखते थे। उनका पहला वाक्य होता था: "प्रमुख कांग्रेसी नेता जवाहरलाल नेहरू ने आज एक सार्वजनिक जनसभा में कहा" ......आदि। सीमित संसाधनों के कारण हेरल्ड कई संवाद समितियों' की सेवा से वंचित रहता था। तभी की बात है शनिवार, 3 सितम्बर 1939 हिटलर ने ब्रिटेन पर युद्ध की घोषणा कर दी। अर्द्धसदी की यह सबसे बड़ी खबर थी। देर से आल इंडिया रेडियों ने सूचना प्रसारित की। नेहरू के जीजा (विजयलक्ष्मी के पति) आर.एस. पण्डित ने टेलीफोन पर हेरल्ड के सम्पादकीय विभाग को यह बात बतायी। रेडियों से खबर उदघृत करना कानूनी जुर्म था। संवाद समिति से यह खबर आयी नहीं थी। उन दिनों रविवार को अखबार नहीं छपता था, अर्थात यदि उस शनिवार की रात युद्ध की खबर न छपती, तो अगला संस्करण तीन दिन बाद मंगलवार को होता। रामाराव ने खबर छाप दी। उधर दिल्ली में स्टेट्समैन ने भी यही किया। पुलिसिया तफतीश हुई। स्टेट्मैन के सम्पादक ने कहा कि पाठकों के प्रति दायित्व निभाने के लिए रेडियों से खबर लेना उचित था। हेराल्ड से जवाब तलब करने की हिम्मत ब्रिटिश शासन जुटा नहीं पाया।

सेंशरशिप का शिकार लगातार रहा हेरल्ड

सेंशरशिप का शिकार तो हेरल्ड लगातार रहा, पर सरकार विरोधी खबरों के लिए कई बार इस पर जुर्माना हुआ। पहली बार 6,000 रूपये, दुबारा 12,000 रूपये। महात्मा गांधी ने हेरल्ड के पक्ष में अपनी पत्रिका 'हरिजन' में लिखा कि ऐसा वित्तीय अन्याय बंद होना चाहिए। जब जब हेरल्ड पर जुर्माना होता, एक सार्वजनिक अपील छपती थी। जनसरोकार इतना अगाध था कि दो दिनों में दुगुनी राशि जमा हो जाती थी। देने वालों में सरकारी अफसर, अवध कोर्ट के जज, मगर बहुतेरे लोग एक, पांच और दस रूपये के नोट देते थे। वे साधारण पाठक थे। अक्सर जवाहरलाल नेहरू ऐसे अवसरों पर खुद अपील निकालते थे। वे इलाहाबाद से तड़के सुबह आने वाली ट्रेन से लखनऊ आते। सह-सम्पादक त्रिभुवन नारायण सिंह के साथ तांगे पर सवार होकर चारबाग से कैसरबाग आते। स्थिति का जायजा लेते।

बोस और नेहरू

हेरल्ड की एक परम्परा शुरू से रही है और आजादी के बाद भी बनी रही। वह थी समाचार प्रकाशन में निष्पक्षता बरतना तथा तनिक भी राग-द्वेष न रखना। तब आर्य समाज ने निजाम के खिलाफ आन्दोलन चलाया था। सारे अखबार हैदरबाद की खबरों को खूब छापते रहे। अचानक हेरल्ड के अलावा सभी ने बिल्कुल चुप्पी साध ली। एक दिन निज़ाम का एक दूत सम्पादक रामाराव के कैसरबाग स्थित दफ्तर में आया। पहले उसने आर्य समाज की बुराईयां बतायी। फिर उसने कुछ हेरल्ड के लाभ की बात की। इसके पहले कि वह नोटों का बण्डल खोलता, सम्पादक ने उसे खदेड़ा और फाटक तक दौड़ाया। आर्य समाज ने रामाराव को एक आभार-पत्र लिखा था। त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी, नेहरू के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस निर्वाचित हुए थे। हेरल्ड ने बोस के समर्थन में काफी लिखा। कैसरबाग कार्यालय पर सुभाष बोस आये और बोले, "यह नेहरू का अखबार मेरे प्रति बड़ा संवेदनशील रहा। ईमानदार रहा।"

मुस्लिम लीग का गढ़ लखनऊ था। राजा महमूदाबाद उसके पुरोधा थे। मुस्लिम लीग के नेता हेरल्ड में अपने बयानों को प्रमुखता से प्रकाशित होते देखकर प्रफुल्लित होते थे। उन्हें बस एक शिकायत थी कि हेरल्ड के सम्पादकीय अग्रलेखों में उनकी तीखी आलोचना होती थी। उन्हें घातक करार दिया जाता था।

एक शाम (20 अप्रैल 1940)

जवाहरलाल नेहरू ने सम्पादक को लिखा कि हेराल्ड का पीछा दुर्भाग्य कर रहा है अथवा अक्षम प्रबंधन है जिससे ये सारे आर्थिक संकट उपजते है? आज इतने दशकों बाद इतना तो स्पष्ट हो गया कि दुर्भाग्य इतनी लम्बी अवधि तक छाया नहीं रहता है। ग्रह दशा बारह वर्ष में तो बदल ही जाती है। अतः यदि प्रबंधन सुधरता तो स्थिति बदलती। मगर फ्रांसीसी क्रांति वाली वहीं बात याद आ जाती है। क्रांति की बेला पर पेरिस में भूखे प्रदर्शनकारियों के अपार जन सैलाब को अपने महल से देखकर महारानी मेरी एन्तियोनेत ने उसका कारण जानना चाहा। दरबारियों ने कहा कि इन प्रदर्शनकारियों को डबल रोटी नहीं मिल रही है। महारानी बोलीं, "तो कहो वे केक खायें।" कैसे पनपे समाचारपत्र जब प्रबंधन की सोच फ्रांसीसी महारानी जैसी हो?

Deepak Kumar

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