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कभी रसोई का उपकरण होता था पुरखों का!

सिलबट्टे का जिक्र प्राचीन तैत्रेय शाखा (कृष्ण यजुर्वेद वाली) में मिलते हैं। मिस्र की पिरामिडी सभ्यताओं में सिल मिला था। बीच में तनिक दबा हुआ। पकड़ने में सुगम होता है।

K Vikram Rao
Published on: 18 Nov 2022 4:33 PM IST
Grinding stone
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सिलबट्टे वाला कारीगर रमेश

आज अचानक एक फेरीवाले को सुना "सिल-बट्टा ले लो।" राजधानी लखनऊ के सत्तासीनों के आवासीय कॉलोनी है माल एवेन्यू (राजभवन के पास)। यहीं मेरा घर भी है। मुझे अचरज हुआ। सभी लोग अब मिक्सी, ग्राइंडर, चापर, क्रशर, कुकर आदि अत्याधुनिक रसोई उपकरण के उपभोक्ता हैं। पीसने, कूटने, कचरने, कुचलने, बारीक और चूर्ण बनाने वाले साधन के उपयोगकर्ता ! कौन होगा सिलबट्टा-इमाम दस्ता का खरीददार ? मैंने फेरीवाले को बुलावा भेजा। फिर संभाषण किया, मानो रिपोर्टर को विषय मिल गया हो। उसका नाम रमेश, चिनहट वासी था। प्रयागराज से चट्टानी पटिया मंगाते हैं। उसी से सिल बनते हैं। खास किस्म की होती हैं। उसने एक सौ बीस रुपए मांगे। वह मेहनतकश था। मैं भी उसी के वर्ग का। बुद्धिकर्मी पत्रकार ! पुत्र विश्वदेव, वह भी श्रमजीवी पत्रकार, मे मुझसे अधिक संवेदना थी। उसने तीन सौ रुपए दिए। वर्ना शोषण होता। चाय नाश्ता भी कराया। यही पत्थर के दो टुकड़े अब अमेजॉन और फ्लिपकार्ट में पाँच से नौ हजार रुपए मे बिक रहे हैं। हम श्रमजीवी अपने अखबारी सेठियों द्वारा शोषण से भिड़ते हैं। अतः उचित दाम न देता तो दुहरापन होता। वह खुश होकर गया, मानो बेसिक के साथ बोनस मिल गया हो !

रमेश ने बताया कि सिलबट्टे की अभी भी मंगलकार्यों मे जरूरत होती है। परिणय में तो खास। उसने बताया कि मसाला तीव्रतर हो जाता है सिलबट्टे पर पीसने से। बिजली यंत्र तो बिगाड़कर फीका कर देते हैं। सच भी है। भले ही एमडीएच, अशोक, गोल्डी, एवरेस्ट, आदि विज्ञापन के बूते खूब खाये जाते हों। मगर बाजरा और गेहूं में किसमें अधिक प्रोटीन और विटामिन है ? मशीन से साफ हुआ चावल स्वादिष्ट हो, पर शक्तिदायक नहीं।

सिलबट्टे को दरवाजा दिखाया नए मशीनी साधनों ने। ठीक ऐसा ही किया था अंग्रेज शासकों ने। भारतीय कुटीर कपड़ा उद्योग को खत्म किया ब्रिटेन के मैंचेस्टर, लंकाशायर आदि के मिलों ने। इतिहास गवाह है कि ढाका की मलमल जगविख्यात थी। ढाका के नवाब के जुलाहे अंगूठे के नाखून को छेदकर, रेशे को उसमे से निकालकर बारीक बनाते थे। एक बार मलमल की साड़ी को सात बार लपेटकर मेहरून्निसा आलमगीर औरंगजेब के दरबार में गई। पिता ने डांटा : "शर्म हया नहीं हैं ? नंगी हो ?" ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने जुलाहों की हथेली ही कटवा दी थी। उनका हूनर खत्म कर दिया।

कुछ सिलबट्टे की किस्मों का वर्णन भी हो। क्योंकि एकदा केंद्रीय लोक सेवा आयोग (UPSC) के अध्यक्ष तथा यूपी शासन के मुख्य सचिव रहे सर सीएस वेंकटाचार, ICS, ने एक परीक्षार्थी से सिलबट्टे के बारे में पूछा। वह बगले झाँकने लगा। आज भी युवाओं की दशा बेहतर नहीं है। शायद इसीलिए कि आमतौर पर सिलबट्टा गरीबों का एक बहुत बड़ा सहारा हुआ करता था। जिस किसी के पास खाने को ज्यादा-कुछ नहीं होता था तो वो सिल पर नमक पीस या प्याज को कूट-कूट कर रोटी के साथ खाकर सो जाया करता था। आज भी लाल कद्दू की सब्जी व गडेरी की सब्जी को सिलबट्टे में पीस कर खाते हैं।

सिलबट्टे का जिक्र प्राचीन तैत्रेय शाखा (कृष्ण यजुर्वेद वाली) में मिलते हैं। मिस्र की पिरामिडी सभ्यताओं में सिल मिला था। बीच में तनिक दबा हुआ। पकड़ने में सुगम होता है। आयुर्वेद पुरोधा वाग्भट्ट के चौथे सिद्धांत से हमें सिलोटा के महत्व का पता चल जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, ''कोई भी कार्य यदि तीव्र गति से किया जाता है तो उससे वात (शरीर के भीतर की वह वायु जिसके विकार से अनेक रोग होते हैं) उत्पन्न होता है।''

चूंकि भारत में अधिक लोग वात से त्रस्त होते हैं, अतः रसोई में जो भी प्रक्रियाएं अपनायी जाएं वे गतिमान और सूक्ष्म नहीं होनी चाहिए। अगर आटा धीरे धीरे पिसा हुआ होता है, तो वह कई गुणों से भरपूर होता है लेकिन चक्की में आटा बहुत तेजी से पीसा जाता है। यही सूत्र मसालों पर भी लागू होता है और इसलिए सिलबट्टा पर पीसे गये मसालों को अधिक गुणकारी माना जाता है। घर की चक्की और सिलबट्टा के उपयोग से भोजन का स्वाद बढ़ने के साथ स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। इनके उपयोग करने वाले का समुचित व्यायाम भी हो जाता है।

स्वास्थ्य के पैमाने पर देखें। सिलबट्टे में मसाले पीसते वक्त व्यायाम भी होता है। उससे पेट बाहर नही निकलता। विशेषकर इससे यूटेरस की बहुत अच्छी कसरत हो जाती है। हथेली, बाहें, कंधे, पीठ, रीढ़ आदि झूमते हैं तो दैविक रोगों का उपचार स्वतः हो जाता है। चंद भली बुरी आस्थाएं भी हैं जो इस उपकरण से हैं। इसे पूर्वोत्तर (ईशान) दिशा के आगे नहीं रखना चाहिए। दक्षिण तथा पश्चिम की ओर ही सिलबट्टे को टिकाकर खड़ा रखना चाहिए। इसका टूटना अच्छा नहीं होता है। इसे तुरंत बदल देना चाहिए। इसका उपयोग दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका में खूब होता है। नानी, दादी के दौर के इस उपकरण को प्राचीन भारत के ऋषियों ने भोजन विज्ञानं, माता और बहनों की स्वास्थ को ध्यान में रखते हुए अविष्कार किया था। इस तकनीक का विकास समाज की प्रगति और पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया था।

Jugul Kishor

Jugul Kishor

Content Writer

मीडिया में पांच साल से ज्यादा काम करने का अनुभव। डाइनामाइट न्यूज पोर्टल से शुरुवात, पंजाब केसरी ग्रुप (नवोदय टाइम्स) अखबार में उप संपादक की ज़िम्मेदारी निभाने के बाद, लखनऊ में Newstrack.Com में कंटेंट राइटर के पद पर कार्यरत हूं। भारतीय विद्या भवन दिल्ली से मास कम्युनिकेशन (हिंदी) डिप्लोमा और एमजेएमसी किया है। B.A, Mass communication (Hindi), MJMC.

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