×

दीना से दीनदयाल तक

Manali Rastogi
Published on: 25 Sep 2018 2:45 AM GMT
दीना से दीनदयाल तक
X

संजय तिवारी

पंडित दीनदयाल उपाध्याय युग पुरुष हैं। उनकी देह हमारे बीच भले न हो लेकिन उनकी अक्षर देह और चेतना भारत भूमि से अलग हो ही नहीं सकती। दीनदयाल उपाध्याय केवल एक व्यक्ति या विद्वान, नेता या महापुरुष ही नहीं हैं , वह वास्तव में एक ऐसी शक्ति पुंज हैं जिनमें भारत भाग्य विधाता की प्रतिमा अवस्थित प्रतीत होती है। भारत में वैसे तो अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं जिनको भारत की आत्मचेतना से जुड़ कर देखा और मूल्यांकित किया जाता है पर दीनदयाल उपाध्याय उन सभी में थोड़े विलक्षण दिखते हैं। ऐसा इसलिए क्योकि दीनदयाल ने न तो खुद को संन्यासी बनाया और ना ही सत्ता के लिए आग्रह पाला। फिर भी वह राजधर्म और राष्ट्र धर्म को अक्षर अक्षर परिभाषित करते रहे। यकीनन दीनदयाल उपाध्याय साक्षात राष्ट्र पुरुष हैं।

वह कहते हैं -हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों में मूलभूत एकात्म देखा है।

एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं। यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता। यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते है। जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं – राजनीतिक और आर्थिक दोनों – परिणामस्वरुप धर्म की गिरावट होता है। धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है।

कंटकाकीर्ण जीवनपथ

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के पवित्र क्षेत्र मथुरा ज़िले के छोटे से गाँव 'नगला चंद्रभान' में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। दीनदयाल के पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। इनकी माता का नाम रामप्यारी था। वह बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। उनके पिता कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे।

थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम 'शिवदयाल' रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को उनके साथ मायके भेज दिया। उस समय दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का ख़ास ध्यान रखते थे। इसी बीच भगवती प्रसाद उपाध्याय का निधन हो गया। तीन वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये।

पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। गंगापुर में दीनदयाल के मामा 'राधारमण' रहते थे।

उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था, इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीनदयाल और शिबु को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन-सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी। अपने छोटे भाई शीबू के साथ दीना की यही यात्रा आगे चलती रही।

नाना का निधन, मामा को टीबी

सन 1926 के सितम्बर माह में नाना चुन्नीलाल के स्वर्गवास की दुखद सूचना मिली। दीना के मन पर गहरी चोट लगी। इस दु:ख से उभर भी नहीं पाए थे कि मामा राधारमण बीमार पड़ गए। वैद्यों ने बताया कि उन्हें टी.बी. की बीमारी हो गई है। उनका बचना कठिन है। वैद्यों ने औषधि देने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए, यही समस्या थी। लखनऊ में उनके एक सम्बन्धी रहते थे। उनके पास से राधारमण का बुलावा आया।

लखनऊ में इलाज की अच्छी व्यवस्था थी। किन्तु उन्हें वहाँ कौन ले जाए, यही समस्या थी। कहीं यह छूत की बीमारी किसी और को न लग जाए, इसी से सब उनके पास जाने से भी डरते थे। दीना बराबर मामा की सेवा में लगा रहता था। मामा के मना करने पर भी वह नहीं मानता था। मामा का लड़का बनवारीलाल भी दीना के साथ पढ़ता था, किन्तु अपने पिता के पास जाने में वह भी छूत की बीमारी से डरता था। दीना की आयु इस समय ग्यारह-बारह वर्ष की थी। वह अपने मामा को लखनऊ ले जाने के लिए तैयार हुए।

मामा ने बहुत मना किया। दीना नहीं माने। अन्त में मामा को दीना की बात माननी ही पड़ी। लखनऊ में मामा का उपचार आरम्भ हुआ। दीना ने डटकर मामा की सेवा की। उनकी परीक्षा भी पास आ रही थी। किन्तु उन्हें मामा की सेवा के अलावा और कोई ध्यान नहीं था। परीक्षा का ध्यान आते ही मामा ने दीना को गंगापुर भेज दिया। दीना पढ़ भी नहीं सके थे। किन्तु होनहार बिरवान के होत चीकने पात वाली कहावत को उसने चरितार्थ कर दिया। दीना ने परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाकर प्रथम स्थान प्राप्त किया। यह सभी के लिए आश्चर्य और प्रसन्नता की बात थी।

कोट गांव की वापसी

दीना को कोट गाँव जाना पड़ा। गंगापुर में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। कोट गाँव में उन्होंने पाँचवीं कक्षा में प्रवेश लिया। वहाँ भी वह पढ़ाई में प्रथम ही रहते थे। राजघर जाकर आठवीं और नवीं कक्षा पास की। दीना के पास पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं थीं। दीनदयाल के मामा का लड़का भी उसके साथ पढ़ता था। जब ममेरा भाई सो जाता या पढ़ाई नहीं करता था। तब दीना उसकी पुस्तकों से पढ़ लेते थे। अब दीना नवीं कक्षा में थे।

दीनदयाल को फिर भारी दुःख का सामना करना पड़ा। सन् 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई शिबू का भी देहान्त हो गया। उसे टायफायड हो गया था। इससे दीना को गहरा दुःख हुआ। दोनों भाइयों में बहुत अधिक प्यार था। नवीं कक्षा पास करने के बाद दीना राजघर से सीकर गये। वहाँ भी उन्होंने अपने अध्यापकों पर अपनी बुद्धि, लगन और परिश्रम की धाक जमा दी।

सभी उन्हें बहुत प्यार करते थे। हाईस्कूल की परीक्षा से कुछ माह पूर्व दीना बीमार पड़ गये। हाईस्कूल की परीक्षा आरम्भ हो गई। दीना ने अच्छी तरह अपने प्रश्नपत्र किए। दीनदयाल न केवल परीक्षा में प्रथम आये बल्कि कई विषयों में एक नया रिकार्ड भी बनाया। उसकी रेखागणित की उत्तर-पुस्तिका कितने ही वर्षों तक नमूने के रूप में रखी गई।

शिक्षा में सम्मान

दीनदयाल जी का प्रिय विषय गणित था। वह गणित में हमेशा अव्वल अंक प्राप्त करते थे। सीकर के महाराज को इस मेधावी छात्र के विषय में खबर मिली। उन्होंने एक दिन दीना को बुलाया। उन्होंने कहा, ‘'बेटा, तुमने बहुत ही अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। बताओ, तुम्हें पारितोषिक के रूप में क्या चाहिए?' दीना ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, 'केवल आपका आशीर्वाद।' महाराज उस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने दीना को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये और 10 रुपये प्रतिमाह विद्यार्थी-वेतन देकर आशीर्वाद दिया।

इसके बाद दीनदयाल कॉलेज में पढ़ने के लिए पिलानी चले गए। वहाँ भी सभी अध्यापक उनके विनम्र स्वभाव, लगन और प्रखर बुद्धि से बड़े प्रभावित थे। पढ़ाई में पिछड़े छात्र दीनदयाल से पढ़ते थे और मार्गदर्शन पाते थे। दीनदयाल इन सबको बड़े प्यार से पढ़ाते और समझाते थे। ऐसे कई छात्र हर समय उन्हीं के पास बैठे रहते थे।

दीनदयाल ने सन 1937 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी । इस परीक्षा में भी दीनदयाल ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलेज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए।

उन्होंने दीनदयाल को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल को अपनी संस्था में एक नौकरी देने की बात कही। दीनदयाल ने विनम्रता के साथ धन्यवाद देते हुए आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। बिड़ला जी इस उत्तर से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, 'आगे पढ़ना चाहते हो, बड़ी अच्छी बात है।

हमारे यहाँ तुम्हारे लिए एक नौकरी हमेशा ख़ाली रहेगी। जब चाहो आ सकते हो।' धन्यवाद देकर दीनदयाल चले गए। बिड़ला जी ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की। दीनदयाल को बी.ए. करना था। इसके लिए एस.डी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया। मन लगाकर अध्ययन किया। छात्रावास में रहते थे। वहाँ उनका सम्पर्क सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुआ। राजनीतिक चर्चाएँ काफ़ी-काफ़ी देर तक चलती थीं।

यहाँ आकर दीनदयाल में राष्ट्र की सेवा के बीज का स्फुरण हुआ। बलवंत महासिंघे के सम्पर्क के कारण दीनदयाल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे। इन सब व्यस्तताओं के बाद भी उन्होंने सन् 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये।

वे यहाँ पर श्नानाजी देशमुख और भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गयीं और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गयीं, जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयाल इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। इस कारण सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृत्ति बन्द कर दी गई।

धोती, कुर्ता, टोपी

पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी चाची के कहने पर धोती-कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मज़ाक में उन्हें 'पंडितजी' कहकर पुकारा - यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे।

इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर 'बेसिक ट्रेनिंग' (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में ज़िला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में दीनदयाल उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।

देश सेवा

पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि 'हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं।

प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह 'पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

राष्ट्र धर्म प्रकाशन

अब दीनदयाल जी ने लखनऊ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था। यहाँ उन्होंने राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरुआत की।

सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 'नेहरू - लियाकत समझौते' का विरोध किया और मंत्रिमंड़ल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डॉ. मुखर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरु जी से मदद मांगी।

राजनीतिक सम्मेलन

पंडित दीनदयाल जी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डॉ. मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले 'अखिल भारतीय सम्मेलन' की अध्यक्षता की।

पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसंबर 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’।

परंतु अचानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। इस प्रकार उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए।

प्रखर पत्रकार,गंभीर लेखक

पंडित जी एक प्रखर पत्रकार और बहुत ही गंभीर लेखक थे। पंडित जी ने बहुत कुछ लिखा है। जिनमें एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति, जीवन का ध्येय राष्ट्र जीवन की समस्याएं, राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान, इनको भी आज़ादी चाहिए, अमेरिकी अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा, बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात, द ट्रू प्लान्स, डिवैलुएशन ए, ग्रेटकाल आदि हैं।

उनके लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुनर्प्रतिष्ठा और विश्व विजय। उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि है।

मृत्यु या ह्त्या

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की सिर्फ़ 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय रहस्यमय हालात में मृत्यु हुई। उनका पार्थिव शरीर मुग़लसराय स्टेशन के यार्ड में पड़ा पाया गया।

भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया। दीन दयाल जी के निधन के बाद देश में एक तूफ़ान सा उठा था क्योकि जिस तरह से उनका शव मिला था उससे साफ़ पता चल रहा था की उनकी मृत्यु सामान्य नहीं थी। उस समय जनसंघ के सभी बड़े नेताओ ने उनकी मृत्यु की जांच के लिए काफी आंदोलन किया था।

संसद में भी यह मामला काफी गंभीरता से उठा था। स्वयं अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि दीनदयाल जी की मृत्यु की जांच के लिए एक आयोग बनाया जाना चाहिए। संसद में अटल जी के भाषणों पर केंद्रित पुस्तक में इस प्रकरण पर बाकायदा एक अध्याय भी है, लेकिन यह उतना ही दुखद भी है कि भारत को एकात्म मानव वाद जैसा दर्शन देने वाले इस महामनीषी की मृत्यु के कारणों का आज तक पता नहीं चल सका।

Manali Rastogi

Manali Rastogi

Next Story