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दरकार है नये इतिहास-लेखन की

इसीलिए नयी सोच, नए अंदाज तथा ईमानदारी से भारत का राष्ट्रीय संघर्ष पेश हो। बाबरी ढांचे पर न्यायिक फैसले के बाद, यह अब अपरिहार्य हो गया है।

राम केवी
Published on: 25 May 2020 3:36 PM IST
दरकार है नये इतिहास-लेखन की
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के. विक्रम राव

गत सप्ताह (22 मई 2020) प्रकाशित समाचार दर्शाते हैं कि उच्चतम न्यायालय में अयोध्या वाद पर मस्जिद पक्ष ने गलतबयानी की थी। रामजन्मभूमि परिसर के समतलीकरण के दौरान प्राचीन गर्भगृह की खुदाई पर पुरावशेष मिले हैं। वे “हाथ कंगन को आरसी क्या” वाली बात चरितार्थ करते हैं। संग्रहीत सामग्री में भग्न देवविग्रह और खंडित देवी प्रतिमाओं, शंख, चक्र, पांच फुटा शिवलिंग की आकृति वाले शिला स्तम्भ, कलश, आमलक, इत्यादि मिले हैं। इसके पूर्व शूकरनुमा चौपाये का एक बुत मिला था। इस्लाम में यह एक हेय, निषिद्ध पशु है। इसका उल्लेख मन्दिर पक्ष के वकील ने पांच न्यायमूर्तियों के खण्डपीठ के समक्ष किया भी था। यह विष्णु के वराह अवतार का है।

दलील थी इबादतगाह को तोड़ा ही नहीं गया था

अपने सुदृढ़ तर्कों के आधार पर मस्जिद पक्ष ने दमखम से दलील दी थी कि फरगना (पूर्वी उज्बेकिस्तान) से दिल्ली पधारे मोहम्मद जहीरुद्दीन बाबर ने मस्जिद बनवाई, जहाँ सपाट भूमि थी। कोई भवन नहीं था। अर्थात् इस उज्बेकी बटमार ने शायर इक़बाल के इमाम-ए-हिन्द मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जन्म स्थल वाले इबादतगाह को तोड़ा नहीं था।

सबूत ? वह तो था ही नहीं ! अर्थात् कमान्डर मीर बाकी ने समतल भूमि पर ही इस बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। यदि यह सच है तो मीर बाकी समीप के ही धन्नीपुर (रौनाही थाना के सामने) के हरित प्रदेश में ही मस्जिद बना सकता था। इस मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में सुन्नी वक्फ बोर्ड नयी बाबरी मस्जिद और शिफाखाना का निर्माण कराने वाली है।

मस्जिद की मंशा पर सवाल

मगर असल में मस्जिद के निर्माण का इरादा अल्लाह के लिए सिजदा करने का नहीं था। काफ़िर, बुतपरस्त हिन्दुओं को आतंकित करना था कि लाइलाही इलअल्लाह बोलो या शमशीरे इस्लाम से शीश कटवाओ। मतलब नवकंज लोचन, कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं भगवान श्री राम को भूल जाओ।

यही बाबर था जिसने अल्लाह के नेक बंदे भारतीय सम्राट इब्राहीम खान लोदी के विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया था। एक लाख लोदी सेना को 12000 उज्बेकी सिपाहियों वाले सेनापति बाबर ने बारूद के बल शिकस्त दी। मगर पानीपत मैदान में पहले दिन की हार से घबड़ा कर बाबर ने दुआ मांगी और एवज में शराब पीना छोड़ दिया। परवरदिगार ने इब्राहीम लोदी की मदद नहीं की।

इनका उल्लेख जरूरी है

मन्दिर-मस्जिद का मसला तो साढ़े पांच सदियों बाद हल हो गया। मगर राष्ट्रीय मुद्दा यह उभरा कि भारत के गरिमामय इतिहास को केवल विकृत दिमाग वाले, सियासत के रंगीन चश्मे से ही देखेंगे? यहाँ उनमें से दो का उल्लेख करना जरूरी है।

इन्होने जाली आलेखों तथा पुराने प्रमाणों को मरोड़ कर ऐसा झूठा, एकांगी भारतीय इतिहास पेश किया है जिसपर हर राष्ट्रवादी हिंदुस्तानी को हिकारत होगी।

इरफ़ान हबीब

इनमें सर्वप्रथम हैं मोहम्मद इरफ़ान हबीब। जमींदार घराने में जन्मे, ये सरमायेदार अपने को कार्ल मार्क्स का अनुयायी बताते हैं। रहीम और रसखान इन्हें नहीं भाएंगे, क्योंकि वे वस्तुतः गंगाजमुनी संस्कृति के प्रतीक हैं। कृष्णभक्त हैं।

नरेंद्र मोदी के दुबारा पूर्ण बहुमत से विजयी होने पर इरफ़ान मियाँ को सदमा पहुंचा। यह सियासतदां हैं, इतिहासकार कम। कुछ दिन पूर्व ये त्रिवेंद्रम के इतिहास सम्मलेन में मंच पर चढ़ गए थे तथा मुख्य अतिथि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर शारीरिक प्रहार कर दिया।

केवल कश्मीर की जनता के प्रति भला करना ही इनकी दृष्टि में भारत का राष्ट्रवाद है। मुसलमानों को अधिक प्रतिनिधित्व मिले।

यह सरदार मनमोहन सिंह के समर्थक हैं कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक़ है। इरफ़ान जी बाबर को सेक्युलर प्रगतिशील बादशाह समझते हैं। मुग़ल राज्य के आश्ना ठहरे।

रोमिला थापर

दूसरी इतिहासवेत्ता हैं श्रीमती रोमिला थापर। इन्हें अमरीकी कृपा इतनी प्रचुर मिली कि हिन्दू विचार को यह विघटनकारी मानती हैं। इन्होंने कहा था की सोमनाथ पर हिन्दू राजाओं ने आक्रमण किया था।

महमूद गजनी ने 1026 में हमला किया ही नहीं था। वे इसे दन्त कथा मानती हैं। रोमिला जी की जानकारी में बाबर ने कभी भी अयोध्या में मस्जिद निर्माण का आदेश दिया ही नहीं था।

हवाई राज्य (अमेरिका) के विद्वान प्रोफेसर ब्रेनर वार्नर ने कहा कि रोमिला थापर को हिन्दू-विरोध का बड़ा पारितोष दिया जाता रहा है। रोमिला जी को विश्वास नहीं होगा जो शेख सादी ने “गुलिस्ताँ बोस्तान” में लिखा कि उन्होंने सोमनाथ स्वयं देखा था। परन्तु थापर के अनुसार सोमनाथ था ही नहीं।

वाह ! क्या खोज है ? इनके भाई हैं रोमेश थापर, वे सोवियत संघ के निकटतम रहे। एक मायने में वे रूसी कम्युनिस्टों के विश्व पटल पर सबसे ताकतवर पैरोकार रहे।

भारतीय इतिहास फिर से लिखा जाए

अब एक तार्किक पहलू पर गौर कर लें। यदि अपने अतीत को निम्नस्तर का दिखाना ही राष्ट्रप्रेम है तो रोमिला तथा इरफ़ान को भारत रत्न मिलना चाहिए। इसलिए अब अनिवार्य हो कि भारतीय इतिहास को जनता की नजर से फिरसे लिखा जाये।

इन भारतीय कम्युनिस्टों को 1917 से 1956 तक सोवियत रूस ही धरा पर स्वर्ग जैसा दिखता था। जब सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव निकिता ख्रुश्चेव ने तानाशाह जोसेफ स्टालिन के चालीस वर्ष के एकछत्र राज का पर्दाफाश किया और उसे नरपिशाच बताया, तो रूस का इतिहास फिर से लिखा गया।

सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के बीसवें अधिवेशन (14 से 20 फरवरी 1956) ने रूस का इतिहास आद्योपांत बदल डाला। जर्मनी में हिटलर की पराजय के बाद ऐसा ही पुनर्लेखन हुआ था।

भारत का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने लिखा। या इन विदेशी बादशाहों और सुल्तानों के भाट और किस्सागो ने। वर्ना रोमिला और इरफ़ान मियाँ जजिया टैक्स तथा हिन्दुओं पर विदेशी मुसलमानों द्वारा अकथनीय अत्याचारों पर अपना सम्यक मंतव्य अवश्य व्यक्त करते।

भारत के समक्ष छोटे अफ़्रीकी इस्लामी उपनिवेश अलजीरिया का उदाहरण है। फ्रांसीसी साम्राज्य को नेस्तानाबूद कर, पहला राजकार्य अहमद बेन बेल्ला तथा युसुफ बेनखेड्डा ने किया था कि राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम को हर छात्र को सही पढ़ाया जाये। केवल एक ही परिवार का नहीं।

ऐसा ही आयरलैंड ने अपने सटे हुए ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होते ही किया। राष्ट्रपति ईमन डि वेलेरा ने अपने स्वाधीन राष्ट्र का इतिहास वास्तविक ढंग से लिखवाया था।

कमाल पाशा

इन सबसे बेहतर किया था आलमी इस्लामी मरकज तुर्की के सेक्युलर राष्ट्रनायक मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क ने। प्रथम विश्व युद्ध में अपने देश की बुरी हार पर अतातुर्क ने खलीफा महमूद तृतीय को बरतरफ कर डाला। बुर्का, हिजाब, तीन तलाक, अरबी राजभाषा सभी को समाप्त कर दिया।

नयी तवारीख लिखी। प्राचीन हजिया सोफिया चर्च को खलीफा ने मस्जिद बना दिया था। अतातुर्क ने उसे म्यूजियम बना डाला। न नमाज, न अजान।

तो क्या भारत में महमूद गजनी और मुहम्मद गोरी से नेहरू-मित्र माउन्टबेटन ने जो किया वही हमारी विरासत मानी जायेगी? जिन्दा कौम को यह बर्दाश्त नहीं होगा।

इसीलिए नयी सोच, नए अंदाज तथा ईमानदारी से भारत का राष्ट्रीय संघर्ष पेश हो। बाबरी ढांचे पर न्यायिक फैसले के बाद, यह अब अपरिहार्य हो गया है।

K Vikram Rao

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