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दुर्भाग्यपूर्ण: नैतिक पतन की हदें पार करते राजनीतिक दल
डा. नीलम महेन्द्र
कुछ समय पहले अमेरिका के एक शिखर के बेसबॉल खिलाड़ी, जो वहां के लोगों के दिल में स्टार की हैसियत रखते थे, पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप लगा। परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अभाव में वह अदालत से बरी कर दिए गए जबकि जज पूरी तरह आश्वस्त थे कि कत्ल उसने ही किया है क्योंकि फैसला कानून के दायरे में ही किया जाता है। इसलिए अभियुक्त को बरी करना पड़ा। अदालत या फिर कोई संवैधानिक संस्था चाहे कहीं की भी हो, द्वारा इस प्रकार के फैसले दिए जाना कोई नई या अनोखी बात नहीं है, लेकिन अदालत के इस फैसले के बाद जो अमेरिका में हुआ वह जरूर अनूठा था।
कोर्ट से बाइज्जत बरी होकर ये स्टार खिलाड़ी जब अपने महलनुमा घर पहुंचे तो उनके चौकीदार ने उन्हें घर की चाबियां देते हुए कहा कि उनके दर्जन भर सेवक अदालत के फैसले से आहत होकर त्यागपत्र दे चुके हैं और वह खुद भी केवल उन्हें चाभियां सौंपने के लिए ही रुका हुआ था। इतना ही नहीं, जब उन्होंने अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट में टेबल बुक करनी चाही तो उन्हें मना कर दिया गया। जब वह स्वयं रेस्टोरेंट पहुंच गए तो वह लगभग खाली था, फिर भी उन्हें टेबल नहीं दी गई। वैसे तो यह प्रसंग पुराना है, लेकिन वर्तमान चुनावी दौर में प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि जिस प्रकार से आज देश का लगभग हर राजनेता और राजनीतिक दल ‘राज’ की चाह में नैतिक पतन की हदें पार करते जा रहे हैं वह वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है इन मामलों में चुनाव आयोग के फैसले और उनका असर। चाहे धर्म अथवा जाति के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करने वाले बयान हों या धन बल के प्रयोग से मतदाताओं को प्रलोभन देकर संविधान की धज्जियां उड़ाते नेता हों या फिर अश्लीलता की सारी हदें पार करते बयान हों।
चुनाव आयोग ने इन नेताओं के चुनाव प्रचार करने पर 48 से 72 घंटे तक का प्रतिबंध लगाकर जो ‘सख्ती’ दिखाई है वह कितनी असरदार रही, यह तो चुनाव आयोग के फैसले के तुरंत बाद नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों ने साफ कर दिया है। सिद्धू बिहार की एक सभा में न केवल मुसलमानों को एकजुट होकर मतदान करने के लिए प्रेरित कर रहे थे बल्कि गुजरात की सभा में तो प्रधानमंत्री पर हमले करते हुए वह भाषा की मर्यादा तक लांघ गए। वहीं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत देश के राष्ट्रपति के पद तक को जातिगत राजनीति में लपेटने की कोशिश करते दिखे। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के कलाकार तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करते पाए जाते हैं। चुनावी राजनीति में जिस प्रकार के आचरण का आज देश साक्षी हो रहा है उससे स्पष्ट है कि चुनावी आचारसंहिता तो दूर की बात है, व्यक्तिगत नैतिक आचरण की संहिता भी भुला दी गई है। राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता की जगह अब सियासी दुश्मनी ने ले ली है।
राम मनोहर लोहिया का कहना था कि लोकराज लोकलाज से चलता है, लेकिन आज इन नेताओं ने लोकलाज को भी ताक पर रख दिया है। ऐसे माहौल में जब नेताओं में आत्म संयम लुप्त हो गया हो और कानून का डर न बचा हो तो राजनीतिक शुचिता को बचाने के लिए कुछ ठोस और बुनियादी कदम तो उठाने ही होंगे। तुलसीदास ने भी कहा है कि ‘भय बिन होत न प्रीत।’ आज जब राजनीतिक दल चुनावों में इस प्रकार का आचरण कर रहे हों जैसे चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था ही नहीं है तो उसे समझना चाहिए कि कानून या विधि का आधार है नैतिकता, जो दण्ड देने वाले और पाने वाले दोनों पर समान रूप से लागू होती है। इसका उद्देश्य होता है अपराध अथवा अनैतिकता का दमन ताकि दंड के भय से सभी अपनी-अपनी सामाजिक मर्यादाओं का पालन करें।
इसका मकसद होता है व्यक्ति की सोच में सुधार ताकि आरोपी को अपनी गलती का एहसास हो और वह उसका प्रायश्चित करके एक बदले हुए व्यक्तित्व के साथ मुख्यधारा में लौटे न कि अपने उसी आचरण को दोहराने के लिए 48 या 72 घंटों की समयावधि के खत्म होने का इंतजार करे। इसका एक प्रयोजन यह भी होता है कि ये फैसले दूसरों के लिए नजीर बनें ना कि उन्हें सिद्धू बनने के लिए प्रेरित करें। इसके लिए सख्त और कठिन फैसलों के अंतर को समझना चाहिए। इसके लिए खून के बदले खून और आंख के बदले आंख जैसे बदले वाले फैसले नहीं बल्कि बदलने वाले फैसले लेने की आवश्यकता होती है।
विदिशा जिले में छेड़छाड़ के एक मामले में कोर्ट का फैसला ध्यान देने योग्य है। इस मामले में आरोपी ने जब परीक्षा देने के लिए जमानत की अर्जी यह कहते हुए दी कि उसका साल खराब हो जाएगा तो जज ने यह कहते हुए उसकी जमानत की अर्जी मंज़ूर की कि आरोपी को सप्ताह में तीन दिन जिला अस्पताल में मरीजों की सेवा करनी होगी।
इसलिए भले ही चुनाव आयोग अपनी सीमित शक्तियों की दुहाई देकर निष्पक्ष और आदर्श चुनाव कराने में अपनी बेबसी जाता रहा हो, लेकिन अपनी मौजूदा शक्तियों के दायरे में भी वो राजनेताओं को अपना आचरण बदलने के लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन इस सबसे परे जिस दिन देश की जनता ने, जिसे लोकतंत्र का महानायक कहा जाता है, अमेरिका की जनता की तरह अपना फैसला सुना दिया उस दिन शायद हालात बदल जाएं।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)