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कविता, लाल रंग: पिछले होली रंगा था, जो तुमने मुझे.......
आर्यावर्ती सरोज
सुनो !
पिछले होली रंगा था,
जो तुमने मुझे.......
वो रंग अभी उतरा नहीं
जब वाह्यांतर रंग चुका हो
प्रीत के गुलाबी रंग से....
फिर कैसे चढ़ेगा ?
कोई और रंग??
मेरे कपोल गुलाबी,
मेरे अधर गुलाबी,
अंग गुलाबी-रंग गुलाबी,
हाव-भावसब भए गुलाबी
अब ये रंग न उतरेगा
और न इस पर चढ़ेगा
अब कोई भी रंग।
सुनो !
अबकी होली में जब आना
सूर्खलाल रंग लेकर आना
मेरी मांग भर जाना ........
जो जीवन में कभी न उतरे
प्रेम का रंग वो लेकर आना
साल भर पर नहीं............
सिफऱ् फागुन में नहीं,
नित-दिन मेरी मांग भरे
वो सूर्ख लाल रंग लेकर आना
चूडिय़ाँ, बिंदी, होठों की लाली
और मेरी साड़ी.............
सुहागन बन रंग जाऊँ मैं
भीतर -बाहर लाल रंग
जो तुम्हारे साथ होने का प्रतीक हो।
वो चटक, गहरा लाल रंग।।
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