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Religious Event Stampede : धार्मिक आयोजन-धार्मिक कम दमनकारी अधिक
Religious Event Stampede: क्या हमारी मानसिक सेहत , क्या हमारा अंतर्मन इतना कमजोर हो चुका है कि हम ऐसे चमत्कारों पर आज के विज्ञान की दुनिया में भी विश्वास करते हैं, कर पा रहे हैं
Religious Event Stampede : इस समय में दो अलग-अलग बातें दिमाग में घूम रही हैं। दोनों का आपस में कोई सरोकार भी नहीं है, फिर भी लगता है कि कहीं न कहीं एक कड़ी उनको जोड़ती है या जोड़ सकती है । तो सबसे पहले पहली बात- उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए सत्संग हादसे में 121 लोगों की मौत की दर्दनाक कहानी और फोटो किसी पत्थर दिल को भी 'आह' कहने पर मजबूर कर देती है। अब सिर्फ उनके ऊपर शोक व्यक्त कर लेना या जांच बिठा लेना या उसके अलग-अलग कारणों के बारे में बात कर लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। कैसे सूरजपाल जाटव उर्फ भोले बाबा उर्फ नारायण साकार विश्व हरि जैसे लोग सफेद सूट-बूट में इस भोली-भाली जनता को बेवकूफ बना जाते हैं? कैसे ऐसा सजायाफ्ता अपराधी बाबा बन जाता है, कैसे एक ट्रक ड्राइवर अचानक चमत्कारी बाबा के रूप में भीड़ इकट्ठा करने लग जाता है। किसी के दिव्य हाथों के स्पर्श से, किसी के दिए जल से अपनी अपंगता ठीक कराने के लिए , अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए दूर-दूर से भीड़ इकट्ठी हो जाती है। क्या हमारी मानसिक सेहत , क्या हमारा अंतर्मन इतना कमजोर हो चुका है कि हम ऐसे चमत्कारों पर आज के विज्ञान की दुनिया में भी विश्वास करते हैं, कर पा रहे हैं।
ऐसे हादसे न तो पहली बार हुए हैं, न ये आखिरी बार हैं।25 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में वार्षिक यात्रा के दौरान 340 से अधिक श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। 4 मार्च 2010 को प्रतापगढ़ के राम जानकी मंदिर में कृपालु महाराज की पत्नी की पुण्यतिथि पर मुफ्त भोजन और कपड़े लेने को इकट्ठा हुई भीड़ में भगदड़ मचने से 63 लोगों की मौत हो गई थी। 30 सितंबर 2008 को जोधपुर के चामुंडा देवी मंदिर में अफवाह के कारण 250 श्रद्धालु मारे गए। 15 अक्टूबर 2016 को वाराणसी के राजघाट गंगा पुल पर जय गुरुदेव पंथ के सत्संग में जा रहे लोगों के बीच मची भगदड़ में 25 लोगों की मौत हो गई थी। हादसों की यह लिस्ट बहुत लंबी है और हाथरस जैसे हादसे तब तक होते रहेंगे जब तक हम ऐसे बाबाओं को पूजते रहेंगे, उनके लिए जाते रहेंगे। सेफ्टी साइंस 2023 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत तेजी से धार्मिक उत्सवों के लिए इकट्ठा भीड़ से होने वाली दुर्घटनाओं का केंद्र बनता जा रहा है। स्टडी के अनुसार सन् 2000 से 2019 के बीच भारत में हुई लगभग 70% दुर्घटनाएँ (कुल 48 में से 33) धार्मिक आयोजनों से संबंधित थीं।
किसे दोष दें? हमारे पारंपरिक धर्म, रीति रिवाजों ,धार्मिक संस्थाओं या उस सामाजीकरण को जो लड़के-लड़कियों को पुरुष और स्त्री बनाने में अलग-अलग तरीके से काम करता है । देश और दुनिया के सभी धर्मग्रंथो के अनुसार धर्म की धुरी महिलाओं की कंधों पर ही टिकी है। अगर वे भी उसमें अपनी सहभागिता न रखें या न करें तो ऐसे लिंगभेदी तथाकथित धार्मिक आडंबरों का पहिया टूट के न बिखर जाएगा। अपने बच्चों, अपने परिवार, सबके स्वास्थ्य और सुखी जीवन की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर ही डाल दी जाती है कि अगर वह ऐसा नहीं करेंगी तो परिवार में अनिष्ट हो जाएगा। तो यह अपने परिवार के लिए सब कुछ करना पड़ेगा वाली भावना और उसके लिए चमत्कारों पर अंधविश्वास और इन्हें ही मन बहलाव का साधन मान लेने की भावना ने महिलाओं को ऐसे आयोजनों में धकेला है। सोचने वाली बात यह है कि क्या ऐसे धार्मिक आयोजन महिलाओं के लिए घर से बाहर निकल पाने के विकल्प बन गए हैं? इस पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को सिर्फ इसी योग्य बना दिया है कि वे सब कामों के लिए पुरुषों पर आश्रित रहें।
जब एक नदी में पानी लबालब भर जाए और बांध के सभी दरवाजे, जहां से नदी के पानी की सुरक्षित निकासी होनी चाहिए, बंद हो तो आसपास किसी भी सुराग से भी पानी बाहर निकलने की कोशिश करेगा ही चाहे वह उसे किसी नाले में ही लेकर ले जाकर गिराए। यही हाल महिलाओं का भी है, घर में बैठे हैं इससे तो किसी बाबा के धार्मिक आयोजन में जाकर बैठते हैं कुछ पुण्य तो मिलेगा ही, यह सोच विकसित होती जा रही है। धर्म को मानकर धार्मिक होना अलग बात है और इसके लिए इस तरह से अंधविश्वासी होना और चमत्कारों पर निर्भर रहना और आडंबरों का आयोजन करना अलग बात। घर की चारदिवारी से बाहर निकलने का महिलाओं को इससे बेहतर कोई और रास्ता सूझता ही नहीं कि ऐसे भोले बाबाओं के चक्कर में फंस जाती हैं, अपने परिवार की मंगल कामना को लेकर। घर से बाहर निकलने के विकल्प के तौर पर सिर्फ धार्मिक आयोजन ही क्यों किसी भी राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक आयोजन को देख लीजिए, महिलाओं और छोटे बच्चों की भागीदारी अधिक मिलेगी क्योंकि दुनिया का सबसे सस्ता और आसानी से उपलब्ध श्रम ये लोग हीं हैं।
समाजशास्त्री लैडन श्नोबेल के अनुसार धर्म का अभी भी एक मजबूत प्रभाव है। धर्म मनोवैज्ञानिक क्षतिपूर्ति प्रदान करता है। श्नोबेल का कहना है कि -'सामाजिक रूप से वंचित समूह के लोग जिनमें महिलाएं, नस्लीय अल्पसंख्यक और कम आय वाले लोग शामिल हैं, श्वेत व संपन्न पुरुषों की तुलना में धर्म की ओर अधिक आकर्षित होते हैं।' ऐसा इसलिए क्योंकि धर्म वंचित समूह को ऐसे संसाधन प्रदान करता है जो उनकी सामाजिक स्थिति की कमी की भरपाई करते हैं। और यही कारण है कि जब पारंपरिक धर्म द्वारा उन्हें प्रेरित नहीं किया जाता है तो महिलाएं और गरीब तबका मनोवैज्ञानिक क्षतिपूर्ति के लिए इस तरह के धार्मिक समुदायों का हिस्सा बन जाते हैं। 19वीं सदी में कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि 'धर्म जनता के लिए अफीम है - जो वंचित लोगों को वर्तमान से अलग कर देता है, तथा प्रगतिशील राजनीति में उनकी भागीदारी को कमज़ोर कर देता है।' इस तरह के धार्मिक आयोजनों में धार्मिक अफीम की मात्रा भले ही कम हो पर ये अधिक दमनकारी होते हैं। ये आयोजन प्रशासन की स्वीकृति से बड़े ही मजे से होते हैं और यह सब जानते भी हैं पर ओखली में सिर कौन देगा। अब चाहे ऐसी भगदड़ के कारणों को संकरा रास्ता कहें, नदी का किनारा कहें, पहाड़ी इलाका कहें, पर्वत शिखर पर उचित मार्ग व्यवस्था का अभाव कहें, संसाधनों की कमी को जिम्मेदार बताएं, भीड़ का ज्यादा इकट्ठा होना बताएं या छोटे आयोजन स्थल को उसका कारण बताएं पर ऐसे हादसे न तो पहले रुके हैं और न आज रुक रहें हैं। ऐसी स्थितियों में ज़्यादातर लोगों को यह भी नहीं पता होता कि खतरा वास्तविक है या नहीं और ऐसे में सभी अपने परिवार के बारे में चिंतित हो स्वार्थी हो जाते हैं और भगदड़ का शिकार बनते हैं।
अब दूसरी बात रेणुका शहाणे और राजेश द्वारा अभिनीत शॉर्ट मूवी 'एक कदम' की, जिसमें नायिका अपने घर से बाहर निकलने के लिए, अपनी खुशी के लिए किसी तरह के धार्मिक आयोजनों का सहारा नहीं लेती बल्कि सड़क पर खड़ी होकर अकेले गोलगप्पे खाने में, ऑक्सिडाइज्ड झुमके पहनने में या अकेले पिक्चर देखने और शॉपिंग मॉल घूमने में ही अपनी खुशियां तलाशती है। शायद जो महिलाएं पहले से ही कम धार्मिक हैं वे काम पर जाती होंगी हैं और जो अधिक पारंपरिक हैं वे घर पर ही रह जाती हैं। अब खुशियों के लिए विकल्प महिलाओं के सामने हैं कि उन्हें इस तरह के धार्मिक पाखंडी बाबाओं के यहां जाकर झूठा पुण्य कमाना है और अपने परिवार की खुशी की फरियाद द करनी है या छोटी-छोटी चीजों में अपनी खुशियां ढूंढ कर खुद को सेल्फ मेड बनाकर परिवार के लिए भी खुशियों को बनाना है।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ।)