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कविता: कोई और छाँव देखेंगे

raghvendra
Published on: 17 Nov 2018 12:36 PM IST
कविता: कोई और छाँव देखेंगे
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डॉ. तारा प्रकाश जोशी

कोई और छाँव देखेंगे

लाभों घाटों की नगरी तज

चल दे और गाँव देखेंगे

सुबह सुबह के

सपने लेकर, हाटों हाटों खाए फेरे

ज्यों कोई भोला बंजारा पहुँचे कहीं ठगों के डेरे

इस मंडी में ओछे सौदे कोई और

भाव देखेंगे

भरी दुपहरी

गाँठ गँवाई, जिससे पूछा बात बनाई

जैसी किसी गाँव वासी की महानगर ने हँसी उड़ाई

ठौर ठिकाने विष के दागे कोई और

ठाँव देखेंगे

दिन ढल गया

उठ गया मेला, खाली रहा उम्र का ठेला

ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर खेला रह जाए अनखेला

हार गए यह जनम जुए में कोई और

दाँव देखेंगे

किसे बताएँ

इतनी पीड़ा, किसने मन आँगन में बोई

मोती के व्यापारी को क्या, सीप उम्रभर कितना रोई

मन के गोताखोर मिलेंगे कोई और

नाव देखेंगे।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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