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सामाजिक विद्रूपता को मुंह चिढ़ाते राणा प्रताप सिंह की नई कविता के भाव प्रसून
एक छोटे से न दिखने वाले वाइरस ने, जिसके शरीर नहीं, कुछ भी नहीं मनुष्य जैसा, न हाड़, न मांस, न आँखें, न चमड़ी का रंग न यौवन की उमंग उठती है उसके भीतर युवाओं की तरह दिखा दी है, लोगों को औकात
.................कुम्भ................
मोक्ष की तलाश में
साथ-साथ दूर तक
भीड़ के रेले में बहते हुए लोंगों का
नदी के साथ बहाव है कुम्भ।
समुद्र मंथन के अमृत
ग्रहों और राशियों के अदभुत संयोग से
उच्च लोकों के खुले द्वार की खोज का
अनगिनत पौराणिक कथाओं में विश्वास है कुम्भ।
पोखर में रुके पानी की तरह
ठहरे हुए जीवन में
कंकड़ गिरने से हुई हलचल सी
रेल, बस और ट्रैक्टर की रेल ठेल में
उछलते कूदते मन का प्रभाव है कुम्भ।
सतह से सपनों तक
संशय से सेवा तक रंक से राजा तक
पंडा से साधू तक माघ के भोर की कड़कती ठण्ड में
नदी में उतरने का चाव है कुम्भ।
बुजुर्ग गृहस्थों के कल्पवास के
साधुओं के धूनी के, मठों के ध्वजों के
ज्योतिष की दुकानों के, जमावड़े के बीच
गाजे बाजे के साथ जाते हुए नागाओं के
शाह होने का भाव है कुम्भ।
व्यवस्थाओं, कलाओं और सरकारों की
परीक्षा, संयम, सदभाव और समावेश की दीक्षा के बीच
कूड़े, कचरे से पटती नदियों का थोड़े दिनों के लिए
अच्छा रख रखाव है कुम्भ।
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...................वसंत...............
कड़कड़ाती ठंढ को, धीरे-धीरे विदा करता था वसंत
जैसे हाथ जोड़कर विदा करता है कोई अतिथि को
छोड़ आता द्वार के पार
और बंद कर लेता घर का कपाट।
ठंढी पुरवाई को ठेल ठाल कर भेज देता था
पश्चिमी और दक्षिणी सीमाओं की ओर
सोख आएं समुद्र औ सूरज से थोड़ी गरमाई और अल्हड़ता
नई नवेली पत्तियों से लकदक वृक्षों को
गरम हथेलियों से सहलाने के लिए
खिल उठें रंग बिरंगे फूल
औ सरसों तथा गेहूँ के खेतों में
मुठ्ठी भर सोने से सनी धूप
फागुन की मादक धूप और मदमस्त हवा
भरती थी फूलों में रंग
फसलों में दाने/और मन में वसंत का हुलास।
युवाओं के जीवन मे आती थी नई अंगड़ाईयाँ
बुजुर्गों के मन में अगले वसंत तक जीवन की आस।
चैत के ताप को रोक कर रखता था बसंत
फागुन के द्वार पर दोनों हाथों से धक्का दे देकर
महीनों तक, तब धीरे धीरे जाती थी ठंड
पकते थे खेत, धीरे धीरे आती थी धूप में तल्ख़ी
बसंत अड़ कर खड़ा रहता था, ठंढ और ताप के बीच
राहत और उमंगों के बहुमूल्य पल
पृथ्वी के आँचल में टांक देने के लिए।
बगीचे की चौहद्दी और खेतों की मेड़ों पर
लोंगो की शिराओं में और मौसम की हवाओं में
घूमता रहता था वसन्त, कामदेव के तीर कमान लेकर।
अब नहीं आता वसंत, रूठ कर चला गया
सुदूर/पर्वतों और नदियों के पार दूर देश में।
अब उसे मनाना बहुत कठिन होगा।
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.................आजकल....................
आजकल चैत की चढती धूप में लौट लौट कर आ रहे हैं बादल
जो फागुन में बरस बरस कर खराब करते रहे फसलें,
एक छोटे से न दिखने वाले वाइरस ने, जिसके शरीर नहीं, कुछ भी नहीं
मनुष्य जैसा, न हाड़, न मांस, न आँखें, न चमड़ी का रंग
न यौवन की उमंग उठती है उसके भीतर
युवाओं की तरह दिखा दी है, लोगों को औकात
विश्व भर की शक्तिमान सरकारे नतमस्तक हैं
एक युद्ध लड़ रहे हैं सभी, दुश्मन है पर कोई सामने नही आता
दुश्मन रहता है,सबके आस पास/लोग मर रहे हैं/बिना रक्तपात
कहीं नही चल रही हैं, गोलियां, कोई बारूद नहीं फट रहा
करोड़ों करोड़ लोग चौबन्द हैं, हर लक्ष्मण रेखा में मोर्चों पर।
सदियों बाद इस तरह से घरों में बंद हैं लोग
थामे हुए एक दूसरे का हाथ, बच्चे मचल रहे हैं
खेलने को गलियों में, राक्षस आने की कहानियां सच।
बंद गेटों और खुले झरोखों से झाँकते लोग
बेचैनी से देखते टीवी और स्मार्ट फ़ोन रुके वक्त में।
गाड़ियों की रफ्तार थम गयी है, हवा में जहर भरी धूल बहुत घट गई है
शहरों की आपाधापी में बहुत दिनों बाद लोग भी फुरसत में हैं, और हवा भी।
एक किशोर होती लड़की की आँखों में जितनी उमंग है
उतनी ही उदासी माताओं को बच्चों की फिक्र है,
पिताओं को रोजी रोटी की/और बच्चों को बूढ़े मां-बाप की।
आजकल गांव की गलियों से लेकर शहर के बाजारों तक
वीरान है सारी दुनिया एक साथ, सड़कों पर बज रही हैं,
पुलिस की सीटियां और सायरन/भय फर्श पर धूल की तरह बिखरा है
चिंताएं दीवार के झड़ते पलस्तर की तरह अटकी हैं,
अपनी सतह छोड़ने के बाद भी।
आजकल लोग सुन रहे हैं, दूसरों की बात
अपने जीवन के लिए चिंतित हैं,
करोड़ो करोड़ लोग/एक साथ।
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................भूख...............
भूख, गौरैया की फुदक में रहती है और बाज की उड़ान में
गाय भैंसों की घंटियों में बजती हैभूख, टन टन टन...
एक अनोखी लय के साथ।
भूख, पेड़ की जड़ों में होती है और हरी पतियाँ
सूरज के ताप में पकाती हैं पूरी सृष्टि का भोजन
कचरे के सड़ने में होती है, अनेकों सूक्ष्मजीवों की भूख
जो कचरे से बना देती खाद।
भूख,आदमी के पेट में होती है या मन में और विचारों में/
भूख से ही चलता है/कारखानों का चक्का
और खड़ी हो जाती आसमान छूती गगनचुम्बी इमारतें।
खाने के लिए मचलते हुए बच्चे की भूख
बहुत सुंदर होती है और होती है उतनी ही मासूम भी।
नक्शे में खिंची लकीरें, जब प्रविष्ट होती हैं
शिराओं और धमनियों की हलचल में
और होने लगता उद्वेलन, तो बनता है एक राष्ट्र।
सीमाओं और संस्कृतियों की भिन्नता के बावजूद
जब साथ खड़े होते हैं लोग, तो बनता है एक राष्ट्र।
जब सभी के सपने एक जैसे होने लगते हैं,
गुंजित होने लगती है, एक सी ध्वनि, तब बनता है राष्ट्र।
जब साँसों से बँधा होता हृदय, हृदय से प्राण
प्राण से जीवन और जीवन से बंध जाती है, प्रेम की डोर
जब प्रेम से बँधी रहती हैं खुशियां, खुशियों से सम्भावनाएँ
सम्भावनाओं से शांति, और शांति से बँधे रहते
रिश्तों के अनगिनत धागे, तब बनता है राष्ट्र।
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...............टूटी वैसाखियों से संवाद...................
जब गली के मुहाने पर
अक्षरों से निकल रही थी
घृणा की लपटें,
और भाषा चुपचाप देख रही थी
तो इमली की छांव में तम्बू ताने,
लोग भयभीत से देख रहे थे
तम्बूओं की ओर।
जब जलाए जाने लगे
मकान, दुकान और
फूँकी जाने लगी सड़क पर खड़ी गाड़ियाँ
तो पुलिस की गाड़ियों की ओर
ताक रही थीं, घबराई हुई औरतें
तम्बुओं के ठीक बाहर पटरियों की बगल में।
जब चौरस्ते पर बहने लगा खून
तो फटे हुए तम्बुओं से झाँक रही थी
बच्चों की विस्मित कई जोड़ी आँखें
चौराहे की अराजक भीड़ की ओर।
जब निकल गई अनियंत्रित भीड़
गली के उस पार
भीषण शोर मचाती हुई
तो उजड़े तम्बू
कर रहे थे, टूटी बैसाखियों से संवाद
शब्द और ध्वनि की आहट नहीं।
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साझी यात्रा
बार बार होता हूँ अकेला
बार बार मिलता है साथ
टूटते हैं रिश्तों के तार
जुड़ते हैं जीवन के राग
बार बार होती हैं यात्राएँ
हर बार होता है ठहराव।
निकलता हूँ जब भी अकेला
जमा होने लगते ढेर सारे लोग
देखते हैं कौतूहल से एक बार
राय मशविरा करते आपस में
मुस्कराते हुए बढ़ते हैं आगे
कुछ रूक जाते थोड़ी देर बाद
कुछ साथ साथ चलने को हो जाते तैयार।
चलते चलते भी कुछ रूक जाते
कुछ थक जाते
कुछ आगे निकल जाते
कुछ पीछे छूट जाते
अलग विलग हो जाते साथी।
एक क्षण आता है जब कोई नहीं होता साथ
टूटने लगती हिम्मत
थमने लगते पाँव
यही क्षण होता है निर्णायक।
चल पड़ो तो फिर से आने लगते लोग
सजने लगता काफ़िला
जुड़ने लगते सिर और पैर
मिलने लगते मन और विचार।
अकेले अकेले चलना कठिन होता है
टेढ़े मेढे अनजान रास्तों पर
जब करना हो नए अनुसंधान
जब तलाशने हों नए पड़ाव
जब ढोनी हो ज्ञान के खोज की विरासत
जब बनाना हो नया समाज।
साझी यात्राओं से ही मिलते हैं साझे मुकाम
और साझी दुनिया ही ढोती है
पृथ्वी की साझी विरासत।
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मजदूर बच्चे
छोटे छोटे बच्चों के छोटे छोटे हाथ
चढ़ाते हैं, करघे पर सूत
और रंग डालते हैं पानी में रसायनों का घोल मिलाकर
तो बनते हैं अमीरों के लिए गलीचे
और कालीन।
कुलीन लोग बिछाते हैं, कालीन
पैरों के नीचे
पर खराब हो जाते
बच्चों के हाथ कालीन के रंगों को
पकाते पकाते।
बारूद भरते हैं छोटे छोटे हाथ
मलते हुए छोटी छोटी आँखें
सुबह सुबह सँकरी और बंद कोठरी में बैठ कर
पटाखे जलाकर कर ताली पीटते हैं खूब
छोटे बड़े, बच्चे, बूढ़े और जवान
हर त्योहार पर।
चाय की दुकान का छोटू
और पंसारी की दूकान का पतलू
खेत में काम करने वाली सुरैया
और भठ्ठे पर खटने वाला पिन्टू
सब जाना चाहते स्कूल
और खेलना चाहते हैं क्रिकेट।
अगर ये सब के सब बच्चे
स्कूल चले गए एक साथ
तो चीजें हो सकती हैं महँगी
अर्थव्यवस्था संकट में पड़ सकती है
माताओं को खानी पड़ सकती
शराबी मर्दों की मार
और मैनेजमेंट के छात्रों को
करनी पड़ सकती है
नए सिरे से फिर से पढ़ाई।