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Republic Day Special: लोकतंत्र के उर्ध्वगामी होने की प्रतीक्षा, बढ़ती खामियां और विफल तंत्र
Republic Day Special: एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय राजनीति में नेताओं के लगातार दल बदलने के कारण देश के लोकतंत्र में खामियां बढ़ती जा रही हैं।
Republic Day Special: भारत आज़ाद हुआ। हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य बने। तब यह उम्मीद की गई थी कि जैसे जैसे लोकतंत्र आगे बढ़ेगा वैसे वैसे उसमें निखार आयेगा। लोकतंत्र की जो थोड़ी बहुत ख़ामियाँ होंगी, उन सबको धीरे धीरे लोक व तंत्र मिल कर दूर कर लेंगे। पर स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव (Amrit Mahotsav) के समय जब हम लोकतंत्र की कसौटी पर कसे जा रहे हैं, तो लगने लग रहा है कि हमारे लोकतंत्र की गति उर्ध्वगामी न हो सकी। क्योंकि लोकतंत्र में हमने जिन ख़ामियों के ख़ात्मे की उम्मीद की थी वह बढ़ती ही जा रही हैं। इससे भी निराश करने वाली बात यह है कि जिस तंत्र से उम्मीद थी, उसने भी अपना काम नहीं किया।
आजाद भारत की स्थापना लोकतंत्र के स्वप्न के साथ हुई थी। एक ऐसे देश का निर्माण होगा जहाँ नैतिक मूल्यों की राजनीति होगी। जैसे जैसे हमारा देश आगे बढ़ेगा, लोकतंत्र के प्रति निष्ठा और लोकतान्त्रिक मूल्यों की जड़ें और भी गहरी होंगी। एक नैतिकतावाले निष्ठावान समाज का निर्माण होगा। हमने जो संवैधानिक व्यवस्था चुनी, जिस तरह की राजनीति और जनप्रतिनिधियों के निर्वाचन का मार्ग बनाया उसे और परिमार्जित और सशक्त होते जाना था।
लेकिन जो सोचा और परिकल्पित किया गया था हुआ उसका उलटा है। लोकतंत्र मजबूत होने की बजाय कमजोर होता गया है और इसमें हाथ है राजनीति, खासकर चुनावी राजनीति का। जिसमें अब सिर्फ सत्ता और प्रिवीलेज- दो ही लक्ष्य रह गए हैं। जो हर चुनाव के समय अपना बदरंग चेहरा लेकर सामने आ जाते हैं। चुनाव पास आते ही, सब निष्ठाएं हवा हो जाती हैं, नेताओं का अपनी ही पार्टी में अचानक दम घुटने लगता है।सब नीतियां ख़राब और बेकार लगने लगती हैं। दूसरे दल में सब अच्छा लगने लगता है। जिस कदर पाले बदले जाते हैं, अब उसने जनता को हैरान करना छोड़ दिया है।
सुबह कोई और पार्टी, शाम को कोई और पार्टी। अब तो बिना दलबदलुओं के कोई सरकार भी नहीं बन रही है। निष्ठा बदलने का क्रम कोई आज का नहीं है। आंकड़े तस्दीक करते हैं कि 1957 से 1967 तक जितने भी आम चुनाव उनमें 542 बार सांसद या विधायकों ने अपने दल बदले। 1967 में चौथे आम चुनाव के बाद साल भर के भीतर में रिकार्ड संख्या में 430 बार सांसदों और विधायकों ने दल बदल किया। एक और रिकॉर्ड ये बना कि दल बदल के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं। 1979 में तो जनता पार्टी में दल-बदल के चलते ही चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री बन सके थे।
भारत में लोकतान्त्रिक राजनीतिक का इससे बुरा हाल क्या हो सकता है कि नेताओं के दल बदल के खिलाफ एक कानून तक बनाया गया । लेकिन उसके बावजूद हमारे सिस्टम में आया राम-गया राम संस्कृति फली-फूली है। राजनीति के दलबदलुओं में पूर्व निष्ठाओं से दूर होने का मुख्य उद्देश्य आम तौर पर या तो अपनी पोजीशन और विशेषाधिकारों को बनाए रखना होता है या दूसरे पक्ष से अधिक शक्ति और पक्ष प्राप्त करना होता है। भारतीय राजनीती में दलबदलुओं की मौजूदगी का आलम ये रहा है कि एक मुहावरा - आया राम-गया राम-तक इसपर गढ़ा जा चुका है।
भाजपा को हुआ दलबदल का सबसे बड़ा फायदा
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) (Association for Democratic Reforms) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय राजनीति ने पिछले पांच वर्षों में कई दलबदल देखे हैं। एक विश्लेषण के अनुसार, भाजपा को दलबदल का सबसे बड़ा फायदा हुआ, जबकि 2014 और 2021 के बीच हुए चुनावों में अपने नेताओं के पक्ष बदलने के कारण कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अवधि में हुए विधानसभा और संसदीय चुनावों के दौरान कांग्रेस से सबसे अधिक 222 लोग पार्टी को छोड़कर अन्य दलों में शामिल हो गए। इसी अवधि के दौरान 153 लोगों ने बहुजन समाज पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर ली थी। जब लोग एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो यह धारणा पैदा होती है कि दूसरी पार्टी के चुनाव जीतने की अधिक संभावना है। दरअसल ऐसा होता नहीं है। बंगाल चुनाव में ऐसा देखा जा चुका है जहाँ बड़े पैमाने पर टीएमसी के नेता भाजपा में शामिल हो गए । लेकिन जीत नहीं दिला पाए और चुनाव बाद फिर वापस टीएमसी में चले गए।
नेताओं का पाला बदल चुनाव के एलान के साथ ही शुरू
इस बार भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही नेताओं का पाला बदल शुरू हो गया है। टिकट कटने के अलावा बहुत से नेता भविष्य का गुना-गणित का अनुमान करके पार्टियाँ बदल रहे हैं। यूपी में दलबदल का सिलसिला चुनाव के ऐलान होने से कई महीने पहले से शुरू हो गया था। अक्टूबर में, बसपा और कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हुए। यह सिलसिला तो अब हास्यास्पद स्थिति में पहुँच गया है। पाला बदलने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी अभी और होगी जब जिताऊ प्रत्याशी के चयन में लोगों के टिकट कटेंगे। यह सिर्फ भाजपा में ही नहीं बाकी दलों में भी होगा।
सभी सियासी दल जीतने का दम रखने वाले प्रत्याशियों की तलाश में जुटे हैं। इसलिए टिकट हासिल करने में अपने दल में खुद को असुरक्षित महसूस करने वाले नेता अब दूसरे दल में सुरक्षित ठिकाने की तलाश में जुटे हैं। लेकिन उत्तरदेश में दलदबदल कमाल तरीके से चल रहा है। भाजपा के नेता थोक के भाव टूट कर सपा में जा रहे हैं। उसी तरह थोक भाव में सपा के नेता पाला बदल कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। कुछ ऐसा ही बसपा में भी पालाबदल का खेल चल रहा है। सपा के चार एमएलसी पहले ही भाजपा में शामिल हो चुके है। जबकि बसपा के भी दर्जनभर नेता सपा में चले गए और कांग्रेस के भी बड़े नेता पाला बदल चुके हैं।
गोवा की राजनीति (Goa Politics) का दुर्भाग्य देखिये। वर्तमान विधानसभा (2017-2022) के पांच साल के कार्यकाल में 24 विधायकों ने पार्टी बदल दी है। जो सदन की कुल संख्या का 60 प्रतिशत है। भारत में कहीं और ऐसा नहीं हुआ है। ये भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक रिकॉर्ड है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में ये जानकारी दी गयी है। एडीआर ने गोवा के विधायकों का ब्यौरा जारी किया है। इसे मतदाताओं के जनादेश के प्रति पूर्ण अनादर न कहा जाए तो और क्या कहेंगे। अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले 11 मौजूदा विधायकों ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है और अन्य राजनीतिक दलों में शामिल हो गए हैं। 40 सदस्यीय विधानसभा की ताकत अब 29 रह गई है। एक कैबिनेट मंत्री सहित चार भाजपा विधायक, कांग्रेस के तीन, तीन निर्दलीय और गोवा फॉरवर्ड पार्टी (जीएफपी) के एक विधायक ने अपने दल से इस्तीफा दे दिया और दूसरे राजनीतिक दलों में शामिल हो गए।
मार्च 2017 से अब तक 27 विधायकों ने अपनी पार्टी बदल ली है। 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस 17 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी । लेकिन अब वह मात्र दो सदस्यों में सिमट कर रह गई है। दरअसल, विश्वास मत के दौरान विश्वजीत राणे (Vishwajeet Rane) ने इस्तीफा दे दिया था । जबकि अक्टूबर 2018 में सुभाष शिरोडकर (Subhash Shirodkar) और दयानंद सोपटे (Dayanand Sopte) ने कांग्रेस (Congress Party) से इस्तीफा दे दिया। बाद में ये तीनों उपचुनाव में भाजपा (Bhartiya Janta Party) के टिकट पर जीत कर सदन में लौट आये। 2019 में कांग्रेस के दस और एमजीपी के दो विधायकों का भाजपा में विलय हो गया था।
विधानसभा के कार्यकाल के अंतिम दिनों में इस्तीफा देने वाले 11 विधायकों में से चार भाजपा में शामिल हो गए जबकि तीन कांग्रेस में, दो टीएमसी में और एक-एक एमजीपी और आप में शामिल हो गए।
उत्तर पूर्व राज्यों की राजनीति की खासियत है दलबदल
दलबदल उत्तर पूर्व के राज्यों की राजनीति की खासियत है। केंद्र में सत्तासीन पार्टी इन राज्यों की राजनीति को कंट्रोल करती रही है। मणिपुर में कांग्रेस से भाजपा में विधायकों के दलबदल की लहरें उसी राजनीति का हिस्सा हैं। इस क्षेत्र की राजनीति को इसकी अस्थिरता से भी परिभाषित किया जाता है। राज्य कांग्रेस के दिग्गज और 3 बार के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह (Okram Ibobi Singh) के नेतृत्व में पार्टी 2017 के विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। लेकिन एन बीरेन के नेतृत्व वाली भाजपा ने छोटे दलों के साथ गठबंधन करके सदन में बहुमत हासिल कर लिया और सरकार बनाने में कामयाब रही। उसके बाद से पांच वर्षों में कांग्रेस लगातार नीचे की ओर खिसकती गई । जिसकी वजह समय-समय पर हुए दलबदल रहे। मणिपुर की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों की संख्या 2017 में 28 से गिरकर अब केवल 13 हो गई है। मौजूदा समय में भी पाला बदल खेल जारी है।
अब ज़रा सोचिये कि दलबदल करने वाले ये लोग किस तरह के चरित्र का निर्माण करेंगे? क्या यही हमारे रोल मॉडल होंगे? इन्हीं रोल मॉडल पर हमें अपने नौजवानों से क्या उम्मीद करनी चाहिए? बाबा साहेब अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि- हमारा संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा। लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि 'किसी के लिए भी नहीं' नजर आयेगा। लोकतंत्र से हमें उत्तरदायी, ज़िम्मेदार व वैध शासन की उम्मीद होनी चाहिए । पर आज जो हमारे नेता अपने चरित्र का परिचय दे रहे हैं, उनसे यह उम्मीद कितनी की जानी चाहिए । हम भारतीयों को केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए । हमारी दिक़्क़त है कि हमने अपने लोकतंत्र को केवल राजनीति तक की सीमित कर दिया है। वह सत्ता व चुनाव का हिस्सा बन कर रह गया है।
(लेखक पत्रकार हैं।)