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अमा जाने दो: गालीगलौज के हाल- सियासत बहुत बेहया हो गई है

raghvendra
Published on: 1 Dec 2018 12:56 PM IST
अमा जाने दो: गालीगलौज के हाल- सियासत बहुत बेहया हो गई है
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नवल कान्त सिन्हा

कसम से कभी सोचा न था कि इस पर भी लिखना पड़ेगा, लेकिन राजनीति जो न कराये। पहले राज बब्बर ने रुपये की तुलना पीएम की मां से कर दी, फिर कांग्रेस नेता विलास मुत्तेमवार ने कह डाला कि मोदी के पिता का नाम कोई नहीं जानता। अब मोदी ठहरे गुजरात के व्यापारीचरित्र। चायवाला विशेषण बेचकर पीएम बन चुके हैं। गालीगलौज पर काहे दुकान न लगाते। कहा कि मां को गाली देने से कांग्रेस को कुछ फायदा नहीं हुआ तो वो पिता को चुनाव में घसीटने लगी।

अब हमने जब गालियों का इतिहास पढ़ा ही नहीं तो इसका सियासी असर कैसे खोजें। मां की गाली तो सुनी थी, लेकिन पिता की गाली पहली बार सुनी। गाली की परिभाषा तो कुछ ऐसी होगी- किसी शब्द को गाली तब कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति अंतर्निहित क्रोध और शत्रुता के साथ किसी दूसरे व्यक्ति की बलपूर्वक आलोचना, अपमान व निंदा करता है। ऐसा मौखिक व्यवहार करता है कि जो अपमानित या उकसाने वाला हो। मनुस्मृति में जिन अपराधों पर चर्चा हुई है, उसमें गाली देना शामिल नहीं है।

खैर, हमें इन सबसे क्या, हम तो इतना जानते हैं कि गालियां पूरी दुनिया में पुष्पित- पल्लवित हो रही हैं। चीन में ‘कछुआ’ गाली है, थाईलैंड में ‘हिय्या’ (मॉनिटर छिपकली), मेडागास्कर में ‘डोंद्रोना’ (कुत्ता), ‘अम्बोआ राजाना’ (कुत्ते का बच्चा), जावा में ‘आसु’ (कुत्ता), ‘अनक कम्पांग’ (सडक़ का बच्चा), इंडोनेशिया में ‘ताई लोसो’ (गंदा मल), मलेशिया, सुमात्रा में पुकिमा, ताइवान में ‘फुआ बा’ (बर्बाद वेश्या) गंदी गाली है। कहीं-कहीं तो शब्दों के बजाय अंकों में भी गाली दी जाती है। चीन में नंबर 2 अपमान है, भारत में 10 नम्बरी, 420 गाली है। गालियां कोर्ट भी तय भी करती हैं जैसे कि 377 पहले गाली थी, अब जीवन पद्धति।

कुल मिलाकर गालियां पांच तरह की हुईं। रिश्तों के यौन-सम्बन्ध आधारित, अंग-विशेष आधारित, जानवरों के नाम वाली, जाति-नस्ल आधारित और स्त्रीलिंग-पुलिंग आधारित। वैसे विभिन्न संस्कृतियों में गालियों का मापदंड अलग है। कहीं खास रिश्तो में यौन संबंधों को बुरी गाली समझा जाता है तो कहीं-कहीं खास अंगों और उत्पादों को, जैसे मल से तुलना यानि शिट, बुलशिट। अब जैसे भारत में बहन से शब्द से जोडक़र गाली है तो यूरोप व अमेरिका में ऐसी कोई गाली ही नहीं है। कुछ भाषाओं में गालियों का स्त्री-पुरुष पर अलग-अलग असर है। लिंग से गालियां तय होती हैं जैसे कि स्पेनिश गाली है जोर्रा, मतलब है लोमड़ी, लेकिन महिला को कहा तो मतलब चरित्रहीन और पुरुष को कहा तो चालाक। अब पुर्तगाल में वाका गाली है, पुरुष हो तो ताकतवर सांड और महिला हो तो दुश्चरित्र। जबकि वाका का अर्थ है गाय। हमारे देश में तो गाय सरलता की उपाधि है। योगीजी सुन लें तो पुर्तगालियों से खफा हो जाएं। वैसे योगीजी से एक शब्द ‘मादर-ए-वतन’ याद आया। मादर एक फारसी शब्द है। फिर इस शब्द से कोई गाली है तो उस पर रोक लगनी चाहिए। हराम भी तो अरबी शब्द है। इस प्रकार रामजादा और हरामजादा दोनों विदेशी शब्द हुए। हालांकि दोनों भारतीय राजनीति में ढंग से पहचाने जाते हैं।

सियासी गालियों में अंग्रेजी में ‘सिकुलर’, ‘आपटार्ड’, ‘भक्त’ की गूंज है। ‘शहरी नक्सलवाद’ गाली में दर्ज हो चुका है। ‘15 लाख’ बोल दीजिये भाजपाई चिटक जायेंगे, चड्ढीवाला बोलिए भडक़ जाएंगे। पप्पू, बोफोर्स, गुलाम बोल दीजिए कांग्रेसी चिढ़ जाएंगे। चारा सुनते ही राजद वालों का खून खौल जाता है। बनारस के अस्सी पर तो सियासी अर्थों वाला गालियों का पूरा एक सम्मेलन होता था। आज भी वहां होली में गालियों के तमाम रंग बिखरते हैं। साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने गाली आधारित एक उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ लिख डाला तो उस पर बनी फिल्म में हीरो सनी देयोल गाली देते नजर आए। दरअसल फिल्में गाली में डूबती जा रही हैं। फिर नेता भी क्यों न दें गालियां। वैसे सियासत में गालीगलौज के हाल पर अब्बास सुल्तानपुरी का एक शेर याद आ गया-

लबादा शराफत का कोई उढ़ा दे,

सियासत बहुत बेहया हो गयी है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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