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क्षेत्रीय क्षत्रपों की छटपटाहट, भाजपा विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की कवायद

raghvendra
Published on: 9 March 2018 1:12 PM IST
क्षेत्रीय क्षत्रपों की छटपटाहट, भाजपा विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की कवायद
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अंशुमान तिवारी अंशुमान तिवारी

देश में अगले लोकसभा चुनाव का समय नजदीक आने के साथ ही राजनीति गोलबंदी की नई कोशिशें शुरू होती दिख रही हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों के चुनावी नतीजों ने भाजपा को और मजबूती दी है और विपक्ष को लगने लगा है कि अलग-अलग सुर में अलाप कर भाजपा से लडऩा आसान नहीं है। तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्रआदि राज्यों में भाजपा विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की कवायद तेज हुई है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव गैर भाजपा-गैर कांग्रेसी गठबंधन बनाने के लिए सक्रिय हो गए हैं तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने स्पेशल पैकेज न मिलने पर भाजपा से हाथ खींच लिया है।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भाजपा से पहले से ही खार खाए बैठी हैं तो महाराष्ट्र में शिवसेना भी समय-समय पर भाजपा को धमकी देकर अपना रास्ता खोजने में लगी है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है और उत्तर प्रदेश की राजनीति में मोदी विरोधी की बूटी की खोज में गेस्ट हाउस कांड की कड़वी याद को भुलाकर बसपा मुखिया मायावती ने सपा प्रत्याशी को उपचुनाव में समर्थन का ऐलान कर दिया। इन सभी बातों ने राष्ट्रीय राजनीति में आ रहे बदलावों का संकेत जरूर दे दिया है।

हकीकत तो यह है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों को लगने लगा है कि भाजपा और उसका ब्रांड चेहरा बन चुके मोदी से लडऩा अब आसान नहीं है। भाजपा अब उन राज्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करने लगी है जहां उसका वजूद ही नहीं था। उसने त्रिपुरा में जितनी आसानी से लाल किले को ध्वस्त कर दिया वह सभी की आंख खोलने वाला था। त्रिपुरा में हार लेफ्ट की हुई मगर गुस्से वाली प्रतिक्रिया ममता बनर्जी की आई। ममता ने कांग्रेस और लेफ्ट दोनों को लताड़ा और यहां तक कह डाला कि दोनों ने भाजपा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। अभी तक यह माना जाता रहा है कि भाजपा हिन्दीभाषी राज्यों में मजबूत रही है मगर अब पार्टी इस दायरे से बाहर निकल रही है।

कांग्रेस अपने अखिल भारतीय स्वरूप को लेकर चाहे जितना भी गुरुर कर ले मगर वास्तविकता यह है कि वह देश के कुछ कोनों में ही सिमटकर रह गयी है। दूसरी ओर भाजपा ने ऐसे राज्यों में पांव पसार लिए हैं जहां उसकी कोई ताकत ही नहीं थी। त्रिपुरा की विजय के बाद भाजपा की आंखों में केरल की सत्ता का सपना भी तैरने लगा है। कर्नाटक में कांग्रेस को पटखनी देने के लिए पार्टी ने जोरदार तैयारियां कर रखी हैं और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह बूथ मैनेजमेंट की रणनीति को अंतिम रूप देने की कोशिश में लगे हैं ताकि यहां से भी कांग्रेस की विदाई की जा सके।

भाजपा की चुनौती का सामना करना कांग्रेस के लिए ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए भी मुश्किल होता जा रहा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने इसीलिए पिछले दिनों गैर भाजपाई-गैर कांग्रेसी मोर्चे की वकालत की। राव ने अपनी कोशिशों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ममता बनर्जी और नवीन पटनायक से संपर्क भी किया। इन दोनों ने भाजपा व कांग्रेस से दोनों का मुकाबला करने के साथ खुद को मजबूती से स्थापित भी किया है। ममता बनर्जी, शिवसेना और टीडीपी तीनों ने उनकी बातों से सहमति जताई। क्षेत्रीय दलों को यह भी लग रहा है कि दो राष्ट्रीय दलों की लड़ाई में कहीं उनके वजूद पर संकट न खड़ा हो जाए। इसके साथ ही क्षेत्रीय क्षत्रप केंद्र की मजबूत मुट्ठी से बाहर भी निकलना चाहते हैं।

राव का कहना है कि केन्द्र सरकार को विदेशी मामले व रक्षा जैसे मामले ही देखने चाहिए और बाकी सबकुछ पर फैसला लेने का अधिकार राज्यों को सौंप देना चाहिए। उन्हें लगता है कि कांग्रेस भी यह मांग पूरी करने वाली नहीं है और यही कारण है कि वे क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दलों का विकल्प बनाने की बात कह रहे हैं। ममता बनर्जी भी राज्यों को अधिक आजादी दिए जाने की पक्षधर हैं और इस मामले में राव के साथ हैं। तृणूल कांग्रेस, टीडीपी और शिवसेना की भाजपा से नाराजगी की अलग-अलग वजहें हैं मगर इसके साथ यह भी सच्चाई है कि तीनों मोदी व भाजपा के बढ़ते आभामंडल से चिंतित व परेशान हैं।

मोदी का बढ़ता आभामंडल इन दलों के लिए ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की दो मजबूत राजनीतिक ताकतों सपा और बसपा के लिए भी शुचिता का विषय बन गया है। प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों पर होने वाले उपचुनाव में दोनों दलों का साथ आना कम बड़ी राजनीतिक घटना नहीं है। साथ आने के लिए मायावती ने गेस्ट हाउस कांड की कटु यादों को भी भुला दिया। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब अखिलेश मायावती को बुआ और मायावती अखिलेश को बबुआ कहकर व्यंग्य किया करती थीं मगर राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए दोनों ने सबकुछ किनारे कर दिया। यह मजबूरी का गठबंधन है क्योंकि दोनों को लगने लगा है कि बिना साथ आए अब भाजपा से लडऩा आसान नहीं है।

1993 के चुनाव में दोनों ने साथ मिलकर राममंदिर लहर के बावजूद भाजपा को सत्ता से दूर कर दिया था मगर दो साल बाद हुए गेस्ट हाउस कांड से दोनों के रिश्तों में इतनी दूरी हो चुकी थी कि साथ आने की कल्पना भी बेमानी सी लगती थी मगर सियासत में किसी के स्थायी मित्र व शत्रु न होने की कहावत फिर चरितार्थ हुई। वैसे अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह गठजोड़ कितना आगे जाएगा क्योंकि अगले लोकसभा चुनाव तक अभी काफी राजनीतिक उठापटक होनी है। संभव है मोदी विरोध की मजबूरी दोनों को आगे भी हाथ मिलाकर चलने पर मजबूर कर दे।

रही बात कांग्रेस की तो उसे राव की तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशों के पीछे भाजपा विरोधी विपक्ष को बांटने के लिए भाजपा का ही छिपा हाथ महसूस हो रहा है। कांग्रेस का मानना है कि इसका मकसद भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की उसकी कोशिशों को रोकने के साथ ही राहुल गांधी को प्रस्तावित गठबंधन का अध्यक्ष बनने से रोकना भी है। ममता वैसे भी भाजपा विरोधी मोर्चे में राहुल को नेता मानने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि सोनिया गांधी ने विपक्षी एकता को मजबूत बनाने के लिए विपक्षी नेताओं को 13 मार्च को डिनर का आमंत्रण भेजा है।

कांग्रेस नेता दीपेन्द्र सिंह हुड्डïा का कहना है कि राव जैसे कदमों से भाजपा धर्मनिरपेक्ष दलों को बांटने में कामयाब होगी। कांग्रेस का यह भी मानना है कि तीसरे मोर्चे की वकालत कर राव अपने मतदाताओं को लुभाने के साथ ही अपनी नाकामियां भी छिपाना चाहते हैं। राव को अभी तक भाजपा के साथ दोस्ताना संबंध रखने वाले व कांग्रेस का विरोध करने वाले नेता के रूप में जाना जाता रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस को राव के इस कदम के पीछे भाजपा का हाथ होने का शक है।

वैसे उड़ीसा की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण ताकत मानी जाने वाली बीजेडी ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। पार्टी का कहना है कि हमें देखना होगा कि इस विचार को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कैसे काम किया जाता है। पार्टी के सांसद भतृहरि महताब का कहना है कि वैसे तो हम क्षेत्रीय दलों के मोर्चे के समर्थक हैं और बीजेडी भाजपा व कांग्रेस दोनों से समान दूरी रखती है मगर इस मोर्चे के स्वरूप को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी इस बाबत अभी तक पत्ते नहीं खोले हैं। वैसे इतना तो तय है कि भाजपा की बढ़ती ताकत ने सभी दलों को अपनी रणनीति में बदलाव लाने पर मजबूर जरूर कर दिया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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