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Senior Journalist Ajay Upadhyay: पत्रकारिता लसी पा अजय जी की कला

Senior Journalist Ajay Upadhyay: वह जितने बेहतर आदमी थे। उससे बेहतर पत्रकार। यह भी कहा जाना चाहिए कि वह जितने बेहतर पत्रकार थे, उससे बेहतर आदमी।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 7 July 2024 8:34 PM IST
Senior Journalist Ajay Upadhyay
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वरिष्ठ पत्रकार अजय उपाध्याय: Photo- Social Media

Senior Journalist Ajay Upadhyay: अजय उपाध्याय। बेहद पढ़ाकू पत्रकार। टेक्नोक्रेट संपादक। हिंदी अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में बराबर की दक्षता। हमें कभी साथ काम करने का अवसर तो नहीं मिला । न ही उनकी ख्याति व उनके कौशल से कोई साबका ही पड़ा। पर जिन दिनों मैं जागरण दिल्ली में प्रशांत मिश्र जी के साथ काम कर रहा था। उन दिनों उनके बारे में बहुत कुछ सुना। बहुत कुछ जाना। क्योंकि प्रशांत जी के पहले वह जागरण में ब्यूरो चीफ़ हुआ करते थे। उस समय प्रशांत मिश्र जी डिप्टी ब्यूरो चीफ़ थे। अजय उपाध्याय जी के ब्यूरो के साथियों में निर्मल पाठक, उमाकांत लखेडा, अंशुमान तिवारी, संजय सिंह, नितिन प्रधान, आलोक कुमार शामिल थे। जब मैं जागरण ब्यूरो में पहुँचा तब ये सभी लोग जागरण में ही काम कर रहे थे।पर अजय उपाध्याय जी संपादक बन कर हिंदुस्तान ग्रुप में जा चुके थे। अपने समय में उन्होंने हिंदुस्तान को उत्तर भारत में बहुत विस्तार दिया। हमारे ब्यूरो के साथी उनकी बातें बहुत करते थे। उनके बारे में बहुत कुछ बताते थे। मसलन, पढ़ना उनकी आदत थी। हिंदी व अंग्रेज़ी में उनकी समान दक्षता थी। उन्होंने पढ़ाई तो तकनीकी की थी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बी.टेक और मौलाना आज़ाद कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, भोपाल से एम. टेक की डिग्री हासिल की थी। पर पत्रकारिता में उस काल में आये जब तकनीकी की मीडिया में आज की तरह कोई ख़ास भूमिका नहीं थी। बिज़नेस व अर्थशास्त्र पर भी उनकी बहुत मज़बूत पकड़ थी। वह जितने बेहतर आदमी थे। उससे बेहतर पत्रकार। यह भी कहा जाना चाहिए कि वह जितने बेहतर पत्रकार थे, उससे बेहतर आदमी। उनसे मिलकर यह तय कर पाना संभव नहीं था कि वह जिदंगी के किन किन हिस्सों में कितनी दखल रखते हैं। दर्शन, संस्कृति, सामाजिक बुनावट, अर्थशास्त्र, सामरिक नीति, विदेश नीति, तकनीकी, अर्थशास्त्र, बिज़नेस, राजनीति सब में उनकी गहरी पैठ थी। उन्हें आज के समय तक का सबसे पढ़ाकू और ज्ञानवान संपादक कहा जाना चाहिए । पढ़ाकू पत्रकारों से उनका लगाव होना स्वाभाविक था।

दैनिक जागरण में काम करते हुए हमें उस समय के मानव संसाधन मंत्रालय को भी कवर करने का ज़िम्मा प्रशांत जी ने दिया था। क्योंकि उस समय इस विभाग के मंत्री डॉ मुरली मनोहर जोशी थे। जोशी जी से प्रशांत जी का भी बहुत मधुर रिश्ता था। जागरण के संपादक व सासंद नरेंद्र मोहन जी पर भी डॉ जोशी की कृपा बरसती थी। सो, जागरण के लिहाज़ से यह ख़ासा महत्वपूर्ण मंत्रालय था। उन दिनों यूपी कॉडर के तमाम अफ़सरों को मानव संसाधन मंत्रालय में तैनाती मिल गयी थी। इनमें डी.के. कोटिया, आलोक टंडन, विजय शंकर पांडेय, कल्पना अवस्थी, बी. के. चतुर्वेदी आदि प्रमुख थे। इन सब से मेरी लखनऊ में काम करते हुए बहुत निकटता थी। लिहाज़ा मानव संसाधन मंत्रालय और डॉ जोशी जी से जुड़े विभागों की खबरों को सबसे पहले लिख लेने का अवसर हमें खूब मिलता रहा। औसतन रोज एक खबर बाई लाइन हुआ ही करती थी।


एक रोज ब्यूरो के साथी संजय सिंह जी ने कहा कि हमें मिलने के लिए अजय उपाध्याय जी ने बुलाया है।हमने यह बात प्रशांत जी से की। उन्होंने कहा कि चले जाओ। मिल आओ। पर यह ध्यान रखना हिंदुस्तान ज्वाइन मत करना। जागरण छोड़ना नहीं। मैंने कहा,”भाई साहब ऐसा नहीं होगा। दिल्ली रहूँगा तो बस आप के साथ।” सचमुच उन्होंने हमें बहुत स्वतंत्रता व संरक्षण दे रखा था। हमने संजय सिंह जी से कहा कि आप अजय जी से समय ले लो। हम चलेगें। दूसरे दिन प्रशांत जी ने कहा एक काम करो अजय जी से मिलने हिंदुस्तान ऑफिस नहीं, उनके घर जाओ। हमने यह बात संजय जी से कही। हमारा अज़य जी से मिलने का टाइम उनके घर पर तय हो गया।उन दिनों मैं संजय जी के स्कूटर पर स्टेपनी की तरह लग गया था। उनकी स्कूटर से हम लोग कटवरिया सराय गये। पहले मंज़िल पर अजय जी का घर था। अजय जी के इर्द गिर्द किताबें बेतरतीब से बिखरी थीं।

उन्होंने कहा मैंने तुमको मिलने के लिए इसलिए बुलाया है कि तुम मानव संसाधन मंत्रालय से इतनी खबर लाते कैसे हो? तुमने तो इस मंत्रालय को रेगुलर बीट बना दिया? तब मैंने उन्हें बताया कि भाई साहब हमने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डी फ़िल किया है। इसलिए पढ़ने लिखने में रुचि है। डॉ जोशी और उनके अफसरों को पहले से जानता हूँ । तब उन्होंने बताया कि जागरण में रहते हुए वह मानव संसाधन मंत्रालय कवर करते थे। मुलाक़ात तीन चार घंटे चली, खूब बातें हुई। उन्होंने बहुत कुछ हमें अपने बारे में बताया। कैसे तकनीकी छूटी। क्रांम्पटन ग्रिवज की नौकरी छूटी। कैसे आईएएस बनने बनारस लौटे। क्यों आईएएस नहीं बन पाये? आज अख़बार के मालिक शार्दूल विक्रम गुप्त जी के बेटे शाश्वत को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी मिली। कैसे पत्रकारिता आन पड़ी। आज अख़बार के संपादकीय पेज का काम देखने लगे। उन दिनों आज अख़बार व उसके संपादकीय पेज की पाठकों व समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी। हमारे बारे में भी जाना कि कहीं मैं पत्रकार इत्तफ़ाक़न तो नहीं बन गया। हमने बताया कि एक बार सिविल सेवा की परीक्षा दी। इंटरव्यू तक पहुँचा। पर मेरे सत्रह साथी चयनित होने में कामयाब हुए, हमें छोड़ कर । उसी साल से सिविल सेवा से मेरा मन उचट गया। पिताजी चाहते थे कि मैं पीसीएस दूँ। पर मन नहीं लगा। उस मुलाक़ात में उनसे बातचीत के दौरान अंदाज लग गया कि हिंदी या अंग्रेज़ी में प्रकाशित उस महीने की हर किताब वह पढ़ चुके थे। यह भी उनने बताया कि वह विद्यार्थी जीवन में बहुत सारा समय लाइब्रेरी में ही गुज़ारते थे।

बच्चे की जान लोगे क्या

वह ठेठ पत्रकार नहीं थे। इसलिए ठेठ पत्रकार देखने के आदि संपादकों से उनकी नहीं बनती थी। कई बार गहरे मतभेद नरेंद्र मोहन जी के साथ भी उनके उभरे। वह आइडिया के बहुत धनी थे। उन्हें तमाम शानदार आइडिया सूझती थी। किसी खबर को सोचना और उसे किस तरह लिखना है, इसका वह बहुत बेहतर प्लेटफ़ॉर्म बना लेते थे। पर उनमें अपने आइडिया को इंम्पलीमेंट करने का हुनर नहीं था। न ही वह इसके लिए कोई तंत्र कभी विकसित कर पाये । चाहे वह जिस भी संस्थान में रहे। इस वजह से उनकी तमाम बेहतर आइडिया काग़ज़ पर उतर ही नहीं पाई। पर वह हर आदमी का पोटैंशियल जानते थे। यह जानते थे कि कौन आदमी क्या काम कर सकता है? उनके साथ हिंदुस्तान अख़बार में चंद महीने ही काम किये मेरे आउटलुक के साथी दिवाकर जी से भी आज अजय जी को लेकर बात हुई। उन्होंने बताया उन दिनों अक्षय कुमार की एक फ़िल्म आई थी। उसका एक डायलॉग था- “बच्चे की जान लोगे क्या?” दिवाकर जी एक दिन पहले ही वह फ़िल्म देख कर आये थे।


लिहाज़ा उन्होंने अजय जी के सामने बात बात में इस डायलॉग को दोहरा दिया। अजय जी ने पट कहा कि इस फ़िल्म के बारे में तुम आज लिखो। और इसी के साथ अजय जी ने उस फ़िल्म के बारे में बहुत कुछ दिवाकर जी को बता भी दिया। दिवाकर जी ने यह भी बताया कि एक बार दिल्ली की बिजली व्यवस्था पर अजय जी ने उन्हें खबर लिखने को कहा। पर साथ ही किससे किससे बात करनी है। क्या क्या खबर में होना चाहिए यह सब भी सिलसिलेवार गिनवा दिया। उन्होंने कभी अपना और अपनी सेहत का ख़्याल नहीं रखा। मुलाक़ात के बाद उनसे बातें करने का अंतराल धीरे धीरे बहुत होने लगा। तीन चार साल से बात ही नहीं हुई थी।

आज जब उनके निधन के बारे में सुना तो संजय जी को फोन मिलाया। उनके घर जाने की यादें ताज़ा कीं। संजय जी ने बताया कि एक हफ़्ते पहले चार पाँच साल के बाद अजय जी का उनके पास फ़ोन आया था। वह मिलना चाहते थे। संजय जी को अजय जी ने बताया था कि वह खुद मिलने आते पर उनके आँखों की रोशनी चली गई। तीन फ़ीसदी ही नज़र बाक़ी है। संजय जी भी पछता रहे थे। काश! मिल लिया होता। दिवाकर भी उनके दिमाग़ में कौंधने वाले आइडिया की दुहाई दे रहे हैं।



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Shashi kant gautam

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