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सिर्फ कागज तक सीमित आपदा प्रबंधन
मदन मोहन शुक्ला
केरल में आई बाढ़ को कई पर्यावरणविदों ने मानव निर्मित आपदा करार दिया है। सबने यहां तेजी से हो रही जंगलों की कटाई और पर्यटन में वृद्घि को इसकी मुख्य वजह माना है। लेकिन इससे भी बड़ी बात है आपदा प्रबंधन का बुरी तरह फेल हो जाना। इस साल की शुरुआत में केन्द्रीय गृह मंत्रालय के एक आंकलन में केरल को बाढ़ के मामले में सबसे असुरक्षित 10 राज्यों में रखा गया था। देश में आपदा प्रबंधन नीतियां भी हैं लेकिन इस रिपोर्ट के आने के बाद भी केरल में इससे निपटने के लिये कोई कारगर कदम नहीं उठाये गए।
हमारे शहर लगातार बाढ़ की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। दुर्भाग्य है कि हम पूर्व के अनुभवों से सीख नहीं ले रहे। याद करें जून 2013 की उत्तराखण्ड के कदारनाथ घाटी की बाढ़ जिसमें पूरी केदारनाथ घाटी शमशान में तब्दील हो गई थी। इसी तरह सितम्बर 2014 में श्रीनगर में आयी जल प्रलय ने सवाल खड़े किए। एक अध्ययन के मुताबिक श्रीनगर में बाढ़ से हुई तबाही का प्रमुख कारण वहां की झीलों के खस्ताहाल ड्रेनेज सिस्टम थे। इन सभी जगह जिस तरह का आपदा प्रबंधन होना चाहिए था वैसा नजर नहीं आया। नतीजतन जान-माल की भारी क्षति हुई।
आपदा प्रबंधन के मामले में आपदा के समय इन्तजाम और सामान्य सुुरक्षा की राह में आने वाली दिक्कतें तो बहुत हैं लेकिन सबसे बड़ी अड़चन सरकारी मशीनरी की संवेदनहीनता है। बाढ़, समुद्री तूफान और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं देश के किसी न किसी भाग में आती रहती हैं। लेकिन इससे होने वाली तबाही इस बात पर निर्भर करती है कि वह जगह इनसे कितनी प्रभावित होती है। जिन विकसित देशों में प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देने वाले आधुनिक तन्त्र और राहत कार्यक्रम का सिस्टम मौजूद है, वहां आपदाओं के कारण होने वाली तबाही कम हो जाती है। अमेरिका की ही बात करें तो वहां बड़े तूफान की पूर्व सूचना, लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाना और आपदा के दौरान व बाद में राहत व बचाव कार्य इसके उदारहण हैं। थाईलैंड में एक खतरनाक गुफा में फंसे लोगों को जिस तरह बचा कर निकाल लिया गया वह भी आपदा प्रबंधन का नायाब नमूना है। लेकिन जिन देशों में तैयारी कम होती है या कामचलाऊ तैयारी होती है और राहत कार्यक्रम पुख्ता नहीं होते वहां आपदाओं से बहुत विनाश होता है। जैसा कि भारत में बराबर देखा जाता रहा है।
विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के चलते देश के सकल घरेलू उत्पाद के दो प्रतिशत के बराबर नुकसान होता है। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आपदाओं का प्रभाव गरीबों पर उनके अनुपात से ज्यादा पड़ता है।
संयुक्त राष्ट्र की अन्तरर्राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण एजेंसी (यूएनआईएसडीआर) ने 2005 में प्राकृतिक आपदाओं से सम्बन्धित ह्यूगो कार्यवाही मसौदा तैयार किया था, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं। इसमें आपदा प्रबन्धन जोखिम कम करने के लिए सामाजिक, आर्थिक विकास और नियोजन के अलावा राजनीतिक,तकनीकी सामाजिक शैक्षणिक विकास एवं मानवीय प्रक्रियाएं अपनाने की पैरवी की गई है। केन्द्र सरकार ने अगस्त 1999 में जे.सी.पन्त, पूर्व कृषि सचिव, तथा कुछ विशेषज्ञों और अधिकारियों को मिलाकर एक आपदा प्रबन्धन उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया। इसे आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में संस्थागत सुधार के उपाय सुझाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। समिति को यह अधिकार भी दिया गया कि वह राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर व्यापक योजनाएं तैयार करे। इसके गठन के कुछ समय बाद समिति के कार्यक्षेत्र में वृद्घि की गई और इसमें मानवकृत आपदाएं भी शामिल कर ली गईं।
उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन के तुरन्त बाद 29 अक्टूबर,1999 को ओडीशा तट पर जबरदस्त तूफान आया जिसमें 10 हजार लोग मारे गए। इसके एक वर्ष चार महीने बाद गुुजरात के भुज इलाके में भीषण भूकम्प आया। इस आपदा के कारण लगभग 50 हजार लोग मारे गए और 6 लाख लोग वेघर हो गए। 26 दिसम्बर 2004 को हिंद महासागर में सुनामी ने दस्तक दी जिसका भारत पर जबरदस्त असर पड़ा। तब महसूस किया गया कि चेतावनी, तालमेल और आपदा प्रबन्धन के कार्यों में भारी अन्तर है। इसके बाद एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक और मानवकृत आपदाओं से निपटने की जरूरत पर जोर दिया गया। इस बैठक के बाद भारत सरकार ने आपदा प्रबन्धन पर एक कानून बनाने का निश्चय किया। 2005 में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की स्थापना की गई।
भारतीय सन्दर्भ में यदि हम प्राकृतिक आपदाओं की बात करें तो आपदाओं से ज्यादा इसके समुचित प्रबन्धन पर चर्चा जरूरी है। वर्ष 2001 में जब भीषण भूकम्प आया था तब सरकार ने घोषणा की थी कि देश में आपदा प्रबन्धन को विश्वस्तरीय बनाया जायेगा। आज 1७ साल बाद भी हम देश में आपदा प्रबन्धन की तैयारियों को देखें तो कोई खास बदलाव नहीं दिखेगा।
बेहतर आपदा प्रबन्धन के लिये दो बातों को बराबर ध्यान में रखना चाहिए होता है - जानकारी और बचाव। किसी भी आपदा या आकस्मिक घटना की स्थिति में नुकसान से बचाव में ‘जानकारी’ अहम् भूमिका निभा सकती है। जानकारी यानी आपदाएं क्या हैं, कितने प्रकार की होती है, कैसे और कब आती हैं, किस तरह का नुकसान करती हैं आदि। यदि आपदाओं के सम्बन्ध में क्या, क्यों और कब, कैसे आदि सवाल और उसके उत्तर जान लें तो आपदा का प्रबन्धन सहज हो जायेगा। लेकिन सच्चाई ये है कि प्रशासनिक ढीलापन, भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हमारी आपदा प्रबन्धन नीति और कार्यपालन दोनों ही सटीक नहीं बन पाए हैं। कई कारणों से राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की पहुंच आपदा सम्भावित क्षेत्र तक नहीं हो पाई है। सिक्किम और पूर्वोत्तर क्षेत्र में आए भूकम्प के बाद करीब एक हफ्ते बाद तक भी कुछ इलाकों से सम्पर्क स्थापित न हो पाना यह दर्शाता है कि हमारा आपदा प्रबन्धन तन्त्र अभी तक दुरुस्त नहीं है।
आपदा के बाद पुनर्वास और पुर्ननिर्माण के लिये बेहतर ढंग से नियोजन एक महत्वपूर्ण तथ्य है आपदा प्रबन्धन का। इसी से ही आपदाओं से होने वाले नुकसान से निकट भविष्य में काफी हद तक बचा जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)