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आभासी दुनिया में लोकतंत्र

Republic Day Special: रैलियों का आयोजन, कार्यकर्ताओं के लिए गाड़ियों का इंतजाम आदि खर्चे वाले काम होते हैं। भीड़ भाड़े की भी जुटाई जाती है। सो लोग सोच सकते हैं कि वर्चुअल अभियान तो सस्ते में निपट जाएगा। लेकिन ये काफी हद तक गलत सोचना है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Shreya
Published on: 25 Jan 2022 2:15 PM IST
Republic Day Special: आभासी दुनिया में लोकतंत्र
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 आभासी दुनिया में लोकतंत्र (फोटो- न्यूजट्रैक) 

Republic Day Special: बीते दिनों पाँच राज्यों के चुनावों की तिथियाँ (Assembly Election 2022 Date) घोषित करते समय निर्वाचन आयोग (Election Commission) की ओर से आभासी दुनिया (Virtual World) के दो शब्द- वर्चुअल (Virtual) व डिजिटल (Digital) का कई बार प्रयोग किया। इससे यह साफ़ हो गया कि विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) आभासी होने जा रहे हैं। कोरोना की लहर के कारण सिर्फ वर्चुअल अभियान (Virtual Election Campaign) की इजाजत है। जिस तरह संक्रमण फैला हुआ है। उसे देखते हुए चुनाव आयोग ने वर्चुअल रैली करने की ही इजाजत दे रखी है। सिर्फ लोग वोट डालने फिजिकल तौर पर पोलिंग बूथ जायेंगे, बाकी काम – प्रचार से लेकर परिणाम तक – वर्चुअल होगा।

भीड़ न एकत्र होने पाए, इसीलिए वर्चुअल पर जोर है। वर्चुअल यानी आभासी। नेता अपने घर या दफ्तर में बैठे रहेंगे और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (Video Conferencing), वीडियो कॉल (Video Call) से अपने कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग करेंगे। नेता और प्रत्याशी जनता तक अपनी बातें फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम वगैरह पर लाइव चैट और लाइव शो के जरिये पहुंचाएंगे और उनसे रूबरू होंगे। इसके अलावा टीवी पर प्रसारण, पॉडकास्ट, रेडियो जैसे माध्यमों से भी वादे, आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला चलेगा। हां, व्हाट्सएप पर लोगों को मैसेज, वीडियो, फोटो इत्यादि भेजे जाएंगे। यही सब वर्चुअल है। सामने नेता है और नहीं भी है।

वर्चुअल अभियान में भी खर्च होते हैं करोड़ों

रैलियों का आयोजन, कार्यकर्ताओं के लिए गाड़ियों का इंतजाम आदि खर्चे वाले काम होते हैं। भीड़ भाड़े की भी जुटाई जाती है। सो लोग सोच सकते हैं कि वर्चुअल अभियान तो सस्ते में निपट जाएगा। लेकिन ये काफी हद तक गलत सोचना है। बिहार चुनाव (Bihar Election) को उदाहरणस्वरूप रखें तो एक रिपोर्ट के अनुसार वहां एक वर्चुअल रैली (Virtual Rally) में राज्य के 72 हज़ार बूथों के कार्यकर्ताओं तक अमित शाह (Amit Shah) का संवाद पहुंचाने के लिए हज़ारों एलईडी स्क्रीनों और स्मार्ट टीवी इंस्टॉल कराए गए। राजद ने आरोप भी लगाया था कि इस रैली पर सरकार ने 144 करोड़ रुपए खर्च किए।

बहरहाल, सोशल मीडिया (Social Media) पर अभियान चलाने के लिए बड़ी टीम चाहिए। इसका खर्च काफी बड़ा होता है क्योंकि ये अभियान लगातार चलता है। अभियान के लिए एक्सपर्ट टीम के अलावा किसी एजेंसी या कई एजेंसियों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं। डेटाबेस चाहिए होता है, हार्डवेयर की जरूरत होती है। फिजिकल रैलियों से ज्यादा ही खर्च वर्चुअल अभियान (Virtual Election Campaign) में हो सकता है। दूसरी बात यह कि ग्रामीण क्षेत्रों में दिल्ली या लखनऊ में बैठकर वर्चुअल अभियान नहीं चलाया जा सकता। ग्रामीण मतदाताओं को टारगेट करने के लिए टीवी, रेडियो जैसे तरीके अपनाने होंगे जिनका अलग खर्च होगा।

टीवी और रेडियो का इस्तेमाल सत्ताधारी पार्टी के हाथ में रहेगा, इसमें दो राय नहीं है। अन्य दल भी निजी चैनलों या रेडियो एफएम के वर्चुअल प्रचार कर सकती हैं। चूंकि वर्चुअल रैली का खर्च बहुत ज़्यादा होगा इसलिए संचार माध्यमों के सही और टारगेटेड इस्तेमाल से ही उसका कोई लाभ मिल सकेगा। स्मार्टफोन के ज़रिये पार्टियां करोड़ों लोगों तक पहुंचने की रणनीति बनाई जाएंगी।

क्या होगा वर्चुअल प्रचार अभियान से फायदा?

वर्चुअल प्रचार अभियान से उम्मीदवारों को समर्थकों के साथ सीधे संवाद करने और समग्र वोट को प्रभावित करने का मौका मिलता है। उम्मीदवार उन लोगों तक पहुंच सकते हैं जो रैली में नहीं जाते हैं, नेताओं के भाषण नहीं सुनते हैं या सुन नहीं पाते हैं। उम्मीदवार सीधे जनता से संपर्क स्थापित कर सकते हैं, महत्वपूर्ण बिंदुओं को हाईलाइट कर सकते हैं और अपने प्रतिस्पर्धियों की खामियों के बारे में जागरूकता ला सकते हैं।

वर्चुअल कैंपेनिंग से प्रत्याशी और पार्टियां ट्विटर, इंस्टाग्राम सहित विभिन्न प्रकार के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करके, अपनी जनसांख्यिकी के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं, सीख सकते हैं। एक बार अपने मतदाताओं को जान लेने पर उम्मीदवारों को पता चल जाता है कि पूरे वर्चुअल अभियान में उनके साथ कैसे जुड़ना है।

आभासी अभियान की चुनौतियां भी कम नहीं

वर्चुअल प्रचार अभियान की भी अपनी चुनौतियाँ हैं। लोगों तक ऑनलाइन पहुंचना और अपने विचारों को प्रस्तुत करना कुछ कारणों से कठिन भी होता है। मुमकिन है कि कोई आपकी वर्चुअल रैली में आये ही नहीं। दरअसल, ऑनलाइन अभियान में समय या स्थान की बाध्यता नहीं होती सो प्रतिभागी जहां हैं , वहीं से जुड़ सकते हैं। प्रतिभागी दूसरे काम में व्यस्त हैं तो वे वर्चुअल भाषण या रैली में जुड़ेंगे ही नहीं। फिजिकल रैली में तो भीड़ जुटाना आसान है । लेकिन लोगों को एक नियत समय में स्मार्टफोन या टीवी के सामने बैठाना मुश्किल है।

चुनौती यह है कि वर्चुअल अभियान में संभावित प्रतिभागियों की रुचि ही न जगे। ये भी चुनौती है कि जनता वर्चुअल भाषण के दौरान टिके ही न। आभासी अभियानों में शामिल होना आसान है। छोड़ना भी आसान है क्योंकि इसमें केवल एक क्लिक भर करना होता है। लोगों को एंगेज करना कठिन काम होता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने यूजर्स के बारे में बहुत सारी जानकारी हासिल करते हैं। कभी-कभी ढेर सारी सूचना प्रोसेस करना मुश्किल होता है। उपयोगी जानकारी प्राप्त करना और भी चुनौतीपूर्ण होता है।

भारत में इंटरनेट और स्मार्टफोन की पैठ बहुत ज्यादा नहीं है। भारत के ग्रामीण इलाकों और कम आय वर्ग में फीचर फोन के उपयोगकर्ता बहुत बड़ी संख्या में हैं। ऐसे में सोशल मीडिया उनसे संपर्क करना या वर्चुअल रैली में उनसे जुड़ना नहीं हो सकता है। 2018 के एक डेटा के अनुसार उत्तर प्रदेश में मोबाइल फोन के यूजर्स की संख्या 12 करोड़ 10 लाख है। इनमें से 33 फीसदी स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हैं। अब इन सभी तक पहुँच बनाना प्रत्याशियों और पार्टियों के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम होगा।

महामारी से पहले नहीं हुआ वर्चुअल चुनाव अभियान का व्यापक इस्तेमाल

कोरोना महामारी से पहले वर्चुअल चुनाव अभियान का किसी देश ने व्यापक इस्तेमाल नहीं किया गया है। पश्चिमी देशों में चुनावों में सोशल मीडिया का सहारा लिया जाता रहा है। लेकिन पूरी तरह वर्चुअल अभियान कहीं नहीं किया गया। अमेरिका में पिछले साल कोरोना महामारी के बीच चुनाव हुए थे। उस दौरान रैलियां बहुत कम हुईं और ऑनलाइन बहस तथा ऑनलाइन रैली का सहारा लिया गया था।

2020 में 64 देशों ने चुनाव कोरोना महामारी के कारण स्थगित कर दिए थे । जबकि फ़्रांस, अमेरिका, साउथ कोरिया और बुरुंडी समेत दर्जनों देशों ने चुनाव कराये भी। अमेरिका और कई देशों ने पोस्टल बैलट का अधिकाधिक इस्तेमाल किया। लेकिन कोरोना से बचाव के लिए अतिरिक्त इंतजाम करना खासा महंगा भी पड़ा था। मिसाल के तौर पर साउथ कोरिया में 16 मिलियन डॉलर का अतिरिक्त खर्चा आया।

विश्व के अमीर देशों में चुनाव अभियान के लिए डिजिटल मीडिया पर बड़ी रकम खर्च की जाती रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में पश्चिमी यूरोप में चुनावी खर्च का 34 फीसदी डिजिटल माध्यमों पर खर्च किया गया था। अमेरिका में ये 28 फीसदी और यूके में 50 फीसदी रहा। पूरी दुनिया में इस खर्च का औसत 30 फीसदी रहा। जहाँ तक टीवी पर होने वाले खर्च की बात है तो 2015 में चुनाव अभियान का टीवी पर खर्चा 24 फीसदी, अमेरिका में 42 फीसदी, पश्चिमी यूरोप मं 28 फीसदी और दुनिया में 39 फीसदी रहा। ये दर्शाता है कि डिजिटल माध्यमों पर लोगों के शिफ्ट होने के चलते विज्ञापनदाता भी उसी तरह गए हैं।

चुनाव आयोग को उठाना चाहिए यह कदम

लेकिन जिस तरह सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्मों पर फेंक व फ़र्ज़ी अकाउंट की बाढ़ है। वह चुनावी खर्चे को बेतहाशा बढ़ा भी सकती है। यही नहीं, आभासी दुनिया की दिक़्क़तों का शिकार हमारा लोकतंत्र भी न हो जाये। यह निर्वाचन आयोग की सबसे बड़ी चुनौती है। कभी हम डेटा प्राइवेसी को लेकर ख़ूब शोर शराबा मचा रहे थे। अब इसके ख़तरे से हम सब अनभिज्ञ बन रहे हैं। सुविधाओं से ज़्यादा चुनौतियाँ है। इससे बेहतर तो यह होता कि निर्वाचन आयोग नेता व राजनीतिक दलों से कहें कि वह पाँच साल जनता के बीच ही तो रहते हैं। फिर पाँच साल के किये धिये को लेकर सीधे जनता के पास जायें। यह हर चुनाव में लागू कर दिया जाना चाहिए ताकि प्रचार पर बेतहाशा ख़र्च होने वाली राशि को बचाया जा सके। बीते हर चुनाव से यह नतीजा निकलता है कि आयोग के पास केवल दिखाने के दांत है। काश खाने के दांत भी आयोग के पास आ जाये।

( लेखक पत्रकार हैं ।)

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Shreya

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