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Need a Job : जरूरत है, जरूरत है, जरूरत है !
Need a Job : .एक अदद नौकरी की, एक फुल टाइम या पार्ट टाइम नौकरी की। बेरोजगार ढूंढ रहे हैं कोई अच्छी जॉब, मिलती है तो वेतन कम, सुविधाएं न्यून, कहीं अधिक योग्यता की जरूरत है
Need a Job : जरूरत है, जरूरत है, जरूरत है........एक आद नौकरी की, एक फुल टाइम या पार्ट टाइम नौकरी की। बेरोजगार ढूंढ रहे हैं कोई अच्छी जॉब, मिलती है तो वेतन कम, सुविधाएं न्यून, कहीं अधिक योग्यता की जरूरत है तो कहीं कम शिक्षित युवाओं की। कहीं योग्यता भी मैच हो जाती है तो नौकरियों की संख्या कम और आवेदकों की उससे कहीं अधिक गुना संख्या होती है। अब जिसके भाग्य का छीका फूटा या जो अधिक अप्रोच लगा सका वह बेरोजगारी की इस वैतरणी को पार कर गया। शायद भूल नहीं होंगे पाठक भी अभी पिछले दिनों गुजरात में हुए हादसे को, जहां एक निजी इंजीनियरिंग कंपनी द्वारा 10 नौकरियों के लिए निकाले गए विज्ञापन पर साक्षात्कार के लिए 1800 लोगों की भीड़ जमा हो गई। भीड़ में हुई धक्का-मुक्की के कारण वहां रेलिंग टूट गई। कई लोगों को उस हादसे में चोट लगी। मुद्दा यह नहीं है कि कितनों को चोट लगी, मुद्दा यह है कि क्या हमारे देश में बेरोजगारी एक तरह की महामारी का रूप अख्तियार कर चुकी है। हम अपने चारों ओर जब नजर घुमाते हैं तो पाते हैं कि अधिक पढ़े-लिखे युवाओं को नौकरियों की तलाश है। जिनके यहां पैतृक व्यवसाय है, वहां तो फिर भी बेहतर स्थिति है पर बिना व्यवसायिक आधार वाले युवाओं के लिए तो यह बेरोजगारी उनकी रोजी-रोटी के सामने प्रश्न चिह्न बनकर खड़ी हो जाती है।
बेरोजगारी एक ऐसा गंभीर मुद्दा है, एक ऐसा अभिशाप है जो देश के आर्थिक परिदृश्य को चुनौती देता दिखाई देता है। हमारे देश में माना जाता है कि एक युवा जो की 16 वर्ष की उम्र का है, वह काम करना चाहता है, इसके बावजूद उसके पास में अगर एक महीने से काम नहीं है तो वह बेरोजगार है। अर्थशास्त्र कहता है कि रोजगार प्राप्त करने के लिए तीन आवश्यकताएं होती हैं- एक कार्य करने की क्षमता होना, दो कार्य करने की इच्छा होना और तीसरे नंबर पर है काम खोजने की कोशिश और इन सब के होने के बाद भी अगर देश का युवा बिना काम के भटक रहा है तो वह बेरोजगार है। हालांकि बहुत से लोगों को बेरोजगार नहीं माना जाता है भले ही वह कहीं बाहर काम नहीं कर रही हों। जो लोग विकलांगता के कारण काम नहीं कर सकते हैं या वे महिलाएं जो बिना वेतन के घरेलू काम करती हैं या वे लोग जिन्होंने नौकरी की तलाश बंद कर दी है के अलावा घर पर काम करने वाली, देखभाल करने वाली महिलाएं भी बेरोजगारों के आंकड़ों में शामिल नहीं होती हैं।
मजे की बात यह है कि जो जितना अधिक पढ़ा लिखा है उसके लिए नौकरी की तलाश या नौकरी मिलने का प्रतिशत और अधिक कठिन और अधिक कम होता जाता है। उसके बेरोजगार होने की संभावना उतनी ही अधिक बढ़ जाती है। अगर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आई एल ओ की रिपोर्ट की मानें तो भारत के कुल बेरोजगारों में 80 फ़ीसदी युवा हैं। पिछले करीब 20 सालों में हमारे देश में बेरोजगारी की दर युवाओं के बीच में 30 फ़ीसदी तक बढ़ चुकी है। रिपोर्ट बताती है कि हाई स्कूल या उससे ज्यादा पढ़े लिखे पड़े युवाओं में बेरोजगारी का अनुपात कहीं अधिक है। यह बात हम अपने दैनिक परिवेश में भी देखते हैं कि हमारे यहां हमारे घरों और ऑफिस आदि में प्राथमिक स्तर का काम करने वाले लोगों की आजकल कितनी दिक्कत होती है।
सरकार द्वारा जो गरीबी रेखा से नीचे हैं,उन्हें मुफ्त शिक्षा की भी व्यवस्था की गई है। तो सभी बच्चे पढ़ रहे हैं और वह पढ़कर कम से कम घरेलू काम या प्राथमिक स्तर के काम तो नहीं ही करना चाहते हैं और वह भी जिस तरह की नौकरियों की तलाश में होते हैं, उसमें भी उन्हें दिक्कतें आती हैं। आजकल किसान का बेटा पढ़ाई- लिखाई करके वापस किसान नहीं बनना चाहता बल्कि वह शहर की तरफ पलायन कर जाता है। गांव के पढ़े-लिखे युवा शहर की तरफ पलायन करते हैं। शहरों के पढ़े- लिखे युवा मेट्रोपॉलिटन शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं और बड़े शहरों के युवा देश छोड़कर विदेश में नौकरी की तरफ पलायन कर जाते हैं। पर स्थित वही है जब की तस। सन् 2000 में युवाओं में बेरोजगारी की दर 35 प्रतिशत थी जो कि 2022 में बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई है। कोविड महामारी के दौरान जरूर बेरोजगारी की दर में कमी आई । लेकिन उसके बाद यह बेरोजगारी की दर फिर बढ़ गई।बेरोजगारी की दर में इस तरह के उतार-चढ़ाव का देश की विकास और उसकी अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।
जब बात अधिक पढ़े -लिखे बेरोजगार युवाओं की होती है तो हम सबसे अधिक पढ़े- लिखे युवाओं में देश के आईआईटी और आईआईएम से निकले युवाओं को मानते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय पहले आईआईटी कानपुर के एक पूर्व छात्र द्वारा एक बड़ा खुलासा किया गया जिसमें कहा गया कि 2024 में देश के पुराने 9 आईआईटी के 16,400 छात्रों में से 6,050 अर्थात 37 प्रतिशत छात्रों को नौकरी नहीं मिली। वह अपनी रिपोर्ट में यह भी खुलासा करते हैं कि देश के कुल 23 आईआईटी में से 38 प्रतिशत आईआईटी ग्रैजुएट अभी भी जॉब के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकार द्वारा जो नए 14 आईआईटी खोले गए वहां तो और भी बुरी स्थिति है। वहां 40 प्रतिशत के लगभग छात्रों को नौकरी नहीं मिली। युवा आईआईटी, आईआईएम करने के बाद भी और अधिक ऊंचे प्रोफेशनल कोर्स या डबल डिग्री ले रहे हैं, कारण अच्छी नौकरियों का अभाव। इसी तरह की स्थिति अन्य क्षेत्रों के भी उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं के बीच है। नई टेक्नोलॉजी, चैट जीपीटी, ए आई के बढ़ते उपयोग से भी नौकरियों की संख्या में कमी आई है।
जो युवा इतनी उच्च शिक्षाओं के बाद भी बिना नौकरी के रह जाते हैं , बेरोजगार रह जाते हैं वह लगातार तनाव, अनिद्रा, निराशा के बीच झूल रहे होते हैं। वे घर वालों के, समाज वालों के उलहाने बर्दाश्त करते हैं या फिर कम गुणवत्ता वाली नौकरियां को स्वीकार करने पर विवश होते हैं। बेरोजगारी युवाओं के जीवन की गुणवत्ता को भी कम करती है। उनके सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों में भी तनाव पैदा करती है। कई सारे केसेस में तो यह मौत की ओर भी धकेल देती है क्योंकि बेरोजगार का सिर्फ एक ही काम होता है रोजगार को खोजने का। यह काला सच है बेरोजगारी का ।कई- कई बार तो बेरोजगार लोगों की गतिविधियां और विचार इतने नकारात्मक हो जाते हैं कि वे अपने काम करने की इच्छा भी खो बैठते हैं। वे आर्थिक और मानसिक स्ट्रेस में घिर जाते हैं ,जिससे पार पाना बिल्कुल भी आसान काम नहीं होता । यह एक तरह की अनैच्छिक निष्क्रियता होती है।
2021 में भारत में युवाओं की आबादी 27 प्रतिशत थी जो कि अगले 10 सालों में घटकर 21 प्रतिशत हो जाएगी। इसका मतलब है कि हर साल 70 से 80 लाख युवा जो किसी भी पेशेवर क्षेत्र से हों, रोजगार के लिए लाइन में जुड़ जाते हैं। कहीं पर कम गुणवत्ता वाला रोजगार और कहीं अनौपचारिक या पार्ट टाइम रोजगार से ही उन्हें काम चलाना पड़ता है। क्या हमारा देश रोजगार विहीन विकास की तरफ बढ़ रहा है? क्या हमारे देश में श्रम केंद्रित क्षेत्रों की पहचान और उसे बढ़ावा देने के लिए सचेत और समावेशी प्रयास नहीं किए जा रहे हैं? ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी की दर में भी एक बड़ा फर्क दिखाई देता है। ग्रामीण बेरोजगारी की दर मई में 6.3 प्रतिशत से बढ़कर जून में 9.3 प्रतिशत हो गई, जबकि शहरी बेरोजगारी की दर 8.6 प्रतिशत से बढ़कर जून में 8.9 प्रतिशत हो गई। जॉब्स फॉर हर की रिपोर्ट कहती है कि कॉरपोरेट सेक्टर में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। कंपनियां भी महिलाओं को अधिक से अधिक रोजगार देने के लिए तरह-तरह के कदम उठा रही हैं। यह रिपोर्ट मानती है कि भारतीय कंपनियों में कामकाजी महिलाओं की संख्या बड़ी है । लेकिन इन सब के बावजूद महिलाएं ही सबसे अधिक बेरोजगार हैं । 2022 में ऐसी महिलाओं की संख्या 48.4 प्रतिशत थी जो कि कोई भी काम नहीं कर रही थी
जबकि पुरुषों की संख्या 9.8 प्रतिशत थी, यानी बेरोजगारों में लगभग 95 प्रतिशत महिलाएं थीं। युवा महिलाओं के बेरोजगार होने की संभावना पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक होती है। महिलाओं की बढ़ती श्रम भागीदारी से भी कई लोग यह मानते हैं कि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी भी पुरुषों के लिए नौकरियों के अनुपात को काम करती हैं। उनका कहना है कि श्रम के नारीकरण करने से, श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी करने का अर्थ यह है कि हमारे देश में काम करने की स्थितियां , सामाजिक अधिकार और मजदूरी में गिरावट आई है। वे यह भी मानते हैं कि वर्तमान नौकरियों का असुरक्षित, अनिश्चित और अनौपचारिक पैटर्न महिलाओं को सशक्त बनाने की बजाय उनके शोषण में ही अधिक योगदान देता है।
नए बदलावों में कॉन्ट्रैक्ट आधारित नौकरियां बढ़ गई हैं जबकि पहले की तरह नियमित और लंबी अवधि की अवधि वाली नौकरियों में कमी आई है। लोग बहुत जल्दी-जल्दी, बेहतर और बेहतर नौकरी की तलाश में स्विच कर जाते हैं, इस तरह से अनौपचारिक रोजगार करने वाले अधिक हो गए हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि युवाओं की यह जो बढ़ती संख्या है यह शिक्षित भले ही है लेकिन इनमें कौशल की कमी है। इन युवाओं को आवश्यकता है कि वे तकनीकी रूप से अपनी क्षमता को बढ़ाएं। ज्यादातर युवा कंप्यूटर कौशल से अनभिज्ञ होते हैं, जिससे भी उनके नौकरी पाने की दर कम हो जाती है । अगर युवाओं को अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरी चाहिए तो उन्हें टेक्नोलॉजी फ्रेंडली होना पड़ेगा। बहरहाल कोई भी यह नहीं चाहेगा कि वह नौकरियों की लंबी लाइन में लगे और हताशा का सामना करें लेकिन आंकड़े इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की तरफ बार-बार इशारा कर रहे हैं ।इसका परिणाम युवाओं में बढ़ती हताशा, निराशा की ओर ही जाएगा। आवश्यकता है खुलकर समाधान करने की, इस बात पर चर्चा करने की कि देश के युवाओं के भविष्य को ले डूबना है या उन्नत करना है। बेरोजगारी ऐसी समस्या नहीं है जिसे हराया नहीं जा सकता। यह एक तरह की आर्थिक और सामाजिक समस्या है जिसे नीति निर्धारको द्वारा एक उचित नीति के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है । एक निर्णायक कदम देश के बेरोजगार युवाओं को उस लाइन में लगने से बचाने के लिए जो उनके लिए अंधे कुएं के समान साबित हो रही है।
( लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं। )