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गरीब सवर्णों को आरक्षण: फिर बोतल से बाहर आया आरक्षण का जिन्न
मदन मोहन शुक्ला
लोकतन्त्र में जनता का समर्थन जुटाना एक चुनौती है। शार्टकट और सरल रास्ता अपनाने से समर्थन तो मिल सकता है पर जनता का प्यार और आशीर्वाद नहीं क्योंकि अंतत: उससे जनता का भला नहीं होता। मोदी सरकार का लोकसभा चुनाव से ठीक 100 दिन पहले आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण गरीब सवर्णों को देने का फैसला कुछ ऐसा ही कदम माना जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी की तीन राज्यों में हार के कारणों के केन्द्र में आर्थिक मुद्दे ज्यादा रहे। किसानों की बदहाली और बेरोजगारी की मार ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। किसानों के अलावा अनुसूचित जाति/जन जाति कानून में संशोधन के कदम से दलित आदिवासी खुश तो नहीं हुए परंतु सवर्ण जरूर नाराज हो गए। पार्टी का परम्परागत व्यापारी और मध्य वर्ग पहले से ही नाखुश है। यह स्पष्ट है कि सवर्णों में भारतीय जनता पार्टी सरकार के प्रति बढ़ते रोष को शांत करने के लिए आरक्षण का नया फार्मूला लाया गया है। वैसे, संसद में नए बिल पर बहस के दौरान विपक्ष ने बहुत वाजिब सवाल उठाया कि यह विधेयक सरकार के कार्यकाल के अंतिम चरण में ही क्यों लाया गया? फिर भी जैसा अनुमान था वही हुआ। सभी दलों ने थोड़ी ना नुकुर के बाद इसे पारित कर दिया। यह दर्शाता है कि आरक्षण का मुद्दा सभी दलों की राजनीतिक मजबूरी है।
बहरहाल, सरकार के इस कदम पर तीन सवाल उठ रहे हैं। पहला, संविधान में आरक्षण का प्रावधान उन जातियों और वर्गों के लिए किया गया है जो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। सरकारी नौकरियों, शिक्षा, राजनीति जैसी जगहों पर उनका प्रतिनिधित्व नहीं है। अगर इस आधार पर देखें तो दलित-पिछड़े वर्गों के मुकाबले सवर्ण आरक्षण तार्किक नहीं ठहरता। दूसरा, सामाजिक रूप से उपेक्षा या पिछड़ेपन के शिकार को आरक्षण दिया जाता है। इसका उद्देश्य ऐसे तबके को समाज की मुख्य धारा में लाना है। सवर्ण समुदाय इसमें नहीं आता। तीसरा, सवर्णों के सामाजिक आर्थिक स्तर या उनकी संख्या को लेकर अभी तक कोई सर्वे उपलब्ध नहीं है। जातिगत जनगणना की तो गई लेकिन उसे बीच में ही बन्द कर दिया गया।
दूसरा पहलू यह भी देखना है कि देश में बेरोजगारी दर 7.3 प्रतिशत है जो पिछले 23 महीने में सबसे ज्यादा है। केवल 2018 में एक करोड़ दस लाख लोगों की नौकरियां छिन गईं। संसद में खुद सरकार ने माना है कि केन्द्र सरकार में 24 लाख पद खाली हैं। कहीं बगैर नौकरियों के आरक्षण मात्र जुमला बन कर न रह जाए। जहां तक सवर्ण वर्ग को आरक्षण की बात करें तो पहले भी इस बारे में प्रयास हो चुके हैं। 1991 में मंडल आयोग लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण दिया जिसे कोर्ट ने 1992 में खारिज कर दिया। 1978 में बिहार में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने सवर्णों को 3 फीसदी आरक्षण दिया जिसे कोर्ट ने रद कर दिया। 201६ में राजस्थान में 14 फीसदी आरक्षण का एलान हाईकोर्ट ने रद कर दिया। हरियाणा में भी यही हुआ। 2016 गुजरात में 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा को हाईकोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। क्या मोदी सरकार के नए आरक्षण का भी भविष्य पूर्व पारित विधेयकों की तरह होगा? यह देखने वाली बात है।
आरक्षण विधेयक के अनुसार, ऐसे परिवार जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपए तक होगी उसे आर्थिक रूप से पिछड़ा माना गया है। इतनी आय आयकर के दायरे में होती है। यानी क्या आयकर देने वाला व्यक्ति आर्थिक तौर से पिछड़ा कहा जाएगा? अब यह मांग भी उठनी है कि ओबीसी, एससी, एसटी को आरक्षण बढ़ाया जाए। मांग जरूर उठेगी कि अगर 15 प्रतिशत सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण तो 85 प्रतिशत आबादी को 90 प्रतिशत आरक्षण क्यों नहीं। यह मामला अवश्य ही उच्चतम न्यायालय के सामने आएगा। उच्चतम न्यायालय पहले ही इंदिरा साहनी केस में साफ कह चुका है कि किसी नागरिक के पिछड़े होने का आधार आर्थिक नहीं हो सकता। दूसरा किसी जाति को सम्मिलित करने या हटाने का अधिकार केवल उच्चतम न्यायालय को होगा।
हर जाति को आरक्षण देकर हम किस तरह का समाज देना चाहते हैं। जाति, आर्थिक आधार वगैरह कितने टुकड़ों में आखिर समाज बांटा जाएगा और इसकी परिणीति क्या होगी?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)