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कविता: है कैक्टस सा व्यक्तित्व मेरा
नीरज त्यागी
अनभिज्ञ नहीं मैं, अज्ञात नहीं मैं,
जीवन की अब हर कठिनाई से।
अनजान बना रहता हूँ मैं,
अब मौत की भी सच्चाई से।
ज्ञान मेरे मन में बहुत भरा,
कुछ लोगों में ये अहम भरा।
परिचित मैं ऐसे लोगों से भी,
फिर भी मैं सर झुकाए खड़ा।
बिल में छुपे मुसक की सच्चाई
भी हर पल हर दम समक्ष मेरे।
हर पल हर दम छला जाने पर
भी हर समय मुस्कुराने का भी
मैं हो गया अब अभ्यस्थ बड़ा।
अपमानित हूँ हर पल हर दम,
ना बचा पाया हूँ सम्मान मेरा।
माना कि रंग बिरंगे महकते फूलों
में है कैक्टस सा व्यक्तित्व मेरा।
चुभना है तो चुभेगा ही,
नहीं है चमचागिरी व्यक्तित्व मेरा।
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