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प्रदूषण से लड़ना जरूरी: खिलाड़ियों ने मास्क के साथ मैच खेलकर बनाई सुर्खियां

raghvendra
Published on: 15 Dec 2017 10:34 AM GMT
प्रदूषण से लड़ना जरूरी: खिलाड़ियों ने मास्क के साथ मैच खेलकर बनाई सुर्खियां
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वेदव्रत काम्बोज

दिल्ली में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम के खिलाडियों ने मास्क के साथ मैच खेलकर दिल्ली के वायु प्रदूषण को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है। कुछ लोग भले ही श्रीलंका क्रिकेट टीम के इस कृत्य को अपनी हार टालने का ड्रामा कहें, पर हम, आप और विशेषज्ञ यह अच्छी तरह जानते हैं कि दिल्ली और देश के कुछ अन्य शहर गैस चैम्बर बन चुके हैं, जो लोगों को बीमार कर उनकी जिन्दगी के पांच से छह साल चुरा रहे हैं। बच्चे और वृद्ध वायु प्रदूषण से अकाल मौत के शिकार हो रहे हैं। खासकर सर्दियों के ये कुछ महीने तो वायु प्रदूषण के मामले में कहर बनकर टूटते हैं। देश की राजधानी दिल्ली तो विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल है।

विश्व के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 10 हमारे देश के ही हैं। यह हमारे लिये खतरे की घंटी है। अगर इस समस्या की हमने अभी भी सुध नहीं ली तो बाद में किए गए हमारे सारे प्रयास भी हमें राहत नहीं दिला पाएंगे। इसलिए इस मामले का हल निकालना अब जरूरी हो गया है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीआईसी-इंडिया) की एक रिसर्च का हवाला लें तो खुलासा होता है कि वायु प्रदूषण सिर्फ दिल्ली और सर्दियों तक सीमित नहीं है। कम से कम चार अन्य शहरों को वायु प्रदूषण के मामले में दिल्ली से कहीं अधिक बुरी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।

रिसर्च में पाया गया है कि पिछले दिनों प्रमुख प्रदूषक पीएम 2.5 या 2.5 माइक्रोमीटर्स के व्यास वाले कणों की वाॢषक सघनता गुरुग्राम, कानपुर, लखनऊ और फरीदाबाद में अधिक थी और पटना और आगरा में प्रदूषण की सघनता दिल्ली के समान थी। इसके बावजूद हमारी सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। दिल्ली सरकार का रवैया इस समस्या से निबटने में सबसे ठंडा है। वह यहां भी अपने लिए राजनीतिक फायदा टटोल रही है।

एनजीटी सरकार को लगातार फटकार लगा रही है, लेकिन आम आदमी पार्टी की सरकार सिर्फ कारों पर ऑड-ईवन लागू कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहती है। पता नहीं वह क्यों टू व्हीलर्स को ऑड-ईवन से दूर रखना चाहती है, महिलाओं को भी इससे छूट देना चाहती है? एनजीटी ने दिल्ली सरकार से साफ तौर पर कहा कि आप दो पहिया वाहनों के लिये छूट चाहते हैं, लेकिन आप दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर रहे कि ये 60 लाख वाहन सबसे ज्यादा प्रदूषण की वजह हैं।

उसने यह भी कहा कि एनजीटी को बताया गया था कि शहर की सडक़ों पर 4,000 बसें उतारी जाएंगी, लेकिन शहर की सरकार ने आश्वासन के तीन साल बाद एक भी बस नहीं खरीदी है। यहां बता दें कि एनजीटी ने 28 नवम्बर को आप सरकार और चार पड़ोसी राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान को प्रदूषण से निपटने पर एक कार्रवाई योजना सौंपने को कहा था, जिसका अभी तक कोई अता-पता नहीं है। इसे सरकारों की इस समस्या के प्रति उदासीनता और नकारेपन की इन्तहां न कहा जाए तो और क्या कहा जाए।

इसके बावजूद पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले लोग नागरिकों को जागरूक करने में लगे हुए हैं। उनका मानना है कि शहरों के वायु प्रदूषण में लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा सडक़ों की धूल का होता है और वाहनों से निकलने वाला धुआं करीब 20 प्रतिशत प्रदूषण फैलाता है। इन दो कारकों पर हमें जल्द से जल्द काबू पाना होगा। इसके लिए वैक्यूम क्लीनिंग मशीनों का इस्तेमाल, सडक़ों पर पानी का छिडक़ाव, डीजल व पेट्रोल से चलने वाले वाहनों की संख्या में कमी करना और बीएस-6 ईंधन के इस्तेमाल की व्यवस्था करने से करीब 75 प्रतिशत प्रदूषण कम किया जा सकता है।

इस दिशा में इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन और भी ज्यादा कारगर साबित होगा। शहर में एक सुचारु परिवहन व्यवस्था लोगों की निजी वाहनों पर निर्भरता को कम कर सकती है। इससे प्रदूषण के साथ-साथ ट्रैफिक जाम की स्थिति से भी निजात पाई जा सकती है। शहरों में स्थापित छोटे-बड़े उद्योगों को शहर से बाहर करना और शहर के कूड़े की उचित व्यवस्था के साथ आसपास के राज्यों में पुआल आदि जलाने पर प्रतिबंध लगाने से भी प्रदूषण से निबटा जा सकता है। ऐसे तमाम प्रयासों से राजधानी दिल्ली का प्रदूषण कम हो सकता है। कोई एक उपाय सिर्फ खानापूर्ति ही साबित होगा।

इसमें दो राय नहीं कि प्रदूषण की समस्या चुटकी बजाते ही हल नहीं की जा सकती। इसमें समय तो लगेगा ही, लेकिन शुरुआत आज से ही करनी होगी, नहीं तो हमारा कल हमारे लिए और हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए सांस लेने लायक नहीं रहेगा।

(लेखक पर्यावरणविद् हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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