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हिंदी विरोध के पीछे है अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखना और सत्ता की रीजनीति
संक्षेप में कहा जाय तो हिंदी के विरोध में वे लोग खड़े हैं, जिन्हें अंग्रेजी के हटने के कारण अपनी रोज़ी-रोटी चले जाने का भय है। स्वाभाविक है कि स्थानीय भाषाओं के सम्मानित होने से अंग्रेजी को खतरा ज्यादा होगा।
रविदत्त गौड़
हमारे देश में एक राजनीतिक संघर्ष बरसों से चल रहा है, हिंदी और अंग्रेजी के बीच। दुर्भाग्यवश इस संघर्ष का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं, वे हिंदी का विरोध तो देश की अन्य भाषाओं के नाम पर कर रहे हैं, पर उस विरोध के कारण अंग्रेजी और अधिक सुदृढ़ होती जा रही है। हालांकि देश के गृहमंत्री अमित शाह ने इस हिंदी दिवस पर एकदम स्पष्ट कर दिया है कि सभी भारतीय भाषाएँ परस्पर सखियाँ हैं और हिंदी की किसी भारतीय भाषा से कोई स्पर्धा नहीं है। पर राजनीति करनेवाले तो जोड़ने के बजाए तोड़ने और भाषायी विद्वेष फैलाने में लगे रहते हैं।
भाषा लोगों का किसी समूह विशेष के प्रति झुकाव और रुझान तय करती है। जहां यूक्रेन में शासकों को भय है कि युद्ध की परिस्थिति में रशियन की ओर झुकाव वाले लोगों में रूस के प्रति सहानुभूति हो सकती है,हमारे यहां हिंदी के विरोधी वे हैं जिनको ऐसा लगता है कि यदि यह मसला नहीं रहा तो उनके राजनीतिक अस्तित्व को खतरा हो सकता है। अगर गहन अध्ययन किया जाय तो मालूम पड़ेगा कि इस तरह की मानसिकता का नेतृत्व करनेवाले हिंदी-विरोधी अंतर्मन से अंग्रेजी के पक्षधर अधिक हैं, स्थानीय भाषाओं के नहीं। संक्षेप में कहा जाय तो हिंदी के विरोध में वे लोग खड़े हैं, जिन्हें अंग्रेजी के हटने के कारण अपनी रोज़ी-रोटी चले जाने का भय है। स्वाभाविक है कि स्थानीय भाषाओं के सम्मानित होने से अंग्रेजी को खतरा ज्यादा होगा। हिंदी पर राजनीति और पत्रकारिता अंग्रेजी के मीडिया वाले अधिक कर रहे हैं। यह प्रमुख कारण है कि हिंदी और स्थानीय भाषाओं के विद्वानों को इस विषय पर एक साथ खड़े होना होगा।
अंग्रेजी के वर्चस्व पर प्रहार ज़रूरी
पढ़े लिखे उत्तर भारतीय हों या हिंदी इतर भाषी लोग, वे सोचते हैं कि चूंकि वे अंग्रेजी जानते हैं अतः उन्हें हिंदी के प्रति किसी भी विरोधी मानसिकता से कोई सरोकार नहीं है। हिंदीतर राज्यों में जनता विशेषकर कम पढे लिखे लोगों में हिंदी के विरुद्ध यह प्रचारित किया जाता है कि यदि हिंदी आ गई तो सरकारी महकमों में हिंदी भाषी लोगों का एकाधिकार हो जायेगा। हिंदी के विद्वान हिंदी के प्रति दुर्भावना का विलाप तो करते हैं पर देश की अन्य भाषाओं का हिंदी के साथ साथ विकास कैसे हो उस पर उनके विचार उतने मुखर नहीं हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि हिंदी या देश की अन्य भाषाओं की दयनीय स्थिति का कारण अंग्रेजी है और यदि देश की भाषाओं को सम्मान दिलाना है तो अंग्रेजी के वर्चस्व पर प्रहार करना होगा।
यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि मेरा मंतव्य कतई यह नहीं है कि अंग्रेजी सीखना-पढ़ना बंद कर दिया जाय। इस संदर्भ में कष्ट तब होता है जब अंग्रेजी-ज्ञान को हमारी योग्यता का पैमाना मान लिया जाय। जिन लोगों में यह हीनग्रंथि बैठ गई है कि वे अंग्रेजी जानने वाले लोगों के बीच अपने व्यक्तित्व को सही अनुपात में प्रस्तुत नहीं कर पाते, उन पर मुझे दया आती है। यदि आप हिंदी भाषी हैं और आपके शब्द-विन्यास,वाक्य-संरचना में बल है तो दूसरे लोग आपका सम्मान अवश्य करेंगे। अंग्रेजी में अटक-अटक कर बोलने के स्थान पर अपनी भाषा में धाराप्रवाह बोलने पर आपके विरोधी आपको किसी भी तरह से अनदेखा नहीं कर सकते।
उपहास व दंड को मत बनायें माध्यम
हिंदी-इतर राज्यों के लोग हिंदी के प्रयोग से इसलिए भी डरते हैं चूंकि उनके उच्चारण, लेखन आदि पर सदैव उपहासपूर्ण टिप्पणियां होती हैं।इस संदर्भ में यह बताते हुए कष्ट होता है कि जहां तक हिंदी का प्रश्न है, इसमें हर व्यक्ति स्वयं को महाविद्वान मानता है और वह इसमें अशुद्धि निकालना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। ऐसे लोग हिंदी के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़े खलनायक हैं, पर उन्हें समझाये कौन?
देश को स्वतंत्र हुए 77 वर्ष ,से अधिक हो चुके हैं। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए एक पूरा सचिवालय व हज़ारों हिंदी सेवी कार्यरत हैं। देश में संघ सरकार की राजभाषा कार्यान्वयन की नीति प्रेरणा, प्रोत्साहन व सद्भावना पर आधारित है। इसके विपरीत मैंने अनेक हिंदी मंचों से इस संदर्भ में दंड-नीति को आधार बनाने के पक्ष में लोगों को अपने विचार प्रस्तुत करते हुए देखा-सुना व पढ़ा है,जो कदापि संभव नहीं है। जब संसदीय समितियां किसी निरीक्षण के दौरान कुछ विभागाध्यक्षों को कठोर बातें सुना देती हैं तो सम्बंधित हिंदी-सेवियों के चेहरे पर उनकी आपराधिक संतुष्टि को प्रदर्शित करते हुए जो कुटिल मुस्कुराहट आती है,वह उनकी नकारात्मक सोच को उज़ागर करती है। ऐसे हिंदी-सेवियों से मेरा अनुरोध है कि वे आत्ममंथन करें। कोई भी व्यक्ति अपमानित या प्रताड़ित होकर किसी काम के करने में मन लगाने लगेगा, वह उनकी ग़लतफ़हमी है।
हिंदी का जो प्रचार-प्रसार हो रहा है, उसमें नयापन कहां है?हिंदी वर्णमाला, हिंदी व्याकरण और कितने दशक तक हम सिखाते रहेंगे? जब तक तकनीकी, प्रबंधन, व्यापारिक, विधि,आर्थिक, विपणन, व्यावसायिक, व्यावहारिक ,स्वास्थ्य, अभियांत्रिकी आदि विषयों को हिंदी से नहीं जोड़ेंगे तब तक लोग इसकी उपेक्षा करते रहेंगे।सरकारी स्तर पर हो रहे प्रयास बहुत सारी औपचारिकता लिये हुये होते हैं, जिससे हर पहल कच्छप-गति लिए हुए आती है।अतः हिंदी में कार्यशैली को नवीनता प्रदान करने के लिए गैर-सरकारी तंत्रों को भी शक्ति प्रदान करनी होगी।
हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाएँ होंगी मज़बूत
अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकता इस बात की है कि हिंदीतर भाषी लोगों के इस भ्रम का निवारण किया जाय कि हिंदी उनकी मातृभाषा को कमज़ोर करेगी और शासन पर एकाधिकार कर लेगी, बल्कि उन्हें विश्वास दिलाना है कि हिंदी के साथ साथ उनकी भाषाएँ भी सुदृढ़ होंगी।राजभाषा हिंदी से जुड़े मनीषियों से अनुरोध है कि वे हिन्दी को और अधिक सामर्थ्यवान एवं लचीली बनाएँ ।सकारात्मकता व नकारात्मकता पूर्णतः हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर हैं।रास्ते में पड़ी सूखी झाडियों को देखकर अनुमान लगाना कि पूरा वन ही सूखा होगा हमारी नकारात्मक सोच है।वहीं यह सोचना कि आगे वनौषधियों का भंडार मिलेगा एक सकारात्मक सोच है। हम कौन सा विकल्प चुनते हैं, उसी में हमारी विवेकशीलता सन्निहित है। एक बात स्पष्ट है कि हिंदी का हित लचीलेपन में ही निहित है और किसी ने बहुत ही सुंदर कहा है कि "झुकता वह है जिसमें ज़ान होती है!"
एक बात और! हिंदी के प्रति जो लगाव है उसके कारण लोग आंदोलित और उद्वेलित हों,ऐसा होना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।मेरी विनती है कि कृपया जो संकल्प के साथ कर्म हम कर रहे हैं ,वह एक महत्त्वपूर्ण यज्ञ है। यज्ञ में जब संकल्प लिया जाता है तो सभी देवताओं, लोकपालों, दिक्पालों, चर-अचर आदि से उस यज्ञ के निर्विघ्न सफल होने की कामना करते हैं। यज्ञ में किसी के विरोध हेतु स्थान नहीं है।अतः हमें आंदोलन का पथ न चुनकर यज्ञ-मार्ग चुनना है।राह में आने वाले व्यवधानों के लिए हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति सबसे बड़ा अस्त्र है।यदि हम अपने आत्मबल को बनाये रखेंगे तो सफलता के सोपान अत्यंत निकट आते चले जायेंगे।
(रविदत्त गौड़- लेखक मूलत: विज्ञान के विद्यार्थी हैं और हिंदुस्तान पैट्रोलियम कॉ.लि. में विभिन्न विभागों का दायित्व संभालते रहे, एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी व चिंतक हैं।)