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Bharat Ke Mahan Neta सुभाष संकल्पित श्रेष्ठतर समाजवाद, नेताजी व लोहिया की समदर्शिता
Bharat Ke Mahan Neta Ka Itihas: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और डॉ राममनोहर लोहिया दोनों समाजवादी सोच के थे । दोनों की साझा विरासत की इतिहास में काफी कम चर्चा हुई है। नेताजी बोस के क्रांतिकारी जीवन पर काफी कुछ भले ही लिखा-पढ़ा गया हो।
Bharat Ke Mahan Neta Ka Itihas: मेरे लिए गर्व का विषय है कि मैं नेताजी द्वारा प्रतिपादित समाजवादी विचारधारा का पोषक हूं। मुझे नेताजी की सहयोगिनी कैप्टन लक्ष्मी सहगल और सहयोगी बाबा भारद्वाज के संदर्शन का सौभाग्य प्राप्त है । लक्ष्मी सहगल आजाद हिंद फौज की नारी ब्रिगेड की प्रमुख थीं । उनसे नेताजी के समाजवादी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में काफी जानकारी मिली थी ।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और डॉ राममनोहर लोहिया दोनों समाजवादी सोच के थे । दोनों की साझा विरासत की इतिहास में काफी कम चर्चा हुई है। नेताजी बोस के क्रांतिकारी जीवन पर काफी कुछ भले ही लिखा-पढ़ा गया हो। लेकिन सुभाष बाबू की राजनैतिक विचारधारा पर जितना चिन्तन-मनन लोकमानस में होना चाहिए था, नहीं हुआ। वर्तमान पीढ़ी नेताजी को जानती और मानती तो है, नेताजी के संदर्भ के कथानकों से भी अवगत है।किन्तु नेताजी के सिद्धान्तों, सपनों एवं वैचारिकी से अनभिज्ञ है। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेषन को 19 फरवरी, 1938 के संबोधित करते हुए नेताजी ने कहा था, ‘‘मेरे मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि हमारी मुख्य राष्ट्रीय समस्यायें गरीबी,अशिक्षा और बीमारी के उन्मूलन से एवं वैज्ञानिक उत्पादन और वितरण से संबंधित हैं। समाजवादी आधार पर ही प्रभावशाली ढंग से सुलझाई जा सकती हैं। इस सम्मेलन में लोहिया परराष्ट्र विभाग के प्रभारी के रूप में बैठे थे।
सुभाष चंद्र बोस और समाजवाद
समाजवाद में अपनी गहरी आस्था सुभाष बाबू ने बड़े सम्मेलनों में अनेकों बार व्यक्त की है। कोलकाता में 4 जुलाई, 1931 को आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए स्पष्ट किया, ‘‘मेरे मस्तिष्क में कोई संदेह नहीं है कि संसार की तरह भारत का परित्राण समाजवाद पर निर्भर है। रंगपुर राजनैतिक सम्मेलन में 30 मार्च, 1929 को बोलते हुए नेताजी ने कहा था कि समाजवाद भारत की सनातन सोच व परम्पराओं में रचा-बसा है। उन्होंने भारतीय समाजवाद को मार्क्स के अंधानुकरण से बचने व अपने समाज के अनुरूप व्याख्यायित करने की खुली पैरवी की।
डॉ लोहिया ने ‘‘इकोनोमिक आफ्टर मार्क्स’’ में जिस तरह के अर्थतंत्र की वकालत की है, वह मार्क्स से अधिक गांधी व सुभाष के आर्थिक विचारों के करीब दिखती है। सुभाष व लोहिया, दोनों कुटीर व लघु उद्योगों पर आधारित विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था पर जोर देते थे। अपनी इच्छा को अभिव्यक्त करते हुए आल इंडिया नौजवान भारत सभा के कार्यक्रम में नेताजी ने 27 मार्च, 1931 को बताया ‘‘मैं भारत में समाजवादी गणतंत्र चाहता हूं। मुझे पूर्ण, समग्र और अमंद स्वतंत्रता का संदेश देना है।’’ नेता जी के इन वक्तव्यों से स्वतः स्पस्ट है कि नेताजी स्वतंत्रता व समाजवाद के अप्रतिम योद्धा एवं अनन्य स्वप्नद्रष्टा थे। नवम्बर 1944 में टोकियो विश्वविद्यालय के छात्रों से संवाद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारा राजनीतिक दर्शन राष्ट्रीय समाजवाद है।
सुभाष बाबू और लोहिया दोनों यूरोप से उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटने के बाद अपने आपको स्वतंत्रता संग्राम के हवाले कर देते हैं, जबकि दोनों चाहते तो अच्छी नौकरी कर सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते थे। दोनों में कई समानतायें दृष्टिगत हैं। कई कार्यक्रमों के आयोजन में लोहिया सुभाष दा के साथ रहे हैं। कलकत्ता में 25 दिसम्बर, 1928 को आयोजित अखिल भारतीय युवक सम्मेलन के विषय निर्वाचन समिति के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस व सदस्य लोहिया थे। इसके पहले 1927 में कलकत्ता में हुए अखिल बंग विद्यार्थी परिषद की अध्यक्षता नेताजी को करनी थी, उनके न आने पर उन्हीं की सहमति से लोहिया जी से अध्यक्षता करवाई गई। नेताजी ने वैचारिक साम्य के कारण ही लोहिया को यह दायित्व दिया था।
इतिहास व अर्थशास्त्र में रुचि
नेताजी ने कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कालेज में पढ़ाई के दौरान मुर्शिदाबाद जाकर सिद्ध किया कि बंगाल की आर्थिक स्थिति अंग्रेजों के आने से पहले बेहतर थी। इसी तर्ज पर लोहिया ने इण्टर में पढाई जाने वाली पुस्तक ‘‘राइज आफ क्रिष्चियन पावर’’ में प्रकाशित तथ्यों को मनगढ़न्त साबित किया। दोनों की इतिहास व अर्थशास्त्र में गहरी रुचि थी। दोनों ने अपने दौर के इतिहास को बहुआयामी व्यक्तित्व व कृतित्व से कालजयी आयाम दिया। दोनों की राजनीतिक की शुरूआत कांग्रेस से होती है। दोनों ने पहले कांग्रेस में अलग मोर्चे का गठन करते हैं फिर अलग होकर नया पथ प्रशस्त करते हैं।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस फारवर्ड ब्लॉक तो लोहिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन करते हैं। दोनों ने ब्रिटानिया जेलों में असहनीय यातनायें सही, पर स्वतंत्रता संग्राम से विचलित नहीं हुए। नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के माध्यम से आजादी की लड़ाई को शिखर तक पहॅुचाया। वे भारत के बाहर जहां सैन्य अभियान चला रहे थे, उनके समर्थन में वहीं लोहिया देश के अन्दर ‘आजाद दस्ते’ को गठन कर क्रांति का अलख जलाए हुए थे। लोहिया ने गिरफ्तारी देने की बजाय भूमिगत होकर क्रांति को मजबूत करने का पथ चुना। जनजागरण हेतु गुप्त रेडियो का प्रयोग किया। नेताजी जर्मनी से रेडियो पर संदेश भेजते थे, तो लोहिया भारत में विभिन्न स्थानों से रेडियो से क्रांति का बिगुल बजाते।
लोहिया ने ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘मैं आजाद हूं’ ‘जंगजू आगे बढ़ो’ जैसे पत्रक बॅटवाये। नेपाल में पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर ‘आजाद-दस्ते’ ने ही हनुमान नगर थाने पर धावा बोलकर लोहिया व जयप्रकाश को छुड़वाया था। लोहिया ने इम्फाल व कोहिमा के पास नेताजी से सम्पर्क करने का प्रयास किया था। वे 22 महीने की फरारी के बाद 20 मई, 1944 को गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें उसी लाहौर कारावास में रखा गया जहां भगत सिंह कैद थे। सुभाष बाबू ने स्वराज दल के मुखपत्र ‘फारवर्ड’ व ‘बांगालार कथा’ का संपादन किया तो लोहिया ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ व बांग्ला कृषक को संपादित करने का दायित्व संभाला था। आजादी के बाद लोहिया ने ‘जन’ व ‘मैनकाइण्ड’जैसी पत्र-पत्रिकाओं को जन-जागृति का माध्यम बनाया। जेल में सुभाष ने ‘द इंडियन स्ट्रगल’ तो लोहिया ने कई पुस्तकें लिखीं जो आज भारतीय समाजवादी आंदोलन एवं स्वतंत्रता संग्राम की अनमोल धरोहरे हैं।
गांधी व डॉ लोहिया-सुभाष बाबू
दोनों महात्मा गांधी का सम्मान करते थे। सुभाष ने ही गांधी जी को 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर पहली बार ‘राष्ट्रपिता’ की संज्ञा दी थी। यही नहीं जब वे इंग्लैण्ड से आईसीएस त्याग कर भारत लौटे तो अपने घर जाने से पहले मणि भवन,मुंबई जाकर बापू से मिले। लोहिया तो आजादी के वक्त 1947 में दिल्ली में न होकर कोलकाता में महात्मा गांधी के साथ ‘गण-सेना’ बनाकर साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा से मोर्चा ले रहे थे। दोनों गांधी का बेहद सम्मान करने के बावजूद गांधी की आलोचना करने से भी नहीं हिचके। सुभाष ने त्रिपुरी में गांधी को चुनौती दी और लोहिया ने गांधी के लेख ‘सत्याग्रह अभी नहीं’ के प्रतिकार में ‘सत्याग्रह तुरंत’ लिखा।
पंडित नेहरू के साथ भी दोनों के सम्बन्ध धूप-छॉह की भांति एक जैसे रहे। सुभाष व नेहरू के मित्रता की मिसाल दी जाती थी। दोनों समाजवादी पक्ष के मजबूत स्तम्भ माने जाते थे। नेहरू के निर्देश पर ही सुभाष की गिरफ्तारी के खिलाफ पूरे देश में 10 मई, 1936 को सुभाष दिवस मनाया गया था। नेहरू ने ही सुभाष को 1938 में अगले कांग्रेस अध्यक्ष होने की घोषणा की थी, तब सुभाष यूरोप में थे। सुभाष दा ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पंडित नेहरु राष्ट्रीय योजना समिति का दायित्व दिया। दोनों एक दूसरे से जितने निकट थे, 1939 के बाद उतने ही दूर हो गए। लोहिया की भी यही कहानी है। लोहिया को भी परराष्ट्र विभाग की जिम्मेदारी नेहरू जी ने दी थी। लोहिया तो तीन साल नेहरू के प्रयागराज स्थित आवास ‘आनंद भवन’ में ही रहे।लेकिन 1948 के बाद नेहरू-लोहिया की दिशा अलग हो गई।
डॉ लोहिया व सुभाष बाबू रहे एक दू र को पर्याय
राममनोहर लोहिया सुभाष बाबू के सदैव प्रशंसक व अनुगामी रहे। कलकत्ता में उन्होंने नेताजी के साथ कई आंदोलनों व कार्यक्रमों में सहभाग किया। ‘‘भारत विभाजन के अपराधी’’ में लोहिया ने नेताजी के बारे में लिखा है ‘‘भारत के लिए राष्ट्रीय पलटन खड़ा कर रहे थे और मैंने हमेशा श्री बोस के मुकाबले श्री नेहरू को पसंद करने की गलती की है,‘‘ लोहिया मानते थे कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आखिरी प्रमुख बंगाली राजनेता थे जिनका दिमाग स्थानीय न होकर राष्ट्रीय था। यदि उन्हें आजादी के बाद काम करने का मौका मिलता तो राष्ट्र की तस्वीर काफी बेहतर होती। लोहिया ने 15 जुलाई, 1967 को सार्वजनिक पत्र द्वारा नेताजी से अपील की, यदि वे जीवित हों तो उन्हें देश के क्रांतिकारी परिवर्तन में हिस्सा बनना चाहिए।
डॉ लोहिया नेताजी समिति के सदस्य भी थे। लोहिया नेताजी का महात्मा गांधी के समान सम्मान करते थे। यह बात उन्होंने संसद में कही है। भारत-रत्न अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा लाए गए ‘अविश्वास प्रस्ताव’ पर बोलते हुए लोहिया ने 18 मार्च, 1967 को लोकसभा में कहा था, नेताजी को तो मैं महात्मा गांधी के बगल रखता हूं। नेताजी भी डॉ लोहिया को उतना ही स्नेह करते थे और भारतीय राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के पहरुआ के रूप में लोहिया को देखते थे। सुभाष बाबू की इच्छा का सम्मान करते हुए लोहिया ने भारतीयता पर आधारित समाजवाद की परिकल्पना विकसित की। सुभाष की पीढ़ी के बाद यूं कह लें स्वतंत्रता के बाद प्रगतिशील गणतांत्रिक समाजवाद का परचम लोहिया ने पूरी प्रतिबद्धता से आगे बढ़ाया।
हिंदी भाषा के प्रति सम्मान
नेताजी व लोहिया दोनों का व्यक्तित्व विराट था। दोनों का योगदान भी उतना ही महान है। दोनों की सादृष्यता व साझा विरासत पर कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं। नेताजी कटक (उड़ीसा) में पैदा हुए, कोलकाता (बंगाल) में रहे किन्तु राष्ट्रहित में उन्होंने हिन्दी को आजाद हिन्द सरकार की राष्ट्रीय भाषा बनाया। लोहिया ने तो साठ के दशक में ‘हिन्दी अभियान’ छेड़ा और ‘सामंती भाषा बनाम लोक भाषा’ बहस चलाते हुए कहा कि लोक-राज लोकभाषा में चलना चाहिए।
उल्लेख करना समीचीन है कि धुरी राष्ट्रों जापान, इटली आदि की मदद लेने के कारण कई लोग नेताजी की आलोचना करते हैं। ऐसे लोगों को जवाब देते हुए लोहिया ने ‘जन’ के नवम्बर 1966 के अंक में लिखा है कि राष्ट्रवाद अपने आप मित्र राष्ट्रों की अपेक्षा धुरी राष्ट्रों को पसन्द करता, जैसा सुभाष चन्द्र बोस ने किया। लोहिया ने बयालिस की क्रांति के दौरान भी सुभाष के कदम को सही बताया था जिसके कारण उन्हें कई मित्रों के कोप का भी भाजन होना पड़ा था।
भगत सिंह, सुभाष व लोहिया
नेताजी व लोहिया की वैचारिक समानता के कारण ही कई आजाद हिन्द फौज के सेनानी व सिपाही लोहिया से जुडे़ जिन्होंने नेताजी के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी थी। उदाहरण के लिए कैप्टन अब्बास अली का नाम ससम्मान लिया जा सकता है। कैप्टन अब्बास ने अपनी पुस्तक ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर’ भगत सिंह, सुभाष व लोहिया को समर्पित की है क्योंकि तीनों ने अपने जीवन-दर्शन व चिन्तन से सिद्ध किया कि भारत में समाजवाद व राष्ट्रवाद के दूसरे के पूरक, पर्याय व पोषक हैं। यहां यूरोप वाला मामला नहीं है।
सुभाष व लोहिया ऐसी अर्थव्यवस्था चाहते थे जिसमें आर्थिक विषमता की संभावना न हो। दोनों विकेन्द्रीकरण व देशी पूंजी पर आधारित औद्योगिक विकास के पक्षधर थे। यदि देश सुभाष-लोहिया की सोच व नीतियों पर चला होता तो भारत की तस्वीर और अधिक चमकदार होती। प्रतिवर्ष औसतन छब्बीस हजार पचासी (26085) युवा आत्महत्या करने के लिए अभिशप्त न होते। देश यदि अरबपतियों के मामले में तीसरे व बड़ी अर्थव्यवस्था के मामले में शीर्ष पांच में होता, तो साथ ही साथ प्रतिव्यक्ति आय के दृष्टिकोण 145 देशों तथा मानवीय विकास के लिहाज से 131 देशों से पीछे न होता। देश की तस्वीर गरीबी के महासागर मध्य बसे एक समृद्ध टापू सदृश न होती।
सुभाष व लोहिया की साझा विरासत वास्तविक राष्ट्रवाद व समाजवाद की संयुक्त थाती है जिस पर चले बिना राष्ट्र व भारतीय समाज का सवर्तोन्मुखी, समावेशी सतत विकास सम्भव नहीं।
(लेखक वरिष्ठ समाजवादी चिंतक हैं।)