TRENDING TAGS :
अमा जाने दो: अमा बहुत ऑइली है पकौड़े की सियासत
नवलकांत सिन्हा
दिमाग का दही करना शायद इसी को कहते हैं। कसम से सियासत का जो हाल आजकल चल रहा है उससे मुझे तो डर लग रहा है कि गांधीजी के अहिंसावादी भक्त कहीं अहिंसा छोडक़र कोड़ा न निकाल लें। मतलब यह भी कोई बात होती है कि जब हम मंगल पर पहुंचने के सपने देख रहे हैं, उस दौर में पूरे देश में चर्चा सिर्फ पकौड़े की हो रही है। वो रोजगार के नाम पर पकौड़े बिकवा रहे हैं तो ये पकौड़े वालों की तुलना भिखारी से कर रहे हैं।
हम तो यह सोचते थे कि झारखंड में मधु कोड़ा के दौर में जो भ्रष्टाचार हुआ, उसके बाद कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी वाक्य में कोड़ा शब्द का इस्तेमाल ही नहीं करेगा, लेकिन मेरे सोचने थोड़े ही कुछ होता है। शब्द उछला और इतना उछला कि अब तक चल रहा है। बस कोड़ा के आगे ‘प’ लग गया है। किसी आम आदमी ने बोला होता तो इग्नोर भी किया जा सकता था, लेकिन खुद प्रधानमंत्री ने जिक्र कर दिया तो कांग्रेसी कहां रुकने वाले थे। बस अर्थव्यवस्था का मामला समझकर पी चिंदम्बरम जी भी अखाड़े में कूद पड़े। खैर चलता है।
पकौड़ा तो ऐसी चीज है कि दिल्ली के बॉर्डर पर रहने वाला व्यक्ति सरोजनीनगर पहुंच जाता है खानदानी पकौड़े वाले के पास पकौड़े खाने तो जो बीच दिल्ली रहते हैं वो निकल जाते हैं रोहतक की तरफ और बहादुरगढ़ में बिल्लू के मशहूर पकौड़े खाने। अपने लखनऊ में कोई ऐसा इलाका नहीं होगा, जहां पकौड़े न मिलते हों। यूपी का काशी भी पकौड़े के लिए मशहूर है तो दक्षिण का शिवकाशी भी। और छोडि़ए, पकौड़े कहीं न मिलें तो घर में जरूर खाने को मिल जाते हैं, लेकिन देश की सियासत में जो पकौड़ा चटनी लगाकर परोसा जा रहा है वो हजम नहीं हो रहा।
फिर जब भाजपा ने सियासत की पिच पर पकौड़ा उछाल ही दिया था तो कांग्रेस को कैच कर लेना चाहिए था, लेकिन यह क्या पकौड़ा पकडक़र बाउंडरी पार उछाल दिया। वैसे रोजगार के नाम पर प्रधानमंत्री पकौड़े का जिक्र कर गए तो कांग्रेस सवाल कर सकती थी कि क्या इस देश में इंजीनियरिंग और मैनजेमेंट की डिग्री लेने के बाद युवाओं को पकौड़े बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा? पी.चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेता ने तो पकौड़े बेचने वालों की तुलना भिखारियों से कर डाली। मतलब राहुल गांधी जितना भी दौड़-भाग कर कांग्रेस के लिए माहौल बेहतर करें, दूसरे नेता उसकी हवा तुरंत निकाल देते हैं। वैसे पकौड़े की बात नितिन गडकरी, अमित शाह करते तो स्वाभाविक था। नरेंद्र मोदी की ज़ुबानी यह कुछ खटका तो जरूर लेकिन मैं तो यही कहूंगा कि छोडिय़े पकौड़े की ऑइली सियासत। देश में वैसे भी मुद्दों की कमी नहीं।