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प्रकृति को लेकर हमारी समझ बहुत बचकानी, जरूरी है बाढ़ का आना!
प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकृति को लेकर हमारी समझ बहुत बचकानी है। बाढ़ से हमें अगर तात्कालिक नुकसान होता है तो उससे दूरगामी लाभ भी होते हैं। यह एक प्रकार से हमारे लिए वरदान है। बाढ़ से बचने के लिए कई प्रकार के उपाय हैं, जो अपनाए जाने चाहिए, लेकिन बाढ़ को मनुष्य समाज के लिए पूरी तरह से आफत समझना गलत है। जबकि, दुनिया की सभी सभ्यताएं बड़ी नदियों के किनारे ही पली बढ़ी हैं। मात्र एक बाढ़ के बाद उस क्षेत्र की मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ हो जाती है, जो हजार सालों में भी नहीं हो सकती है।
हर चीज को तात्कालिक मुनाफे से जोडऩे की समझ नदियों को खत्म कर रही है। इसी की सोच है देश की नदियों को आपस में जोडऩे की परियोजना है, जिसकी शुरूआत बुंदेलखंड के केन व बेतवा नदी से हुई है। केन बेतवा के जुडऩे के बाद देश की 30 बड़ी नदियों को आपस में जोड़ा जाएगा, जिससे देश के अंदर बाढ़ या सूखे की समस्या से निपटा जा सके। क्या कल्पना की जा सकती है कि कोई भी देश बाढ़ या सूखे से जूझेगा नहीं। वर्तमान में दुनिया में जितने भी विकासशील या विकसित देश है, उन्हें देख कर तो नहीं लगता है कि ऐसा कभी संभव है। यहां तक की अमेरिका व यूरोप भी बाढ़ व सूखे से लड़ता है। लेकिन, उनकी लड़ाई ऐसी नहीं है कि वह तकनीक के दम पर प्रकृति को पूरी तरह से खतम कर सके।
नदी जोड़ परियोजना शुरू होते ही विवादों में घिर गई है। पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि बेतवा का बहाव नीचे की ओर है, जबकि केन उपर बहती है, ऐसे में दोनों नदियों को जोडऩा असंभव है। नदियों की स्वाभाविक गति को मोडऩा विनाश को दावत देने जैसा है। साथ ही अतीत से सबक, पानी को लेकर बंटवारे के मुकदमे और दूसरे देशों के अनुभवों के आधार इससे फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। हालांकि, सरकार इसकी सफलता को लेकर आश्वस्त हैं। फिर भी एक सवाल जरूर उठता है क्या अकाल या बाढ़ को हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है? ऐसा करने से मनुष्य समाज को कोई नुकसान नहीं होगा? क्या अकाल या बाढ़ सिर्फ हमें नुकसान ही पहुंचाते है? दुनिया की सभी बड़ी नदियों में बाढ़ आता है फिर भी समाज नदियों की पूजा करता है? ऐसा क्यों? जबकि, नई सोच नदियों को मनुष्य की प्रगति का बाधक समझती है?
प्रकृति को लेकर कुछ बुनियादी बातों को जान लें। पूरी दुनिया में नदियों की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से हुई है। यह एक प्राकृतिक घटना है, जिसने नदियों को जन्म दिया। नदियों के जन्म के साथ ही उनका स्वाभाविक बहाव व समुद्र में मिलना भी तय हो गया। जब नदियां किसी क्षेत्र में बहती हैं तो वह अपने दोनों छोरों पर कई किलोमीटर तक एक पारिस्थितिक पर्यावरण को तैयार करती हैं। यानी, दोनों छोरों पर किस प्रकार के पेड़ पौधे, मिट्टी, गड्ढे और पशु पक्षी आदि रहेंगे। यह एक प्रकार से प्राकृतिक निर्धारण होता है। जिसमें हस्तक्षेप के गंभीर परिणाम होते हैं, या तो नहीं सूख जाती है या भी उसकी धारा में बदलाव हो जाता है।
बाढ़ से जुड़ी कुछ जरूरी बातों को जानने के लिए पिछले दिनों केरल में आई अप्रत्याशित बाढ़ पर निगाह डालते हैं। असल में बाढ़ नियंत्रण में वनों की रक्षा बड़ा मुद्दा है। केरल में ही नहीं पूरे पश्चिम घाट क्षेत्र में विभिन्न संदिग्ध उपयोगिता वाली परियोजनाओं के नाम पर बहुत बड़े पैमाने पर वन काटे गए हैं। यहां तक कि महत्वपूर्ण नदियों के जल ग्रहण व उद्गम क्षेत्र में भी निर्ममता से कटान हुए हैं, जिससे कभी बाढ़ तो कभी सूखा, दोनों का संकट गंभीर हुआ है।
भारतीय विज्ञान संस्थान ने रिमोट सेंसिंग डेटा आधारित एक अध्ययन में बताया कि 1973 और 2016 के बीच केरल ने 9 लाख हेक्टेयर से अधिक वन खो दिए। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले अनुसंधानकर्ताओं ने लिखा है कि यह वन विनाश राज्य के लिए बहुत हानिकारक है। इसके साथ उन्होंने अधिकतम भूमि के कंक्रीटीकरण या सीमेंटीकरण पर भी चिंता प्रकट की है, जिससे कि पानी को भूमि में प्रवेश करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता है। पहले जो बहुत से परंपरागत जल-स्रोत व दलदली क्षेत्र थे, उनमें भी बाढ़ का पानी प्रवेश कर जाता था, पर इसमें भी बहुत कमी आई है। नदी के आसपास के क्षेत्रों में काफी अतिक्रमण हुए हैं व नदी के विस्तार के प्राकृतिक स्थान तक को नहीं छोड़ा गया है जिससे कि प्राकृतिक मार्ग में अवरोध आने से बाढ़ की प्रवृत्ति बढ़ती है। बड़े पैमाने के खनन ने भी इतना पर्यावरण उजाड़ा, जिससे भीषण बाढ़ की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
केरल में व इससे पहले अनेक अन्य राज्यों का अनुभव यह रहा कि अधिक वर्षा होने पर मानसून के आंरभिक दौर में धीरे-धीरे पानी नहीं छोड़ा जाता है और बांधों को काफी भर जाने दिया जाता है। इसलिए मानसून के आगामी दिनों में जब और भी अधिक वर्षा हो जाती है तो बांध को सुरक्षित रखने के लिए बहुत अधिक पानी अचानक छोडऩा पड़ता है जिससे स्थिति विकट हो जाती है। इसी से जुड़ा हुआ मुद्दा है कि बांध से अधिक पानी छोड़ते समय बहुत से लोगों को पर्याप्त समय पर चेतावनी नहीं मिल पाती है जिससे कि वे अपने बचाव की समुचित व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। यह स्थिति हम पहले भी विभिन्न राज्यों में कई बार देख चुके हैं। यदि नदियों के आसपास कुछ खतरनाक पदार्थ या प्रदूषक तत्व पड़े हैं तो बाढ़ से उत्पन्न समस्याएं और बढ़ जाती हैं। पर ये समस्या केवल केरल की नहीं हैं। देश के अन्य भागों में भी ऐसी ही स्थितियां मौजूद हैं। जिस तरह वन-विनाश केरल में बहुत विनाशक सिद्ध हुआ है, उससे भी अधिक खतरनाक स्थिति आज हिमालय के अनेक क्षेत्रों में मौजूद है, जहां बहुत निर्ममता से पेड़ काटे जा रहे हैं। ऐसे बांधों का निर्माण हो रहा है जो बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं।
(लेखक एनएफआई फेलो हैं)