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Political Consultancy: लोक पर हावी होता प्रबंध तंत्र
उद्योग संगठन एसोचैम के एक अनुमान के मुताबिक 2014 में लगभग 150 छोटे बड़े राजनीतिक सलाहकार थे। अब मौजूदा आंकड़ा 300 से ज्यादा आंका गया है।
Article Of Yogesh Mishra: नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) की भारतीय जनता पार्टी (BJP) से लगातार शिकस्त खा रही कांग्रेस पार्टी (Congress Party) को अब उबरने के लिए अपने नेताओं पर भरोसा नहीं रहा? यह बात पार्टी में प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) के प्रवेश को लेकर चल रही बातचीत से साफ होती है। प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) इन दिनों राजनीतिक दलों के खेवनहार बन कर के उभरे हैं। कहा जाता है 2014 में प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) कांग्रेस का काम करने की मंशा से दिल्ली पधारे थे। पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से समय न मिलने के कारण राजनीतिक पर्यटन के लिए गुजरात के गांधीनगर जा पहुँचे। वहाँ नरेंद्र मोदी लोकसभा के लिए अपनी तैयारी में मशगूल थे।
प्रशांत किशोर नहीं होते तो नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना था मुश्किल
बतौर मुख्यमंत्री सबसे मिल लेने और काम का तुरत फुरत निपटारा कर देने की अपनी आदत के चलते प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) को नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के लिए काम करने का अवसर मिल गया। भाजपा (BJP) पहली बार केंद्र में अपने बूते स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई। नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) प्रधानमंत्री बने। इस सफलता के बाद प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) का भाव आसमान छूने लगा। बताया व समझाया जाने लगा कि प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) नहीं होते तो नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुश्किल था। प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की महिमा को स्वीकार करने से पहले उस समय के हालात पर नज़र डालना ज़रूरी हो जाता है।
गंभीर व कई भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में थी मनमोहन सिंह सरकार
मनमोहन सिंह सरकार (Manmohan Singh government) गंभीर व कई भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में थी। महिलाओं को लेकर सरकार की सोच की निर्भया कांड ने कलई खोल कर रख दी थी। लचर सरकार और आकंठ भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हज़ारे अनशन पर थे। मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) यह कह चुके थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है। मुज्जफरनगर दंगे के समय सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh), सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी (rahul gandhi) ने भी मुजफ्फरनगर के दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर घटनास्थल का मुआयना किया। वे केवल मुसलमानों के पास ही गये। तुष्टिकरण चरम पर था। पर जनता तुष्टिकरण से निजात चाहती थी। इन सब ने कांग्रेस के पराभव की स्थिति तो पैदा कर दी थी। लेकिन नरेंद्र मोदी के आने की स्थिति अस्सी बनाम बीस की चुनावी लड़ाई ने दिखाई।
2014 में थे लगभग 150 छोटे बड़े राजनीतिक सलाहकार
इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) भले ही देश के चुनावी क्षेत्र के सबसे मशहूर सुल्तान हों। लेकिन उनकी जमात पिछले कुछ सालों में, खासकर 2014 के चुनाव से तेजी से बढ़ रही है। उद्योग संगठन एसोचैम के एक अनुमान के मुताबिक, 2014 में लगभग 150 छोटे बड़े राजनीतिक सलाहकार थे। अब मौजूदा आंकड़ा 300 से ज्यादा आंका गया है। इनके नाम कुछ भी हो सकते हैं-राजनीतिक सलाहकार, अभियान प्रबंधक, राजनीतिक विश्लेषक या राजनीतिक रणनीतिकार। इन सबका धंधा चुनाव लड़वाने और जितवाने का है। मंत्र है- पैसा खर्च कीजिये, हमारी सलाह पर चलिए और वोट बटोरिये। जनसेवा में ज्यादा मगजमारी मत करिए।
प्रणय रॉय, विनोद दुआ, दोराब आर. सोपारीवाला, जीवीएल नरसिम्हा राव और योगेंद्र यादव या अब प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) - ये सब चुनाव के बिजनेस से आगे बढ़े हैं। जहां पहले चुनाव का विश्लेषण और नतीजों का अनुमान लगाया जाता था वहीं अब चुनावी रणनीति का बिजनेस छाया हुआ है। इसमें तरह तरह के लोग और कंपनियां लगी हैं। क्योंकि भारत में चुनांवी मौसम सदाबहार रहता है सो इसमें लोगों और कंपनियों की सदा जरूरत बनी रहती है।
1980 में दो युवा अर्थशास्त्रियों- प्रणय रॉय और अशोक लाहिड़ी ने भविष्यवाणी की थी कि कांग्रेस पार्टी सातवें लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करेगी। चुनाव विज्ञान भारत में उस समय बहुत सीमित था। रॉय और लाहिरी ने रुझानों का अध्ययन कर कांग्रेस की जीत का अनुमान लगाया गया। उनका अनुमान सही साबित भी हुआ। इसके साथ भारत में चुनाव विज्ञान ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी
चुनाव मैनेजमेंट से 700 से 800 करोड़ रुपये का किया था बिजनेस
एसोचैम के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में कंसल्टिंग फर्मों ने प्रत्याशियों के चुनाव मैनेजमेंट से 700 से 800 करोड़ रुपये का बिजनेस किया था। ये कंसलटेंट प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से 50 लाख रूपये के करीब चार्ज करते हैं।उनमें से कई आईआईटीयन और मैनेजमेंट पेशेवर हैं, जो मानते हैं कि उनके कॉर्पोरेट मार्केटिंग मंत्र चुनावी क्षेत्र में समान रूप से प्रासंगिक हैं। वे ग्राहकों को 'मतदाता स्विंग' और 'लहर' का वादा करते हैं। हालांकि अधिकांश की राजनीति में कोई पृष्ठभूमि नहीं है, वे कहते हैं कि वे स्थानीय राजनीति की गतिशीलता और मतदाताओं की प्रवृत्ति को अपने ग्राहकों से बेहतर समझते हैं। मिसाल के तौर पर गुरुग्राम स्थित पॉलिटिकल एज अपने ग्राहकों के लिए 2 से 3 फिसफी वोट स्विंग का आफर देती है। इसके लिए डिज़ाइन किया गया पैकेज 21-दिन का होता है। इन सलाहकारों का कहना है कि इंटरनेट ने चुनावों को एक अलग तरह से बदल दिया है। अब उम्मीदवारों को तकनीकी और सोशल मीडिया चुनौतियों का सामना करने के लिए कंसल्टेंट की जरूरत होती ही है।
चुनाव विज्ञानी, कॉन्सल्टेंट या कोई अन्य नाम कहें, ये सब लोगों की राय जानने का काम, सोशल मीडिया प्रचार, डेटा विश्लेषण, प्रचार रणनीति, आदि का काम करते हैं। ये मैनेजमेंट, पोलिटिकल साइंस, इंजीनियरिंग आदि किसी भी क्षेत्र के लोग हो सकते हैं। इनकी टीमों में लगे लोग अमूमन 50 से 60 हजार रुपये वेतन पाते हैं। कई राजनीतिक दल कंसलटेंट की सेवाएं लेने के साथ साथ अपनी खुद की टीम भी चुनावी दौर में लगाते हैं जिनको वॉर रूम का नाम दिया जाता है। वॉर रूम और कुछ नहीं बल्कि एक ऐसा दफ्तर होता है जहां एक ही स्थान पर बैठ कर चुनाव विज्ञानी एक जैसा काम करते हैं।
पीके ने 2013 में सिटीजन फॉर एकाउंटेबल गवर्नेंस की शुरुआत
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) या पीके ने 2013 में एक एनजीओ संस्था के रूप में सिटीजन फॉर एकाउंटेबल गवर्नेंस की शुरुआत की। दो साल बाद, इसका नाम बदलकर इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी कर दिया गया, जिसने तब से पांच चुनावों में उम्मीदवारों के लिए रणनीति बनाई और प्रचार किया। 2014 में, इसने 'मोदी ब्रांड' बनाने के लिए कुछ प्रमुख अभियान शुरू किए। जैसे चाय पे चर्चा और स्टैच्यू ऑफ यूनिटी आंदोलन; इसने मोदी के साथ पहली बार भारत में 3डी होलोग्राम रैलियों को लागू किया, जबकि उन्हें विकास पुरुष के रूप में प्रचारित किया। तबसे पीके काफी आगे बढ़ चुके हैं। पार्थ प्रतिम दास जब आईआईएम-बैंगलोर में पढ़ रहे थे तब उन्होंने अपने अंतिम प्रोजेक्ट के लिए डॉ अजय सिंह को सलाह दी, जो 2013 में कर्नाटक के जेवरगी से चुनाव लड़ रहे थे। अजय सिंह ने मौजूदा भाजपा विधायक को 36,700 मतों से हराया। दास ने नवंबर 2013 में अरिंदम मन्ना और उनकी टीम के साथ राजनीतिक रणनीति फर्म चाणक्य की स्थापना की और आज वे एक बड़े कन्सल्टेंट हैं।
तुषार पांचाल ने 2016 में वॉररूम स्ट्रैटेजीज की स्थापना
इसी तरह, तुषार पांचाल ने 2016 में वॉररूम स्ट्रैटेजीज की स्थापना की। इसकी 40 सदस्यीय टीम है, जिसने 2018 के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान 700 और लोगों को उनके साथ काम करने के लिए नियुक्त किया। एक राजनीतिक अभियान आमतौर पर बनने में महीनों का समय होता है और प्रत्येक रणनीतिकार का अपने उम्मीदवार के लिए एक अलग दृष्टिकोण होता है। आम तौर पर, रणनीतिकार एक राजनेता या राजनीतिक दल को शुरू से अंत तक सेवाएं देते हैं, और चुनाव से पांच से छह महीने पहले काम शुरू करते हैं। पर सवाल यह उठता है कि राजनेताओें की खेप को क्या लकवा मार गया है कि इन चुनावी महारथियों की ज़रूरत आन पड़ी है। काफ़ी पहले नेता माफ़ियाओं व बाहुबलियों की मदद चुनाव जीतने के लिए लिया करते थे। पर इनसे जनता के सामने मिलना संभव नहीं था।
नतीजतन नेता से ये एलीमेंट रात को मिलते थे। बाद में ये खुद माननीय बन बैठे। यही हाल धनपतियों का भी हुआ। आज अस्सी पच्चासी फ़ीसदी माननीय धनपति हैं। हद तो ये है कि इसने चुनाव को इतना महँगा कर दिया है कि आज आम आदमी चुनाव लड़ने की स्थिति में ही नहीं है। जिस तरह चुनावी प्रबंधन के लिए इलेक्शन गुरुओं की मदद ली जा रही है, उससे इस भय का दिखना स्वाभाविक है कि सरकारें बना कर ये चुनावी टेक्नोक्रेट नेताओं को दे दिया करेंगे। इसके बदले आमदनी में कट या फिर सरकार को सबलेट करने का मज़ा लेते रहेंगे।जो लोक के लिए, देश के लिए ठीक नहीं होगा।
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