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Republic Day Special: आज के दौर में इन नेताओं को भी याद करें

Republic Day Special: आज राजनीति में अपराधियों का बोलबाला है। लेकिन एक समय ऐसा था जब गलती से अपराधी प्रवृत्ति का कोई व्यक्ति टिकट पा जाए तो उसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हराने की अपील कर देता था।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Shreya
Published on: 25 Jan 2022 7:38 AM GMT
Republic Day Special: आज के दौर में इन नेताओं को भी याद करें
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भारतीय नेता (फोटो- न्यूजट्रैक) 

Republic Day Special: 7 में बांसगांव से सांसद रहे फिरंगी प्रसाद के चुनाव प्रचार में एक बार चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) आए थे। चौरीचौरा रेलवे स्टेशन के सामने उनकी सभा थी। उन्होंने मंच पर बैठे फिरंगी प्रसाद का हाथ पकड़कर उन्हें सीट से उठाया और कहा- यदि मेरा प्रत्याशी बेइमान हो तो उसे जरूर हरा देना। इस पर भीड़ से आवाज उठी- इन पर कोई आरोप नहीं है। बाद में फिरंगी प्रसाद चुनाव जीत गए। उन्हें क्षेत्र में पड़े कुल वोट का 75 फीसदी हासिल हुआ, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।

आज राजनीति में अपराधियों का बोलबाला है। लेकिन एक समय ऐसा था जब गलती से अपराधी प्रवृत्ति का कोई व्यक्ति टिकट पा जाए तो उसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हराने की अपील कर देता था। आज़मगढ़ के 1989 के विधानसभा चुनाव में लोकदल से श्याम करन यादव (Shyam Karan Yadav) प्रत्याशी थे। उनके पक्ष में मेहता पार्क में जनसभा का आयोजन किया गया था। चौधरी चरण सिंह का संबोधन होना था। वह जनसभा को संबोधित करने आए जरूर और लोगों के सामने अपनी बात रखी। संबोधन के दौरान उन्होंने पहले अपने पार्टी के प्रत्याशी को जिताने की अपील लोगों से की।

बाद में संबोधन के दौरान उन्होंने यह भी कह दिया कि अगर मैंने टिकट देने में गलती की है तो आप कोई चूक मत कीजिए। उनकी इस बात को सुनकर जनसभा मौजूद लोग हक्का-बक्का हो गए। वे यहीं नहीं रुके। दो टूक शब्दों में कहा कि अगर मेरा प्रत्याशी लुटेरा, चोर, गुंडा या बदमाश है तो उसकी जमानत जब्त करा देना। उन्हीं तरह से जनपद में भी एक नेता हुआ करते थे बाबू विश्राम राय (Babu Vishram Rai)। जमींदार घराने से थे, विधानसभा चुनाव लड़े और जीते भी। उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली। वहीं आज धनबल और बाहुबल का प्रदर्शन हो रहा है। सारा चुनाव ही इसी पर केंद्रित हो गया है। आज कोई लाभ का अवसर छोड़ना नहीं चाहता है।

प्रतिद्धंदी होते हुए भी था आपसी प्रेम

बिहार के सुपौल में दो नेता हुआ करते थे लहटन चौधरी (Lahtan Chaudhary) और परमेश्वर कुंवर (Parameshwar Kunwar)। राजनीति के दंगल में दोनों एक दूसरे के प्रतिद्धंदी थे। लेकिन दोनों के बीच के आपसी प्रेम में कभी कड़वाहट देखने को नहीं मिली। एक बार चुनाव में लहटन चौधरी की गाड़ी खराब हो गई। तभी उधर से परमेश्वर गुजर रहे थे। उन्होंने देखा तो कार से अपना झंडा उतार कर गाड़ी लहटन को दे दी। कई बार ऐसा हुआ कुंवर पैदल चुनाव प्रचार में होते तो लहटन की कार में बैठ कर प्रचार के लिए जाते थे।

बिहार के समाजवादी नेता शिवशंकर यादव (Shiv Shankar Yadav) ने 1977 में जनता पार्टी की लहर में भी उसका टिकट लेने से इनकार कर दिया था। ऐसा इसलिए कि 1971 के लोकसभा चुनाव में खगड़िया लोकसभा सीट का सांसद बनने के बाद का उनका अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा था। शिवशंकर यादव 1971 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव चिह्न पर देश भर में विजयी कुल तीन प्रत्याशियों में से एक थे।

1977 की जनता लहर में शिवशंकर यादव से खगड़िया से फिर से चुनाव लड़ने को कहा गया तो उनका उत्तर था- न मैं टिकट लूंगा और न ही चुनाव लड़ूंगा। सांसद होने का क्या मतलब, अगर मतदाता आपके पास गलत कामों की पैरवी कराने आने लगें? एक बार की सांसदी में ही मैं ऐसे कामों की पैरवी से इनकार करते-करते तंग आ चुका हूं। मेरी अंतरात्मा इस तरह आगे और तंग होते रहने की इजाजत नहीं देती।

व्यक्तिगत प्रहार से बचते थे हरबंस कपूर

उत्तराखंड के हरबंस कपूर (Harbans Kapoor) 1985 में भाजपा के टिकट पर देहरादून विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट से चुनाव हार गए थे। यह उनका पहला चुनाव था। लेकिन इसके बाद वे हर चुनाव जीते। पूर्व विधायक हीरा सिंह बिष्ट बताते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान भी वे दोनों चाय के दुकान पर साथ बैठते और हंसी मजाक किया करते थे। किसी की मदद करने की बात आती तो एक साथ मिलकर उसकी मदद करते। हरबंस कपूर ने कभी किसी प्रत्याशी के ऊपर व्यक्तिगत प्रहार नहीं किये थे।

पैदल यात्रा कर चुनाव प्रचार करते थे तेज सिंह भाटी

1967 के चुनाव में एक नेता हुआ करते थे तेज सिंह भाटी (Tej Singh Bhati)। वो बुलंदशहर जिले के थे। तेज सिंह भाटी हमेशा अकेले पैदल यात्रा कर चुनाव प्रचार करते थे। उनकी खासियत थी कि देर शाम तक प्रचार करने बाद जिस गांव में होते थे, वहीं रुक जाया करते थे। गांवों में मतदाताओं यहां भोजन करते और रात्रि निवास भी उन्हें के यहां करते। तेज सिंह अपने साथ कपड़े साथ में रखते थे। जिस घर में रुकते अगली सुबह वहीं कपड़े धोते। जब तक गांव में लोगों के साथ जनसभा करते तब तक कपड़े सूख जाते। उसके बाद उनकी इस्त्री करवा लेते।

1977 के चुनाव में रीवां के महाराज मार्तंड सिंह (Maharaj Martand Singh) प्रचार करने से पहले अपने प्रतिद्वंद्वी समाजसेवी यमुना प्रसाद शास्त्री (Yamuna Prasad Shastri) के पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे। पूरे प्रचार में मार्तंड सिंह उनके खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते थे। इसकी वजह थी यमुना प्रसाद की शख्सियत, उन्होंने गोवा के मुक्ति संग्राम में हिस्सा लिया था। वह एक वास्तविक समाजसेवी थे।

एक-दूसरे के प्रति था खूब सम्मान

90 के दशक के पहले की राजनीति की एक मिसाल थे घाटमपुर से कांग्रेस प्रत्याशी पंडित बेनी सिंह अवस्थी (Pt. Beni Singh Awasthi) और सोशलिस्ट प्रत्याशी कुंवर शिवनाथ सिंह कुशवाहा (Kunwar Shivnath Singh Kushwaha)। बेनी प्रसाद की जीप को देख कर शिवनाथ सिंह साइकिल से उतर जाते थे। पैर छूकर बेनी बाबू से आशीर्वाद लेते थे। बेनी बाबू भी उनसे कहते थे कि शिवनाथ तुम्हारी फलां पोलिंग गड़बड़ है, देख लेना। दोनों ने 1962, 67, 69 व 74 के चुनाव में हिस्सा लिया था। एक दूसरे के प्रति सम्मान का आलम यह था कि चारों चुनाव में शिवनाथ सिंह, प्रतिद्वंदी बेनी बाबू के पैतृक गांव बिरसिंहपुर में वोट मांगने नहीं जाते थे। अगर कभी सोशलिस्ट के समर्थक उत्साह में आकर बेनी बाबू के खिलाफ आपत्तिजनक नारे लगा देते थे तो शिवनाथ सिंह उन्हें डांट कर चुप करा देते थे।

कर्पूरी ठाकुर भी राजनीति की दुनिया में थे मिसाल

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) का नाम आज के सन्दर्भ में याद किये जाने की जरूरत है। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था, ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर ने अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा- जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।

जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे उन दिनों उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित किया। ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए। लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया, उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव गांव में हो रहा है, रोकना है तो सब जगह रोको।

ईमानदारी के मिसाल लाल बहादुर शास्त्री

लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) जब प्रधानमंत्री थे तब एक बार उनके बेटे सुनील शास्त्री (Sunil Shastri) कहीं जाने के लिए सरकारी गाड़ी लेकर चले गए। वे जब वापस आए तो लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा कि सरकारी गाड़ी देश के प्रधानमंत्री को मिली है ना की उसके बेटे को। आगे से कहीं जाना हो तो घर की गाड़ी का प्रयोग किया करो। शास्त्री जी ने अपने ड्राइवर से पता करवाया की गाड़ी कितने किलोमीटर चली है और उसका पैसा सरकारी राजकोष में जमा करवाया।

नंदकिशोर नाई और फिरोज खान से जुड़ा किस्सा

समाजवादी चिंतक नंदकिशोर नाई (Nandkishor Nai) का नाम आम तौर पर लोगों ने कम ही सुना होगा। पर, उन्नाव के बीघापुर के ओसिया गांव में 4 अक्तूबर 1924 को जन्मे नंद किशोर वह प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के कई वर्षों तक सचिव रहे। नंद किशोर के पिता गांव में जजमानी का काम करते थे। हालांकि, उनके पिता बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। लेकिन उन्होंने पुत्र नंद किशोर की पढ़ाई लिखाई पर काफी ध्यान दिया।

डॉ. लोहिया ने नंद किशोर को 1957 के लोकसभा चुनाव में पं. जवाहर लाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी के खिलाफ रायबरेली से प्रत्याशी बना दिया। लखनऊ के महापौर रहे डॉ. दाऊ जी गुप्त के मुताबिक़, उन दिनों सोशलिस्ट पार्टी को कोई गंभीरता से नहीं लेता था। जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में गठित सोशलिस्ट पार्टी को 'पागलों का समूह' बताते थे। सोशलिस्ट पार्टी को कोई आसानी से चंदा भी नहीं देता था। फिरोज गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के दौरान घटे इस किस्से की जानकारी उन्हें खुद नंद किशोर जी ने पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त के यहां एक बार दी थी। डॉ. लोहिया ने फिरोज गांधी के खिलाफ नंदकिशोर को चुनाव लड़ाने का फैसला ले लिया।

नंदकिशोर जब दिल्ली से चलने लगे तो डॉ. लोहिया ने जेब में हाथ डालकर रुपये निकाले। सिर्फ 300 रुपये निकले। वह रुपये नंदकिशोर को देते हुए कहा, बाकी का इंतजाम चंदा से कर लो, क्योंकि 300 रुपये से ज्यादा दे पाना मेरे वश में नहीं है। फिरोज गांधी अपनी पत्नी इंदिरा गांधी, जो बाद में देश की प्रधानमंत्री हुईं, के साथ रायबरेली कचहरी में नामांकन करने आए। उन्होंने अपना नामांकन दाखिल किया और फिर बाहर आकर बैठ गए। लोगों ने जब चलने के लिए कहा तो वह बोले, मैं नंदकिशोर को देखना चाहता हूं। डॉ. लोहिया ने जिन्हें मेरे खिलाफ प्रत्याशी बनाया है।

नंदकिशोर के पास सिर्फ 300 रुपये थे, जबकि नामांकन की फीस 500 रुपये थी। नंदकिशोर कचहरी पहुंचे। उनके साथ उनके समर्थक भी थे। नंदकिशोर ने वहां मौजूद लोगों के सामने कहा, मेरे पास सिर्फ 300 रुपये हैं। मुझे पं. नेहरू जी के दामाद फिरोज गांधी साहब के खिलाफ चुनाव लड़ना है। मुझे चंदा चाहिए। नंदकिशोर के समर्थकों ने लोगों से पैसे मांग-मांगकर नामाकंन की फीस जुटानी शुरू की। फिरोज गांधी ने नंदकिशोर को बुलाया और कहा, यह 200 रुपये लो और अपना परचा दाखिल कर दो। पर, नंद किशोर ने मना कर दिया।

हाथ जोड़कर फिरोज गांधी से कहा, साहब! मैं आपके खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूं। इसलिए आपसे ही पैसा लेकर आपके खिलाफ उम्मीदवार बनना शोभा नहीं देता। जैसे-तैसे चंदे से 200 रुपये हुए तो उन्होंने परचा दाखिल किया। परचा दाखिल करके नंदकिशोर बाहर आए तो सामने फिरोज गांधी खड़े थे। उन्होंने नंदकिशोर की पीठ ठोंकी। बोले, नंदकिशोर आपने प्रचार में मुझसे बाजी मार ली। नंदकिशोर बोले, कैसे! फिरोज गांधी ने कहा, तुमने चंदा मांगकर जिले के गरीबों को यह संदेश दे दिया कि तुम ही वास्तव में उनके आदमी हो। तुम ही उनके प्रतिनिधि होने लायक हो।

नामांकन के बाद फिरोज गांधी का एक आदमी नंदकिशोर के पास आया। उनका संदेश दिया, शाम को साहब ने अपने निवास पर चाय पर बुलाया है। नंदकिशोर शाम को फिरोज गांधी के निवास पर पहुंचे। वहां इंदिरा गांधी एवं फिरोज गांधी ने उनका स्वागत किया। अंदर ले गए। साथ चाय पी। काफी देर तक बात करते रहे। फिर वह नंदकिशोर को बाहर तक छोड़ने आए। हाथ मिलाया और बोले, चुनाव चलता रहेगा, लेकिन कभी-कभी चाय व कॉफी भी चलती रहे। चुनाव लड़ने के दौरान यह सिलसिला चलता रहा। अक्सर फिरोज गांधी और नंदकिशोर शाम को एक साथ बैठते।

बाद में तो नंदकिशोर जब भी फिरोज गांधी के यहां पहुंचे, तो इंदिरा गांधी खुद अपने हाथ से नंदकिशोर के लिए चाय व काफी बनातीं और पति फिरोज एवं नंदकिशोर के साथ खुद भी बैठतीं। कुछ लोगों ने इसकी शिकायत डॉ. लोहिया से की, तो लोहिया बोले, इसमें क्या बुराई है? लोकतंत्र है। हम कांग्रेस से वैचारिक लड़ाई लड़ रहे हैं, न कि निजी। वैचारिक लड़ाई में संवाद बना रहे, यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है।

1977 का किस्सा है। कई सभाओं को संबोधित करने के बाद चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) फैजाबाद सर्किट हाउस में विश्राम कर रहे थे। जनता पार्टी के दो वरिष्ठ नेता रामवचन यादव और महादेवप्रसाद वर्मा उनके पास बैठे थे। बातों का सिलसिला चला तो इमरजेंसी के दौरान की गई जबरन नसबंदियों के मुद्दे होते-होते परिवारों के आकार पर आ टिका। चौधरी साहब ने कहा कि वे खुद भी छोटे परिवारों यानी बेटे-बेटियों की संख्या सीमित रखने के पक्ष में हैं। दोनों नेता एक स्वर में बोल उठे, किसी चुनाव सभा में यह बात मुंह से मत निकालिएगा। जबरिया नसबंदी के लिए बदनाम इंदिरा गांधी उसे लपककर राजनीतिक लाभ ले लेंगी। चौधरी ने पूछा कि क्या उनके लिए इंदिरा गांधी के डर से अपनी सोच के खिलाफ जाना ठीक होगा? क्या इससे वे अपनी ही निगाह में नहीं गिर जायेंगे? दोनों नेताओं को कोई जवाब नहीं सूझा।

उन दिनों फैजाबाद जिले की टांडा तहसील में चौधरी के समर्थक एक युवा नेता थे गोपीनाथ वर्मा। वे विधानसभा चुनाव के टिकट के लिए निवेदन करने गए तो टका-सा जवाब मिला, क्षेत्र में जाओ। यथासमय सूचित कर दिया जायेगा। डरते-डरते उन्होंने कहा, 'कैसे सूचित कर दिया जायेगा? प्रदेश अध्यक्ष जी ने मेरा नाम काट दिया उसकी जगह एक शराब व्यवसायी का नाम लिख लिया है। चौधरी साहब ने प्रदेश अध्यक्ष रामवचन यादव को तलब किया। गोपीनाथ की बात बताई, क्या करूं, मजबूरी है. व्यवसायी ने पार्टी के लिए नौ लाख रुपये दिये हैं। इस पर चौधरी बिफर पड़े और बोले, 'मजबूरी आपकी होगी, पार्टी की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। आप व्यवसायी को उसके नौ लाख लौटा दें। हम किसी शराब व्यवसायी को प्रत्याशी नहीं बनायेंगें। गोपीनाथ का टिकट हो गया।

आज के दौर में हमें ये दृश्य देखने और सुनने को मिल ही नहीं सकते। यदि किसी के हाथ ऐसे सौभाग्य लगे तो आप ज़रूर कर सहेज कर रख लें। आज समूचा लोकतंत्र अनाचार व केवल सफलता के पैमाने पर टिका है। यहाँ विचार की जगह विकार ने ले रखी है। परिवारवाद की स्वहितपोषी परिभाषाएँ की जा रही हैं। लोकतंत्र मतलब केवल जीत ही रह गया है। ख़रीद फ़रोख़्त का बाज़ार गर्म है। इन सब में ऐसा नहीं कि लोक को कोई जगह मिल रही हो। लोक निरंतर हाशिये पर जा रहा है। भाषाओं का अनुवाद हो रहा है।भावनाओं का नहीं। उन्हें तो समझना पड़ता है। जिसके लिए किसी के पास टाइम व स्पेस है ही नहीं।जबकि है सब कुछ। जो नहीं है, उसके होने का अहसास नहीं है, जो है उसकी रिक्तता का आभास है।

( लेखक पत्रकार हैं ।)

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Shreya

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