×

प्यार का मुझे एहसास नहीं पर तुम प्यारी लगती हो...

पढ़ें ये कविताएं...

Network
Newstrack NetworkPublished By Vidushi Mishra
Published on: 27 Oct 2021 4:43 PM GMT
प्यार का मुझे एहसास नहीं पर तुम प्यारी लगती हो...
X

प्यार का मुझे एहसास नहीं पर तुम प्यारी लगती हो,

जानते हैं हर सांस से है दम मेरा पर तुम सांस हमारी लगती हो

यह आग ना जाने कैसी है जो जलने पर सुहानी लगती है,

पहले बारिश का तुम ठंडा पानी लगती हो

हाल मेरा अब है कि खुद को भूल चुका हूं मैं,

ना जाने क्यों तुम मुझको जानी पहचानी लगती हो

कभी हम भी हंसते थे कभी मेरे चमन में बहारें थी ,

इस टूटे हुए दिल की तुम अधूरी कहानी लगती हो

ना खुदा को मैंने देखा है ना परियों से कोई रिश्ता है,

फिर भी तुम मुझको परियों की रानी लगती हो

तुम चांद हो बेशक चमकती होगी आसमान में,

मैं दाग हूं जिसके कारण तुम इतनी प्यारी लगती हो

------


काश हर हसीन चेहरे के दिल में वफा होती

तो शायद दिल के दर्द की इस जहां में दवा होती

किसी का तसव्वुर ही मेरा चेहरा बदल देता है

दीदार ए नमनाक मे वो होती या उसके ख्वाबों की हवा होती

कैसे मेरी बेकरार आंखों को नींद आ जाए

ये सोती तो कहा गुलशन में शबा होती

हम भी उनकी तरह उन्हें भूल के जी सकते थे

बस दिल में हमारे थोड़ी सी जफा होती

------


काश हर हसीन चेहरे के दिल में वफा होती

तो शायद दिल के दर्द की इस जहां में दवा होती

किसी का तसव्वुर ही मेरा चेहरा बदल देता है

दीदार ए नमनाक मे वो होती या उसके ख्वाबों की हवा होती

कैसे मेरी बेकरार आंखों को नींद आ जाए

ये सोती तो कहा गुलशन में शबा होती

हम भी उनकी तरह उन्हें भूल के जी सकते थे

बस दिल में हमारे थोड़ी सी जफा होती

-----


फिर ख्वाब उन्हीं के सजाने लगे हैं हम

तनहाई में जो हमें रुलाते रहे

बातें बहुत सी कहानी थी तुमसे

और हम उन से नजरें मिलाते रहे

शायद मेरी हालत की खबर उनको हो गई

वो भी देख के हमे मुस्कुराते रहें

हमें दस्तूर जमाने का मालूम न था

जो कहना था जुबा से वो नजरों से बताते रहे

जिन की खातिर मिटा दिया खुद को

वो अंतिम हिचकी पर भी सताते रहे

उनके हाथों की मेहंदी के लिए बहाया दिल का लहू

और वो औरों के नाम की मेहंदी लगाते रहे

-----


अब हमें कौन सा दर्द सताएगा

जो खुद जख्म हो कौन उसे जख्मी बनाएगा

अब तो मय में मिलाकर पीते हैं लहू अपना

जब तक लहू है कौन अश्कों को मिलाएगा

अजनबी की तरह रहता हूं इस शहर में

गैरों की तरह इससे चला जाऊंगा

यहां तो अपने की कब्र पर चढ़ाते हैं गुल

कौन बेगानों पे दो अश्क बहाएगा

जहां में इन्सा को समझना इबादत है

ये कौन इन नादानो को समझाएगा

जिसकी नजर खुद दरिया हो

उसे समन्दर कैसे नजर आएगा

-----


मेरी जिंदगी में तुम इस तरह समाते रहे

सांस बन के जिस्म में आते जाते रहे

कहनी थी तुमसे दिल की एक अनकही दास्तां

और तुम मेरी आवाज पे बंदिशे लगाते रहे

मैंने खुद को मिटा दिया है तुम्हारी चाहो में

धूल बनके पड़ा हूं तुम्हारी राहों में

जो काबिल ना थे दुश्मनी के तेरे

वो लोग तेरे दिल के करीब आते रहे

बाद मुद्दत के मुझको मेरा आशियां यूं मिला

यादों के चिराग से जो सदा जगमगाता रहा

आज तेरी खुशी की खातिर मिटा दिया उन्हें

जो सूनी आंखों में तेरे सपने सजाते रहे

तुम मुझे समझ पाए ऐसा लगता नहीं

किसी के चेहरे में मेरा दर्द अब दिखता नहीं

जो पल बिताए थे तेरे साथ चल के

उसी पल से सदा खुद को महकाते रहे

लेखिका- प्रेमिका सिंह प्रभाकर

Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

Next Story