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Ramayana Story: जै सियाराम, राम, रामायण और राम की कथा
Ramayana Story in Hindi: रामायण के संक्षिप्त इतिहास की आवश्यकता इसलिए क्योंकि राम को जानने के लिए उनके समय और कथा यात्रा की जानकारी अत्यंत आवश्यक है।
Ramayana Story in Hindi: गोस्वामी जी की रामकथा में आरंभ से ही मर्यादा केंद्र में है। इसे सनातन संस्कृति के प्राणतत्व के रूप में निरूपित किया गया है। मानस के एक एक शब्द में संस्कार और मर्यादा की स्थापना है। मंगलाचरण के सात श्लोकों और पांच सोरठा से जब ग्रंथ की शब्द यात्रा आगे बढ़ती है तो मर्यादा की गंगा का प्रवाह उतना ही तीव्र होता चलता है। सुरुचि, सुवास, सरस और अनुराग की इस यात्रा को गोस्वामी जी ने ‘बंदउ गुरुपद पदुम परागा’ से की है। विस्तार पूर्वक गुरु की महिमा का गान करते हुए वह ‘बंदउ प्रथम महीसुर चरना’ यानी महाराज दशरथ की वंदना पर आते हैं। संत समाज की वंदना करते है। विवेक के लिए सत्संग की अनिवार्यता बताते है। संतगुण गण के साथ ही खल समूह की वंदना करते है। सातवें दोहे के चार पदों में ब्रह्मांड और प्रकृति के सभी तत्वों की वंदना करते है।
आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राम मय सबजग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
फिर आते है-
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।
और क्रम से अपने सभी देवताओं, पूर्वाचार्यों, चारों वेद, सभी शास्त्रों आदि की वंदना के बाद अवधपुरी की वंदना करते है। माता कौशल्या को दिसि प्राची यानी उस पूर्व दिशा के रूप में वंदना करते हैं जिससे सूर्य उदित होता है, अर्थात सूर्यवंशी राम की अधिष्ठात्री। महाराज दशरथ, समग्र अवध, पतित पावनी सरयू और अवध की समस्त प्रजा और उनके परिकरों की वंदना के क्रम में ही महाराज जनक की वंदना करते हुए उन्हें राम के प्रति गूढ़ स्नेह रखने वाला बताते हैं जबकि महाराज दशरथ को राम के प्रति सत्य प्रेम करने वाला बताते है। महाराज जनक की वंदना के बाद पुनः प्रथम वंदना भरत जी की और फिर वंदना का एक लंबा क्रम है। इस क्रम को आगे की श्रृंखला में बताएंगे, लेकिन यह चर्चा अनिवार्य लगती है कि श्रीराम के जीवन चरित्र को एक ग्रंथ में इस रूप में वर्णित करने का समय कैसा है। गोस्वामी तुलसीदास जी की सशरीर उपस्थिति के समय और इस कथा ग्रंथ के प्राकट्य पर भी चर्चा अत्यंत आवश्यक है। गोस्वामी जी ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में लिखा है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना काआरम्भ अयोध्या में विक्रम संवत 1631 (1574 ईस्वी) को रामनवमी के दिन (मंगलवार) किया था।
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउ बिसद रामगुन गाथा।।
संबत सोरह सै एकतीसा।करउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।
नौमी भौम बार मधुमासा।अवधपुरीं यह चरित प्रकासा।।
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं।तीरथ सकल तहां चलि आवहिं।।
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्" की आवाज भी कानों से सुनी। काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-
आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरु।कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-"काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।"पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया। इस ग्रंथ की रचना के बाद चाहे जितनी पीड़ा गोस्वामी जी को मिली हो लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि श्रीमद रामचरितमानस के प्राकट्य ने सनातन की अविरल यात्रा में आने वाली हर बाधा का मर्यादा पूर्वक समाधान दिया है।गीताप्रेस गोरखपुर के कल्याण के आदि संपादक भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को २ वर्ष 7 माह 26 दिन का समय लगा था और उन्होंने इसे संवत् 1633 (1576 ईस्वी) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन पूर्ण किया था। गीता प्रेस ने श्रीनृसिंह जयंती, संवत 1999 विक्रमी को श्रीमदगोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरितमानस का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया। यहां इस तथ्य की चर्चा भी आवश्यक है कि भगवान श्रीराम की पृथ्वी पर उपस्थिति जब थी, तब से लेकर गोस्वामी जी के कथा ग्रंथ सृजन तक सृष्टि की कालावधि कितनी विस्तृत है। रामायण का समय त्रेतायुग का है। सनातन वैदिक कालगणना चतुर्युगी व्यवस्था पर आधारित है जिसके अनुसार समय अवधि को चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग एव कलियुग जिनकी प्रत्येक चतुर्युग (4,32,000 वर्ष) के बााद पुनरावृत्ति होती है। एक कलियुग 4,32000 वर्ष का, द्वापर 8,64,000 वर्ष का, त्रेता युग 12,96,000 वर्ष का तथा सतयुग 17,28,000 वर्ष का होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम 8,70,000 वर्ष (वर्तमान कलियुग के 5, 118 वर्ष + बीते द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष) सिद्ध होता है। रामायण मीमांसा के रचनाकार धर्मसम्राट स्वामी करपात्री, गोवर्धन पुरी शंकराचार्य पीठ, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, श्रीराघवेंद्रचरितम् के रचनाकार श्रीभागवतानंद गुरु आदि के अनुसार श्रीराम अवतार श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था जिसके अनुसार श्रीरामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में विचार पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है।
राम, रामायण और राम की कथा। इस संक्षिप्त इतिहास की आवश्यकता इसलिए क्योंकि राम को जानने के लिए उनके समय और कथा यात्रा की जानकारी अत्यंत आवश्यक है। गोस्वामी जी रचते हुए स्वयं कहते है-
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा।।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)